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पहलगाम हमले के बाद रणनीतिक कदम का सवाल

04:00 AM Apr 25, 2025 IST
पहलगाम हमले के बाद रणनीतिक कदम का सवाल
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पहलगाम में कायराना आतंकी हमले मेंे निर्दोष पर्यटकों की जान जाने के बाद पूरा देश दुख व गुस्से में है। ऐसे में जनता की सरकार से उम्मीद स्वाभाविक है कि वह हमलावरों, उनके सीमा पार प्रायोजकों को माकूल जवाब देगी। जबकि जवाब की रणनीति बनाते समय प्रधानमंत्री मोदी को भी अहसास होगा कि नागरिकों की हत्या का यह कुकृत्य 'अस्वीकार्य' की श्रेणी में है।

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विवेक काटजू

गत‍् 22 अप्रैल को पहलगाम के बैसरन में निर्दोष पर्यटकों पर हुए कायराना आतंकवादी हमले से पूरा देश बहुत गुस्से और व्यथा में है। इस हमले में भारत के विभिन्न हिस्सों से आए 28 निर्दोष पर्यटकों की जान चली गई। देश के समूचे राजनीतिक वर्ग ने इसकी निंदा की है, हालांकि कुछ विपक्षी दल यह मांग भी कर रहे हैं कि केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के जिम्मेवार लोगों से जवाबतलबी हो। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने भी इस जघन्य कांड की भर्त्सना की है और महत्वपूर्ण देशों के नेताओं ने कहा है कि वे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत के साथ खड़े हैं।
हालांकि, इस तरह का समर्थन पर्दे के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से संयम बरतने की अपील के बावजूद है, तथ्य यह है कि यह हमला मोदी सरकार के समक्ष सुरक्षा एवं जनसंपर्कों में बहुत गंभीर चुनौती पेश करता है। पुलवामा या गलवान के विपरीत, जहां रक्षा कर्मी शहीद हुए, बैसरन में आतंकवादियों ने निर्ममतापूर्वक नागरिकों को चुन-चुनकर निशाना बनाया। इसलिए यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि देश की निगाहें मोदी पर होंगी। यह उम्मीद की जाएगी कि वह बैसरन के अपराधियों, उन्हें सहायता देने वालों तथा प्रायोजित करने वालों को पूर्ण तथा माकूल जवाब देंगे, खासकर 2019 के बाद से जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने के दावों के बाद।
इस कांड को अंजाम देने का दावा ‘रेजिस्टेंस फ्रंट’ नामक संगठन द्वारा ली गई है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) से संबंधित है। जिन लोगों को भारत के खिलाफ पाकिस्तानी आतंकवाद के तौर-तरीकों के अध्ययन करने का लंबा अनुभव है, उन्हें सहज रूप से पता होगा कि इस तरह का हमला पाकिस्तानी जनरलों के खास आदेशों के बिना कभी संभव नहीं है। इसलिए, सर्वप्रथम आकलन उस वजह का बनता है जिसके कारण पाकिस्तानी जनरलों ने हमले का आदेश दिया होगा। अफगान तालिबान के साथ भारत के संबंधों में प्रगति से वे नाखुश हैं, इस पर उन्होंने काफी नज़र बनाए रखी है। वे भारत को तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान और बलूच विद्रोही समूहों की मदद करने में जिम्मेदार मानते हैं। इस सबके अलावा 11 मार्च को ‘जाफर एक्सप्रेस’ पर बलूच लिबरेशन आर्मी के हमले के बाद भारत के प्रति उनका गुस्सा और तीव्र हुआ। पाकिस्तानी सेना ने उस हमले के लिए भारत को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया। हालांकि पाकिस्तानी प्रतिष्ठान और उसके विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया अधिक संयमित और सतर्क थी।
जाफर एक्सप्रेस पर हमले के बाद पाकिस्तान में जो कुछ हुआ उसके तमाम पहलुओं का अध्ययन करने के बाद इस लेखक ने गत 21 मार्च को ‘फर्स्टपोस्ट’ में एक लेख लिखा। इसका समापन पैराग्राफ बैसरन हमले में प्रासंगिक है और इस प्रकार है : ‘बीएलए हमले के तुरंत बाद, पाकिस्तानी सेना ने कहा कि इसके साथ ‘खेल के नियम बदल गए हैं’। चौधरी (लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी, महानिदेशक, इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस) से एक प्रेस वार्ता में इन शब्दों की व्याख्या करने के लिए कहा गया था। इस पर उन्होंने जो शब्द कहे उन पर भारतीय विश्लेषकों और नीति-निर्माताओं को बारीकी से ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा ः ‘बीएलए और (आतंकी समूहों) से उसी तरह निपटा जाएगा जिसके वे ‘हकदार’ हैं और यही बात उनके सूत्रधारों और उकसाने वालों पर भी लागू है, चाहे वे पाकिस्तान के अंदर हों या बाहर’।
