पोखर के सूखने से
अरुण चंद्र राय
(1)
जब सूखता है
पोखर,
केवल पोखर ही नहीं सूखता।
सूखते हैं सबसे पहले
घास-फूस, काई।
मरने लगती हैं मछलियां,
मेढक और केकड़े।
दूर भागते हैं पशु-पखेरू।
किनारे के वृक्ष मरते हैं
धीरे धीरे।
आदमी है कि समझता है,
सूख रहा है केवल पोखर।
(2)
जब सूखता है
पोखर,
आते हैं तरह-तरह के बगुले।
वे मछलियों को लुभाते हैं,
बड़े पोखर का स्वप्न दिखाते हैं,
करते हैं उन्हें विस्थापित।
विस्थापन के क्रम में
दम तोड़ती हैं मछलियां,
किन्तु इस कहानी में
नहीं है कोई केकड़ा,
जो तोड़े बगुले की गर्दन।
(3)
जब पोखर सूखता है,
किनारे के खेत सूखते हैं।
बैलों को पानी नहीं मिलता
तो वे बेचे जाते हैं।
फिर मशीने आती हैं।
नलकूप खुदते हैं।
धरती का पानी जाता है चूसा,
बेधड़क।
(4)
पोखर के सूखने से
सूखती है स्वायत्तता और सम्प्रभुता।
बढ़ती है निर्भरता।
और सब समझते हैं कि
केवल सूख रहा है पोखर।
कोई प्रश्न नहीं उठाता कि
आखिर पोखर सूख ही क्यों रहा?