पाकिस्तान जैसी समस्या के समाधान का प्रश्न
पहलगाम नरसंहार के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोषियों को सबक सिखाने की बात कही। ताकि पाकिस्तान जैसी समस्या का स्थाई समाधान हो सके। मोदी को मालूम है कि उनकी ‘विरासत’ पर इसका प्रभाव पड़ेगा कि वे देश के पश्चिमी पड़ोसी के साथ कैसे निबट पाए। दूसरी ओर, पाकिस्तान स्थिति का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश में लगा है और रक्षा तैयारी बढ़ा रहा है। हालांकि कोई बड़ी वैश्विक ताकत युद्ध नहीं चाहती, बेशक तनाव बना रहना रास आए।
ज्योति मल्होत्रा
पहलगाम नरसंहार पर मध्य मार्ग अपनाने की कोशिश करने में लगे अमेरिकी फिर से वही कर रहे हैं, जिसमें उन्हें महारत है, यह कहकर कि प्रधानमंत्री मोदी को ‘हमारा पूर्ण समर्थन’ है, लेकिन ठीक इसी वक्त पाकिस्तान की आलोचना एक हद से परे जाकर करने से बच रहे हैं। आखिरकार, अमेरिकी प्रशासन में यह तर्क चला हुआ है कि अगर आप अपराधी की मदद करने वालों पर खुलेआम इल्जाम लगा देंगे, तो भविष्य में उन्हीं से मदद कैसे मांग पाएंगे?
यहां कोई मुगालता न रहे, अंततः युद्ध कोई नहीं चाहता। न अमेरिकी, न ही यूरोपीय। रूसियों को इतनी परवाह नहीं है, क्योंकि वे तीन साल से युद्धरत हैं और अपने बहुत लोगों को खो चुके हैं, लेकिन व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन के उस हिस्से को पाने के लिए दृढ़संकल्प लगते हैं, जिस पर उनकी नजर है। जहां तक चीनियों का सवाल है, वे भी युद्ध नहीं चाहते क्योंकि, जैसा कि जैबिन टी जैकब ने लिखा है, वे चाहेंगे कि ‘युद्ध को छोड़कर’ भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव जारी रहे, जो धीरे-धीरे एक-दूसरे को निपटा देगा।
पहलगाम के बाद की स्थिति निश्चित रूप से असामान्य है। सर्वप्रथम, 2016 में उड़ी और 2019 में पुलवामा कांड में सैनिकों के शहीद होने के विपरीत, इस बार निर्दोष नागरिक मारे गए हैं। भारत ने उड़ी हमले का जवाब नियंत्रण रेखा के पार ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करके और पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान की सीमा के काफी अंदर घुसकर बालाकोट स्थित आतंकी शिविरों पर मिसाइलें दागकर किया था।
दूसरा, कारगिल में संघर्ष सहित भारत और पाकिस्तान के बीच सभी पिछले युद्ध जो भारत ने लड़े हैं–और जीते हैं-भले ही शुरुआत भारत ने कभी नहीं की। इस बार, पीएम मोदी ने सार्वजनिक रूप से सबक सिखाने की बात कही है। इस वादे से लेकर कि उनकी सरकार हमले को अंजाम देने वाले आतंकवादियों को खोजने के लिए ‘दुनिया के अंतिम छोर तक जाएगी’, गृह मंत्री अमित शाह द्वारा हिंदी में यह कहने तक कि ‘चुन-चुन के जवाब दिया जाएगा’, ऐसा साफ लगता है कि बदला लिया जाएगा।
स्पष्टतः प्रधानमंत्री पाकिस्तान का व्यवहार हमेशा के लिए बदलना चाहते हैं। पिछली सरकारों, भाजपा और कांग्रेस दोनों की, ने अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में, जवाब देने की अलग-अलग शैली आजमाई थी। कारगिल में युद्ध लड़ने से लेकर आगरा में वार्ता के लिए परवेज मुशर्रफ को आमंत्रित करना, लेकिन उनके साथ समझौता अंतिम क्षण पर सिरे न चढ़ने तक और मुंबई हमलों के बाद संबंध तोड़ने से लेकर दिल्ली से रावलपिंडी के लिए सीधे विशेष विमान से विदेश मंत्री को भेजकर संबंध बहाल करने तक - पिछले 30 सालों में तमाम नुस्खे आजमाए जा चुके हैं।
सवाल यह है कि पाकिस्तान जैसी समस्या का समाधान कैसे किया जाए? इस सवाल से जूझने वाले हर प्रधानमंत्री की तरह मोदी को इल्म है कि इतिहास में उनकी याद इस बात से प्रभावित होगी कि वे भारत के पश्चिमी पड़ोसी के साथ किस प्रकार बरत पाए। उन्होंने न केवल 2014 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को दिल्ली आमंत्रित किया बल्कि 2015 में उनके घर पहुंचकर भी हाथ मिलाने की कोशिश की। अगले कुछ दिन और सप्ताह सबसे कठिन होने की उम्मीद है।
