पांच दशक बाद भी नहीं दरकी है दीवार
जिन फिल्मों के साथ वक्त ठहर गया, उनमें 'दीवार' को भी गिना जा सकता है। इस फिल्म का निर्देशन, पटकथा और डायलॉग के साथ ही अमिताभ बच्चन की अदाकारी आज भी हर उस दर्शक को याद है, जिसने ये फिल्म देखी। 'दीवार' की पटकथा मिसाल बन गई, जिसे कई साल पुणे के 'फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया' में बतौर बेहतरीन पटकथा पढ़ाया जाता रहा। फिल्म की कहानी झुग्गियों में रहने वाले दो गरीब भाइयों के इर्द-गिर्द घूमती है। बड़ा भाई विजय (अमिताभ) स्मगलर बन जाता है, छोटा भाई रवि (शशि कपूर) ईमानदार पुलिस अधिकारी बनता है। दो भाइयों के बीच संघर्ष, अदाकारी और संवादों ने फिल्म यादगार बना दी।
हेमंत पाल
फिल्मों के मुरीद किसी भी दर्शक से उसकी पसंदीदा फिल्मों के नाम पूछे जाएं, तो उसमें एक नाम 'दीवार' का जरूर होगा। इस फिल्म के डायलॉग कुछ ऐसे थे, जो आज भी लोगों को याद हैं। ये ऐसी फिल्म थी, जिसने न सिर्फ अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन के किरदार में पहचान दिलाई, बल्कि इस छवि को दमदार रूप से आगे भी बढ़ाया। कई मामलों में ये ट्रेंड सेटर फिल्म थी। यह फिल्म गुस्सैल, जिद्दी और मां के प्रति समर्पित ऐसे नायक की फिल्म थी, जिसमें हर कलाकार ने अपने कैरियर की यादगार भूमिका निभाई। 'दीवार' हिंदी सिनेमा की उन चुनिंदा फिल्मों में है, जो 50 साल बाद भी भुलाई नहीं जा सकी। कहा जाता है कि अमिताभ का विजय वर्मा का किरदार उस दौर के मुंबई के माफिया सरगना हाजी मस्तान के जीवन का नाटकीय रूपांतरण था। जबकि, इस फिल्म को 'गंगा जमुना' और 'मदर इंडिया' से प्रभावित बताया जाता है।
यश चोपड़ा निर्देशित इस फिल्म ने 'शोले' के बाद सलीम-जावेद को लोकप्रिय फिल्म लेखक बना दिया था। 'जंजीर' ने जिस अमिताभ को एंग्री यंगमैन की पहचान दी 'दीवार' उसकी अगली कड़ी थी। इसके बाद ये नायक की ऐसी पहचान बन गई, जिसे अमिताभ ने तीन दशक तक भुनाया। अमिताभ बच्चन के विद्रोही नायक की भूमिका को 70 और 80 के दशक में सलीम-जावेद ने ही गढ़ा। इस लेखक जोड़ी की ज्यादातर फिल्मों का नायक समाज के तय कायदे नहीं मानता और पिता के ख़िलाफ़ विद्रोही तेवर अपनाने वाला नज़र आता है। लेकिन, 'दीवार' के नायक के साथ उन्होंने मां से रिश्ते का एक मार्मिक पहलू भी जोड़ा। फिल्म के नायक विजय की बांह पर लिखा होता है 'मेरा बाप चोर है।' अमिताभ 'दीवार' में पिता के प्रति गुस्से से भरे दिखाई देते हैं। लेकिन, यहां सांत्वना के बोल उनके पिता को भी मिलते हैं, यह भूमिका एक मिल में मजदूर यूनियन के नेता की है, जिन्हें षड्यंत्र से बेईमान साबित कर दिया गया था।
युवाओं में एक आक्रोश का चेहरा बना नायक
जिस दौर में 'दीवार' आई थी, तब भारतीय समाज बदलाव की स्थिति में था। रहन-सहन, सोच, सामाजिक परिवेश के साथ युवा महत्वाकांक्षा भी कुलांचें भर रही थी। आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी बड़ी हो गई थी और युवाओं में आक्रोश पनप रहा था। इसका सबसे बड़ा चेहरा बनी अमिताभ की दो फ़िल्में। पहली थी 'जंजीर' जिसमें उसकी आंखों के सामने पिता की हत्या हो जाती है। फिल्म में अमिताभ एक पुलिस अधिकारी थे, जो सिस्टम का शिकार होता था। इसी श्रृंखला की दूसरी फिल्म बनी 'दीवार' जिसने पूरे सिस्टम ठेंगा बताया। महानगरों में गुंडागर्दी और उसकी आड़ में तस्करी का धंधा पनप रहा था। इसी आक्रोश का चेहरा बने अमिताभ बच्चन।