पाकिस्तानी सेना अपना हिसाब चुकता करने में ‘बदल’ (जिसका पश्तो में अर्थ है बदला) परंपरा का पालन करती है। भारत के खिलाफ यही करती आई है, वह बात अलग है इस चक्कर में उन्होंने देश को कंगाल बना डाला। टकराव के अलावा उसे कोई राह न सूझती। यह उनकी फितरत का हिस्सा है व हरेक सेना प्रमुख को यही दिखाना होता है कि ‘माकूल जवाब’ देने में वह सबसे आगे है, खासकर उस संस्था पर हमले के मामले में, जिसका वह नेतृत्व करता है, जिसको लेकर राय या गलतफहमी पाले रखता है कि यह भारत का काम है। ऐसे में, संभव है कि पाकिस्तानी सेना निकट भविष्य में भारत में किसी आतंकवादी घटना को प्रायोजित करने का प्रयास करे।
इसमें संदेह नहीं कि भारतीय नीति निर्माता इस बड़ी संभावना से अवगत रहे होंगे। भारतीय प्रतिष्ठान को यह खुला संदेश देना चाहिए कि किसी भी पाकिस्तानी दुस्साहस का उचित जवाब दिया जाएगा और यह भी कि स्थिति के आगे बिगड़ने की पूरी जिम्मेदारी उसकी होगी। यह अवसर बालाकोट हमले से अपनाए गए ‘पूर्व-प्रतिक्रिया सिद्धांत’ को दोहराने का एक उपयुक्त ढंग खोजने का भी है।
अग्रणी एवं मित्र देशों को यह भी सूचित किया जाना चाहिए कि वे पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर तथा अन्य स्थानों पर प्रायोजित आतंकवाद से गर्मी बढ़ाने के खिलाफ चेतावनी दें। और, निश्चित रूप से उन्हें पाकिस्तान को स्पष्ट कर देना चाहिए कि वे दोनों देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे मतभेदों के हल में हस्तक्षेप न करें, जैसा कि पाकिस्तानी सेना हमेशा से करवाना चाहती रही है’।
यह स्पष्ट नहीं कि भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान ने चौधरी की उक्त मीडिया ब्रीफिंग को कितनी गंभीरता से लिया, लेकिन भारत में 16 अप्रैल को विदेशी पाकिस्तानियों को दिए गए पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के बयान पर काफी ध्यान दिया गया है। जब उन्होंने दो-राष्ट्र सिद्धांत का जिक्र किया था, जो पकिस्तानी सोच की आखिरी सीमा है और जिसकी रक्षा करने की शपथ सेना ने ले रखी है, मुनीर ने स्पष्ट वह कह डाला, जो सेना और अधिकांश पाकिस्तानी अंदर ही अंदर मानते हैं, लेकिन कहते नहीं यानी ‘हिंदू और मुसलमान दो अलहदा मुल्क हैं, जिनमें कोई मेल नहीं हो सकता’। उन्होंने बलूची आतंकवादियों पर गुस्सा जाहिर किया, लेकिन जोर देकर कहा कि वे पाकिस्तान की एकता भंग नहीं कर पाएंगे। मुनीर का यह कहना कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान की ‘गले की नस’ है, भी पुरानी बात है। मुनीर के इस भाषण में भारत के प्रति दुश्मनी स्पष्ट झलकती है, लेकिन मौजूदा आतंकी हमले का कारण जानने के लिए चौधरी के बयान पर वापस आना जरूरी है।
बैसरन हमले के जवाब में रणनीति बनाते समय मोदी को पूरा अहसास होगा कि देश के कोने-कोने से आए निर्दोष नागरिकों की हत्या का यह कांड भारतीय जनता के लिए ‘अस्वीकार्य’ की श्रेणी में है। इसके उलट, उड़ी और पुलवामा में हुए हमले भारतीय सैनिकों के खिलाफ थे। जाहिर है, कोई भी प्रतिक्रिया अचानक से या तत्काल नहीं हो सकती, लेकिन वह होनी चाहिए, जो भारतीय जनमानस को प्रभावी रूप से संतुष्ट करे। जाहिर है, बैसरन के बाद कोई बना बनाया नुस्खा पेश करना आसान नहीं होगा।
अपरिहार्य है कि भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव कम करने को महाशक्तियां बीच-बचाव करने आएं। पाक जनरलों का आग्रह होगा कि द्विपक्षीय समस्याओं यानी जम्मू-कश्मीर समस्या के मूल कारणों में जाने के लिए उनकी भागीदारी जरूरी है। वे इसपर अमल के लिए यूएनएससी या डोनाल्ड ट्रम्प का आह्वान कर सकते हैं, लेकिन भारत को दो टूक स्पष्ट करना चाहिए कि भारत-पाकिस्तान के मुद्दों को द्विपक्षीय रूप से ही सुलझाया जाए। भारत ने कूटनीतिक तरीके से पहला झटका दिया है कि 1960 की सिंधु जल संधि, जो दो युद्धों से बची हुई है, को तत्काल निलंबित कर दिया जाएगा, और दोनों देशों में राजनयिक मिशनों की पहले से ही कम संख्या को आधा कर दिया जाएगा। देश जानता है कि यह केवल पहला कदम है, पाकिस्तान के साथ-साथ दुनिया के लिए चेतावनी है कि भारत इस मामले को लेकर गंभीर है।

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लेखक भारत सरकार के पूर्व विदेश सचिव हैं।

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