पारदर्शिता से सम्मान
एक देवालय में भक्ति संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। समारोह में श्रोता और भक्तगण भजनों का रसपान कर रहे थे। बांसुरी वादक बांसुरी को होंठों से सटाकर स्वरों का निष्पादन कर रहा था, साथ में ढोलकिया ढोलक को दनादन पीटे जा रहा था। ढोलक को इस बात की गहरी कसक थी कि छिद्रों से भरी बांस की पोली बांसुरी का इतना मान-सम्मान कि उसे होंठों से चूमकर बजाने की रीत और हमारी अच्छी भली कद काठी, दिखने में सुरूप और बुलन्द आवाज का धनी होने पर भी हमें निरन्तर हाथों, गुल्लों व डंडियों से इस कदर पीटा जाता है, मानो पिटना ही हमारी नियति हो। प्रभु यह पक्षपात क्यों? ढोलक की बात सुनी तो बांसुरी बोली, ‘हम दोनों एक ही समाज के अंग हैं। एक-दूसरे के पूरक हैं। तुम्हारी पिटाई और मेरी मान जड़ाई में भी एक बात छिपी हुई है।' ढोलक बोला, ‘कौन सी बात भला?’ बांसुरी ने उत्तर दिया, ‘मेरी कोई चीज छुपी नहीं है और मेरे दोनों सिरे खुले हैं। बीच-बीच में छेद हैं। मेरे अंदर वायु का जो स्पंदन आता है, उसे मैं तत्क्षण बाहर फेंक देती हूं। मेरी पारदर्शिता व त्याग के कारण मुझे इतना स्नेह और अपनापा मिला है। तुम सब कुछ छुपाए हुए हो। लोगों को तुम्हारा यह छद्मवेश नहीं सुहाता। इसी से तुम्हारी पिटाई होती है।’
प्रस्तुति : राजकिशन नैन