'दीवार' में दो विपरीत सोच वाले बेटों को पालने के साथ नैतिक मूल्यों पर खरी उतरी मां की सशक्त भूमिका निरूपा रॉय ने निभाई। क्लाइमेक्स में उनकी छवि 'मदर इंडिया' की नरगिस वाली भूमिका से मेल खाती लगती है। 'दीवार' में ऐसे कई सीन थे, जिन्होंने 1975 के समय काल के हिसाब से दर्शकों को झकझोर दिया था। बचपन से अमिताभ बच्चन का अपनी मां के साथ मंदिर नहीं जाना। पांच दशक पहले ऐसे ही दृश्यों ने फिल्म के कथानक को दमदार बनाया।
नास्तिक, जिद्दी और विद्रोही नायक
फिल्म में ऐसे कई ऐसे दृश्य थे, जो अपने समय काल से काफी आगे थे। यही कारण है कि 50 साल बाद भी वे प्रासंगिकता लिए हैं। 24 जनवरी 1975 में जब ये फिल्म रिलीज हुई, तब ऐसा सोच भी नहीं गया था। अमिताभ बच्चन का घोर नास्तिक होना। कहना कि वो भगवान को नहीं मानता, वो जो भी करेगा अपने दम पर करेगा। यह लड़का पॉलिश करके पैसा कमाता है, लेकिन एक सेठ के पैसे फेंक कर देने पर उससे कहता है 'मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।' पांच दशक पहले फिल्म नायक सद्चरित्र व सामाजिक होता था। पर, 'दीवार' फिल्म का नायक उस दौर के नायकीय गुणों से परे था।
डायलॉग जो दर्शक आज भी नहीं भूले
फिल्म में अमिताभ डॉकयार्ड के कुली की भूमिका में हैं, जहां के मजदूरों से वहां के गुंडे हफ्ता वसूली करते थे। एक दिन ये गुस्सैल कुली उन बदमाशों से भिड़ जाता है। लेकिन, उससे पहले अमिताभ का एक डायलॉग उस भिड़ंत का संकेत देता है। वो रहीम चाचा से कहता भी है 'जो पच्चीस बरस में नहीं हुआ, वो अब होगा। अगले हफ्ते एक और कुली इन मवालियों को पैसे देने से इंकार करने वाला है।' जब ये हफ्ता वसूली करने वाले उसे ढूंढ़ रहे होते हैं, तब ये कुली उनके गोदाम में ही उनका इंतजार कर रहा होता है! ये वो दृश्य था, जिसे फिल्म में सबसे ज्यादा तालियां मिली थी। उस दृश्य में एक डायलॉग था 'पीटर तेरे आदमी मुझे बाहर ढूंढ रहे हैं और मैं तुम्हारा यहां इंतजार कर रहा हूं।' फिल्म के ऐसे दृश्यों ने ही अमिताभ के नायकत्व को चिरस्थाई बनाया था। वे उस दौर की नई पीढ़ी के आक्रोश का प्रतीक बन गए थे। फिल्म में भाइयों के बीच का एक दृश्य भी यादगार है। इसमें स्मगलर बना बड़ा भाई आक्रोश में छोटे भाई से कहता है 'आज मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तुम्हारे पास क्या है? सामने खड़े शशि कपूर कहते हैं 'मेरे पास मां है।'
वो कभी न भूलने वाले समय काल
1975 के साल को हिंदी फिल्मों के कभी न भूलने वाले समयकाल के रूप में इसलिए भी गिना जाता है, कि इस साल में चार ऐसी फ़िल्में आई, जो कई मामलों में मील का पत्थर बनी! शोले, धर्मात्मा, जय संतोषी मां और 'दीवार' ने कमाई के मामले में भी रिकॉर्ड बनाया। उस साल तीन फिल्मों ने 'दीवार' से ज्यादा कमाई की। लेकिन, उससे भी 'दीवार' का जादू कम नहीं हुआ। सबसे कम लागत में बनी 'जय संतोषी मां' ने ज्यादा ज्यादा कमाई की थी। जबकि, एक करोड़ रुपए 'दीवार' ने तब कमाए, जब टिकट दर डेढ़ से तीन रुपए होती थी। 'दीवार' ने 1976 में साल की 'बेस्ट मूवी' के ख़िताब के साथ छह फिल्मफेयर अवॉर्ड जीते। आज 50 साल बाद इस फिल्म के 12 में से 10 बड़े किरदार दुनिया में नहीं हैं। अमिताभ बच्चन के अलावा नीतू सिंह ही हैं, जिन्होंने इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। लेकिन, फिल्म को उस दौर के दर्शक नहीं भूले और न इस दौर के दर्शक!