प्रकृति के सान्निध्य में भक्ति और मुक्ति भी
पृथ्वी, मानव जीवन की आश्रयस्थली और प्रकृति का दिव्य उपहार है, जिसका संरक्षण आज की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुका है। भारतीय वेद-शास्त्रों में पृथ्वी को माता स्वरूप मानकर उसकी रक्षा को धर्म और कर्तव्य बताया गया है। वसुंधरा दिवस का उद्देश्य भी इसी चेतना को जाग्रत करना है।
आचार्य दीप चन्द भारद्वाज
हमारे आध्यात्मिक तथा धार्मिक ग्रंथों में प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी संरक्षण की अत्यंत प्राचीन परंपरा वर्णित है। वेदों में वर्णित ऋषियों का पर्यावरण और पृथ्वी का मनुष्य के लिए महत्व तथा उसके संरक्षण का चिंतन अनुकरणीय है। हमारे ऋषियों ने प्रकृति के पंच महाभूतों जिनसे मनुष्य शरीर बनता है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु को दिव्य तथा वंदनीय माना है और उनके संरक्षण पर बल दिया है।
अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में इस धरती के संदर्भ में हमारे ऋषियों का चिंतन प्रस्तुत करते हुए इस धरती को माता के समान कहकर स्वयं को उसका पुत्र बताया गया है। ऋग्वेद में पृथ्वी के संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण की शुद्धता का संदेश देते हुए ऋषि कहता है कि इस धरती का समग्र वातावरण, नदी, पर्वत, वन ये सभी मनुष्य के कल्याण के लिए शुद्ध रहें। आज पृथ्वी के वातावरण के विषाक्त होने के पीछे सबसे बड़ा कारण है भौतिकवादी संस्कृति का विवेकहीन होकर अनुसरण करते हुए प्रकृति तथा पृथ्वी का अंधाधुंध अपने स्वार्थ के लिए दोहन करना।
यजुर्वेद में ‘नमो मात्रे पृथिव्यो’ अर्थात मनुष्य की आश्रयस्थली इस पृथ्वी माता को नमस्कार है प्रकृति के जड़ तत्वों के प्रति ऐसी आस्थावान दृष्टि केवल भारतीय संस्कृति में ही उपलब्ध है। हमारी संस्कृति के मूल में ही पर्यावरण के समस्त घटकों के संरक्षण का संदेश निहित है भारतीय जीवन शैली पृथ्वी संरक्षण की संपोषक रही है। पृथ्वी के पर्यावरण की शुद्धता के संदर्भ में हमारे ऋषियों का बड़ा गहन चिंतन था इसलिए हमारे धार्मिक ग्रंथों में वृक्ष काटना पाप के समान माना गया है और पौधारोपण करना पुण्य का कार्य माना गया है। जिससे पृथ्वी का शरीर सुंदरता से परिपूर्ण होता है और चारों तरफ वातावरण मे सात्विकता का संचार होता है। यह धरा मानव जीवन के कल्याण के लिए समस्त खनिज पदार्थों, वनस्पतियों, औषधियों, अमूल्य रत्नों का आधार है।
अथर्ववेद के भूमि सूक्त में इस पृथ्वी की स्तुति करते हुए कहा गया है, ‘यह विश्व का भरण पोषण करने वाली, धन को धारण करने वाली, सभी प्राणियों को आश्रय देने वाली, अपने गर्भ में स्वर्ण आदि पदार्थों को धारण करने वाली यह वसुधा संपूर्ण प्राणियों के लिए मंगलकारी हो।’ वैदिक ग्रंथों में पृथ्वी के संरक्षण के महत्व को वर्णित करते हुए मानव मात्र को उसके संरक्षण में संलग्न रहने का आह्वान किया गया है। पृथ्वी की शुद्धता के लिए मनुष्य के अंदर सत्य, मृदु, संकल्प, तप, त्याग प्रकृति प्रेम आदि गुणों का होना आवश्यक है, इन्हीं गुणों से ही पृथ्वी का संरक्षण किया जा सकता है। ऋषियों ने इस जगत के समस्त पदार्थों तथा प्राणियों को मित्रवत देखने का संदेश दिया है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वेदों में प्रकृति के तत्वों की शांति और शुद्धता की प्रार्थना की गई है। हमारे वैदिक साहित्य में कहा गया है कि नदी, वनों, समुद्र, पर्वतों तथा पृथ्वी से हम उतना ही ग्रहण करें जो हमारे लिए पर्याप्त तथा शुभकारी हो क्योंकि यदि इसके विपरीत किया तो पृथ्वी का संतुलन बिगड़ जाता है, जिसका भीषण परिणाम मनुष्य को भोगना पड़ता है।
हमारे ऋषियों ने वैदिक विचारों में पर्यावरण संतुलन एवं लोक मंगल के अनेक संदेश दिए हैं उनका चिंतन है की प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हमारी उपभोग की नहीं अपितु उपयोग की वृत्ति होनी चाहिए। इसलिए धरती के संरक्षण हित में हम प्राकृतिक जीवन अभ्यासी बनें।