पिचकारी की परंपरा और आधुनिक विस्तार
पिचकारी, जो होली के रंगों से जुड़ी एक अहम वस्तु बन चुकी है, सदियों से हमारे त्योहारों का हिस्सा रही है। इसकी उत्पत्ति और विकास एक लंबी यात्रा का परिणाम है, जो प्राचीन युग से लेकर आधुनिक दौर तक फैली हुई है। शुरुआत में प्राकृतिक सामग्रियों से बनाई गई पिचकारियां आज प्लास्टिक और धातु से निर्मित होकर एक नया रूप ले चुकी हैं। होली के उत्सवों में पिचकारी का महत्व आज भी बरकरार है।
शिखर चंद जैन
बाजार में जगह-जगह बंदूकों, टैंकों, फूलों और जानवरों के चेहरे सहित तरह-तरह की डिजाइन और आकार प्रकार वाली पिचकारियां बिक रही हैं। पिचकारियों बिना होली के रंग सचमुच अधूरे हैं। लेकिन पिचकारियों का उपयोग कोई नई बात नहीं है।
सदियों से हैं पिचकारियां
पिचकरियां सदियों से होली के त्योहारों का एक अहम हिस्सा रही हैं। पिचकारी हमारे यहां लगभग ढाई हजार बरसों से एक यंत्र के रूप में प्रचलन में है। यह आधुनिक ‘पिस्टन सिस्टम’ का मूल स्वरूप है। तंत्र के माध्यम से या शारीरिक इशारे के प्रयास से किसी द्रव को आगे पहुंचाने के लिए इस यंत्र का प्रयोग होता है। इससे उत्पन्न धार में फुहार भी हो जाती है। इसी कारण यह रंगोत्सव का अंग बना। इनकी शुरुआत और उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग मत हैं। ऐसा माना जाता है कि शुरू-शुरू में त्य्ाोहार के दिन इन्हें सुगंधित व रंगीन पानी छिड़कने के लिए बनाया गया था कुछ लोग इनसे दूसरों पर रंगीन पाउडर और पानी भी डालते थे।
लकड़ी और सींगों वाली पिचकारियां
पुराने जमाने में प्लास्टिक तो होता नहीं था और धातुओं का भी उतना ज्यादा प्रचलन नहीं था। इसलिए उन दिनों पिचकरियां बांस, खोखली टहनियों, पतले तनों या जानवरों के सींग जैसी प्राकृतिक सामग्रियों से बनाई जाती थीं। पानी छिड़कने के लिए इन्हें झटका जाता होगा और उनके नरम छोर को दबा कर या बल्बनुमा किसी कोमल संरचना वाली वस्तु को दबाकर संचालित किया जाता था। रंगीन पानी लाल-पीले फूलों, हरे पत्तों या घास या फिर हल्दी जैसी चीजों से बनाया जाता था। समय के साथ पिचकारियों में कई परिवर्तन हुए। ये धातु, प्लास्टिक और लकड़ी जैसी विभिन्न सामग्रियों से विभिन्न आकार और प्रकार में बनाई जाने लगीं।
पहली बार पेटेंट
पिचकारी यानी पानी वाले बंदूक (वाटर गन) का पेटेंट नासा के इंजीनियर जे.डब्लू. वुल्फ ने 1896 में कराया था जबकि यह सदियों से होली उत्सव का हिस्सा रही है। भगवान भगवान कृष्ण जमकर होली खेलते थे। वे पिचकारियों का खूब प्रयोग करते थे। मान्यता है कि होली के दौरान उन्होंने ही पिचकारी का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। श्रीकृष्ण बचपन से किशोरावस्था तक बेहद नटखट और शरारती थे। उन्होंने देखा कि उनकी प्रिय सखा राधा उनके साथ होली खेलने में शर्म महसूस कर रही हैं। इसलिए उन्होंने बांस की छड़ी का उपयोग करके उन पर रंगीन पानी फेंकने की योजना बनाई। छड़ी के छोर पर एक छोटा-सा छिद्र था, जिसे उन्होंने पिचकारी का नाम दिया। राधाजी श्रीकृष्ण के चंचल भाव से बेहद हैरान और खुश हो गईं।
खूब भाया पिचकारी का प्रयोग
आगे चलकर लोगों को पिचकारी खूब भाने लगी। जल्दी ही लोग एक-दूसरे पर होली के अवसर पर पिचकारियों से रंग छिड़कने लगे। होली के उत्सवों में पिचकारियों का उपयोग करना मुगल बादशाहों सहित शाही परिवारों के उत्सवों का अभिन्न अंग बन गया। राजघरानों ने अपनी संपन्नता का इजहार करने के लिए चांदी और सोने से बनाई गई पिचकारियों का उपयोग किया जिन पर सुंदर नक्काशी और कीमती पत्थर लगे होते थे।
आयुर्वेद में पिचकारी का चलन
बांस की नली से जल लेे जाने की विस्तृत विधियां ‘समरांगण सूत्रधार’ में आई हैं। पुरा विशेषज्ञ श्रीकृष्ण जुगनू बताते हैं कि आचार्य सुश्रुत के कब्ज या कोष्ठबद्धता होने पर बस्तिकर्म हेतु जिस यंत्र के प्रयोग की चर्चा की हैं, वह पिचकारी ही है। लकड़ी और धातु के प्रयोग से पहले चमड़े के ब्लेडर को प्रयोग में लाया जाता था। भस्त्रिका और मशक उसके ही बड़े रूप हैं जिनका उल्लेख भगवान पाणिनि भी करते हैं। ऐसे भी जमाने थे जबकि हर ज्ञान की पुस्तक में तकनीक और यंत्र आदि के बारे में अध्याय को लिखा जाता था। अकेले सुश्रुत ने दो सौ से ज्यादा यंत्रों को लिखा।