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पुण्य सलिला के पृथ्वी पर अवतरण का पर्व

04:00 AM Jun 02, 2025 IST
पुण्य सलिला के पृथ्वी पर  अवतरण का पर्व
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गंगा दशहरा से यह संदेश ग्रहण किया जाता है कि मनुष्य अपने प्रयासों से, घोर तपस्या से और समर्पण से सिर्फ अपना जीवन ही नहीं, अपने पुरखों का जीवन भी दिव्य कर सकता है जैसे राजा भगीरथ ने महाराजा सगर के 60 हजार पुत्रों का गंगा अवतरण के जरिये पुण्य तर्पण किया।

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आर.सी. शर्मा
भारत एक ऐसा देश है जहां नदियां केवल जलस्रोत भर नहीं है बल्कि ये जीवनदायनी मां की तरह पूज्यनीय मानी जाती हैं। भारत में सर्वाधिक पूज्यनीय नदी गंगा है। गंगा दशहरा इसी पुण्यसलिला के पृथ्वी पर अवतरण का पर्व हैं, जो हर साल ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को मनाया जाता है। यह पर्व धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक परंपरा का अद्भुत संगम है। भारतीय संस्कृति में गंगा दशहरा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि हमारी सभ्यता, इतिहास और जीवनदृष्टि का प्रतीक है।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व
गंगा दशहरा का वर्णन पुराणों मंे विशेषतः स्कंद पुराण और पद्म पुराण तथा वाल्मीकि कृत रामायण में विस्तृत रूप में मिलता है। मान्यता है कि इसी दिन राजा भगीरथ अपनी कठिन तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न करके उनके जटाओं में खेलने वाली मां गंगा को पृथ्वी पर लेकर आये थे। गंगा का अवतरण धरती में केवल जल के रूप में नहीं हुआ बल्कि पापनाशिनी शक्ति के रूप में एक दिव्य चेतना का आगमन था।
दस प्रकार के पापों से मुक्ति
हिंदू धर्म में गंगा दशहरा दश और हरा से मिलकर बना है, जिसका मतलब है गंगा में दस तरह के पापों का नाश या शमन हो जाता है। वास्तव में ये दस पाप जिनका गंगा में नाश होना या शमन होना बताया गया है- उनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार और आलस्य शामिल हैं। अतः गंगा दशहरा केवल जल में स्नान करने का पर्व नहीं है बल्कि यह विशुद्ध रूप से आत्मा की शुद्धि का पर्व है। यह आत्म शुद्धि संयम और जीवन की आध्यात्मिक पुनर्रचना का पर्व भी है।
रीति-रिवाज और धार्मिक अनुष्ठान
इस दिन हिंदू धर्म के अनुयायी गंगा में स्नान करते हैं, दान करते हैं, जप और उपवास करते हैं। विशेषकर हरिद्वार, प्रयागराज, वाराणसी, गढ़मुक्तेश्वर और ऋषिकेश में लाखों, करोड़ों श्रद्धालु एकत्र होते हैं और गंगा के आचमन से अपने जन्म जन्मांतर के पापों का शमन करते हैं। गंगा दशहरा धार्मिक से ज्यादा एक सांस्कृतिक पर्व भी है। गंगा दशहरा जल को महज भौतिक संसाधन नहीं मानता बल्कि इसे जीवन और मुक्ति का साधन भी समझता है। गंगा केवल एक नदी नहीं बल्कि हमारी चेतना की धार है। भारत में जो विविध किस्म की बहु-संस्कृतियां हैं, वे ज्यादातर गंगा के तट पर ही फली फूली हैं। ऋग्वेद से लेकर गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस तक की रचना गंगा के किनारे ही किया है।
मेले और उत्सव
इन सभी धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ग्रंथों मंे गंगा का वर्णन श्रद्धा, भक्ति और आत्मिक पवित्रता के रूप में हुआ है। इस पर्व पर लोग न सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान करते हैं बल्कि गंगा के किनारे अनेक तरह के सांस्कृतिक मेलों में हर्ष उल्लास से परंपराओं को सहेजने की साधना करते हैं। गंगा दशहरा के दिन गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक गंगा के किनारे सैकड़ों मेले लगते हैं। जहां लोग आपस में एक दूसरे से मिलते हैं, सांस्कृतिक उत्सव में शरीक होते हैं और मिलकर पर्व मनाते हैं। इन मेलों में लोकगीतों, लोकनृत्यों और विभिन्न तरह की सांस्कृतिक परंपराओं की छटाएं देखने को मिलती हैं।
कृषि संस्कृति का उत्सव
ग्रामीण जीवन में गंगा दशहरा खेत-खलिहानों की शुद्धि, नये कामों की शुरुआत और पानी के प्रति आम लोगों में पवित्रता के प्रति जागृति लाने की एक परंपरा का नाम भी है। पूरे गंगा क्षेत्र में यह दिन किसान उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।
पंचमहाभूत तत्वों का महत्व
हिंदू धर्म का तानाबाना चूंकि मूलतः प्राकृतिक पूजा और आत्म शुद्धि पर आधारित है, इसलिए जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश को सनातन संस्कृति में पंच महाभूत की संज्ञा दी गई है। पांचों जीवन तत्वों में जल को सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व माना गया है, इसलिए भारतीय संस्कृति में कहते हैं- जल ही जीवन है। गंगा दशहरा इन सारे विचारों की पुण्यभूमि है। आत्म शुद्धि के सारे सरोकारो का केंद्र है। इसलिए माना जाता है कि गंगा दशहरा हिंदू धर्म का तानाबाना रचता है।
सभ्यता का जीवन विस्तार
गंगा के अवतरण को इसलिए महज एक पौराणिक कथा नहीं सभ्यता का जीवन विस्तार माना जाता है और गंगा दशहरा से यह संदेश ग्रहण किया जाता है कि मनुष्य अपने प्रयासों से, घोर तपस्या से और समर्पण से सिर्फ अपना जीवन ही नहीं, अपने पुरखांे का जीवन भी दिव्य कर सकता है जैसे राजा भगीरथ ने महाराजा सगर के 60 हजार पुत्रों का गंगा अवतरण के जरिये पुण्य तर्पण किया। इसलिए गंगा दशहरा एक आम हिंदू के जीवन में कोई कथा नहीं, कोई धार्मिक क्रिया नहीं, महज परंपरा नहीं बल्कि जीवन संस्कृति का जीवंत विस्तार है। इ.रि.सें.

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