सबसे महत्वपूर्ण कारकों में अमेरिका का रुख अहम रहेगा। भारत और पाकिस्तान, दोनों पर, काफी प्रभाव रखने वाली एकमात्र शक्ति के रूप में, ट्रम्प प्रशासन भावनाओं को शांत करने की आस में दोनों पक्षों के संपर्क में है। लेकिन तथ्य यह है कि कोई अमेरिकी विशेष दूत अब तक सूटकेस पैक करके नई दिल्ली या इस्लामाबाद के लिए रवाना नहीं हुआ - भले ही भारत सार्वजनिक रूप से ‘तीसरे पक्ष’ को बीच में डालने के विचार मात्र को नापसंद करता है - यह दर्शाता है कि भारत के अलावा दुनिया भर के देशों के साथ टैरिफ पर सौदेबाजी करने में उलझे अमेरिका के पास और भी काम हैं। वास्तव में, उम्मीद है कि टैरिफ पर द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले शुरुआती देशों में भारत-अमेरिका संधि एक हो सकती है, जिससे आर्थिक चिंता कुछ कम हो पाएगी, जोकि पहलगाम घटना से पहले एक बड़ा मुद्दा रही। फिर, पहलगाम घटना पर डोनाल्ड ट्रम्प की शुरुआती टिप्पणियों पर गौर करें, जब उन्होंने एक सप्ताह पहले प्रेस रिपोर्टरों से कहा : ‘मैं भारत के बहुत करीब हूं और मैं पाकिस्तान के भी बहुत करीब हूं, जैसा कि आप जानते हैं। और कश्मीर को लेकर वे 1,000 वर्षों से झगड़ रहे हैं। कश्मीर का मसला 1,000 वर्षों से जारी है, शायद उससे भी अधिक समय से...’ ।
लेकिन जिस प्रकार भारत की ओर से बयानबाजी में तेजी आई, जिसमें देश भर के परिवारों के दुख की गूंज भी शामिल है, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस की ताजा टिप्पणियों में वही घबराहट झलक रही है, जो 1999 के कारगिल संघर्ष के दौरान बिल क्लिंटन के ब्यानों में थी, जब वे महसूस करने लगे थे कि कहीं टकराव बढ़कर ‘परमाणु युद्ध’ में न बदल जाए। वीरवार को फॉक्स न्यूज को दी गई वेंस की टिप्पणी उसी पुरानी याद जैसी थी। उन्होंने कहा, ‘निश्चित रूप से, मुझे चिंता है कि कहीं मामला बढ़ न जाए, खासकर दो परमाणु शक्तियों के बीच’। वेंस ने आगे कहा : ‘हम उम्मीद करते हैं कि भारत इस आतंकवादी हमले का जबाव कुछ इस तरह से दे कि यह विस्तृत क्षेत्रीय संघर्ष का रूप न ले पाए... और हम उम्मीद करते हैं कि पाकिस्तान, जहां तक वह जिम्मेदार हैं, भारत के साथ सहयोग करे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उसके क्षेत्र से कभी-कभार गतिविधियां चलाने वाले आतंकवादियों का पता लगाया जा सके और उनसे निबटा जाए...’।
गिलास आधा भरा या आधा खाली? तमाम बड़ी शक्तियों का वह खेल, जो वे दोनों पक्षों के साथ खेलना चाहती हैं, जहां वेंस भारत के प्रति सहानुभूति दर्शा रहे हैं वहीं स्पष्ट रूप से यह भी चाहते हैं कि वह संयम बरते। इसी बीच, वे पाकिस्तान को ‘भारत के साथ सहयोग’ करने के लिए भी कह रहे हैं, जबकि खुद अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय जांच में शामिल होने से दूर रखना चाह रहे हैं और यही पाकिस्तान चाहता है। यहां गौरतलब है कि वेंस को अभी शक है कि आतंकवादी हमेशा पाकिस्तानी इलाके से ही गतिविधियां चलाते हैं-यानि केवल ‘कभी-कभार’। फिर अरब दुनिया का आलम है। पहलगाम घटना पर सऊदी अरब की प्रतिक्रिया में पिछले 10 दिनों में काफी बदलाव आया है – सनद रहे, नरसंहार के वक्त प्रधानमंत्री मोदी रियाद के दौरे पर थे। उस समय, शक्तिशाली क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जारी एक संयुक्त बयान में ‘सीमा पार आतंकवाद’ की निंदा की गई थी और कहा गया था कि ‘आतंकी कृत्यों को किसी तरह न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता’। लेकिन जिस प्रकार पाकिस्तान स्थिति का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश में लगा है,और इस बीच अपनी रक्षा तैयारियां बढ़ा रहा है और उसने अपना हवाई क्षेत्र बंद कर दिया है, अब सऊदी अरब कह रहा है कि दोनों देशों को ‘टकराव आगे बढ़ाने से बचना चाहिए और कूटनीतिक तरीकों से विवादों का हल निकालना चाहिए’।
अब आगे क्या? दुनिया ने चाहे प्रधानमंत्री मोदी को कुछ भी कहा हो, लेकिन उन्होंने और उनकी सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, खासकर अमेरिकियों को यह स्पष्ट कर दिया होगा कि अगर पाकिस्तान दोषियों को जल्द सजा नहीं देगा, तो भारत के पास मामले को अपने हाथ में लेने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होगा।
सवाल यह है कि भारत कब तक इंतजार करने को तैयार है और क्या इस फैसले में मानसून अपनी ओर से समय सीमा तय करवाएगा। अगले कुछ दिन और हफ्ते अहम होने वाले हैं।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।