पाठकों के पत्र
खामोशी से गूंजती कहानियां
अठारह मई के दैनिक ट्रिब्यून के ‘रविरंग’ में प्रकाशित ‘ज़िंदगी बदलती कहानियां’ केवल लेख नहीं, बल्कि आत्मा को छू लेने वाला अनुभव था। ये वे कहानियां थीं जो न तो मंचों से कही जाती हैं और न ही सुर्खियों में आती हैं, फिर भी ये बदलाव की सबसे ठोस बुनियाद बनती हैं। सामाजिक संवेदनाओं, सेवा और आत्मबल से परिपूर्ण इन कथाओं ने यह साबित किया कि नायक केवल वे नहीं होते जो पर्दे पर चमकते हैं, बल्कि वे भी होते हैं जो खामोशी से समाज का चेहरा बदल रहे होते हैं। लेख की भाषा सरल होने के साथ-साथ विचारों में गहराई लिए हुए थी। ऐसे लेख आज की पत्रकारिता को एक नई दिशा देते हैं।
विक्रम सिंह बिजारणियां, सीडीएलयू, सिरसा
मोबाइल की घातक लत
बच्चों में मोबाइल की लत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है, जिससे उनका मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास प्रभावित हो रहा है। परिजन भी मोबाइल में व्यस्त रहते हैं, जिससे बच्चे और अधिक निर्भर हो जाते हैं। पढ़ाई में ध्यान कम और एकांत में रहना उनकी आदत बनती जा रही है। उन्हें इस लत से निकालने के लिए खेल, योग, पुस्तकों, संगीत, कला, संवाद, नैतिक शिक्षा, प्रकृति, ध्यान और सामाजिक गतिविधियों की ओर प्रेरित करना होगा। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों के साथ समय बिताएं, उन्हें सुनें, समझें, प्रकृति भ्रमण कराएं, समूह गतिविधियों में शामिल करें और तकनीक के संतुलित उपयोग की आदत डालें। बच्चों को प्यार और समझदारी से सही मार्ग दिखाना जरूरी है।
राहुल शर्मा, रसीना, कैथल
जनसुरक्षा की अनदेखी
संपादकीय ‘जश्न और हादसा’ में उल्लेख किया गया है कि शासन और प्रशासन की लापरवाही के कारण स्टेडियम के आसपास क्षमता से अधिक लोग एकत्र हो गए। यदि इन्हें समय रहते नियंत्रित किया गया होता, तो यह हादसा रोका जा सकता था। खिलाड़ी की गरिमामय और शानदार विदाई होनी चाहिए, परंतु इस अवसर पर खेल प्रेमियों की जान जोखिम में न पड़े, यह सुनिश्चित करना भी उतना ही आवश्यक है।
बी.एल. शर्मा, तराना, उज्जैन