पड़ोस में नये गठजोड़ के अशुभ संकेत
बांग्लादेश और पाकिस्तान द्वारा पुरानी गलतियों के लिए एक-दूसरे को माफ करने की आश्ांका साफ नजर आ रही है। पश्चिम व पूर्वी सीमा पर स्थित दोनों पड़ोसी देशों के बीच दशकों बाद बढ़ती निकटता भारत के लिए सकारात्मक संकेत नहीं। अब दारोमदार केंद्र सरकार पर है कि वह इस घटनाक्रम के असर से कैसे निपटेगी।
ज्योति मल्होत्रा
भारत की सीमाओं के दोनों तरफ एक बड़ा मंथन चल रहा है, जो आरएसएस के ‘अखंड भारत या अविभाजित उपमहाद्वीप’ की अवधारणा को एक नई चुनौती पेश करता दिखाई देता है। पूर्व में, बंगाल की खाड़ी के इर्द-गिर्द एक नया समुद्र-मंथन हो रहा है, क्योंकि चीन और पाकिस्तान, दोनों के साथ, जिस तरह ‘नव बांग्लादेश’ पींघें डाल रहा है, उतना तो दशकों में नहीं हुआ। और इधर पश्चिम में, पाकिस्तान में, शक्तिशाली सेना प्रमुख कुछ इस तरह दिखाई दे रहे हैं मानो खुद को आधुनिक जिन्ना समझने लगे हैं, जब वे कथित ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’और इस तरह के अन्य विषयों पर प्रवचन कर रहे थे।
शुरुआत बांग्लादेश से करते हैं। बीते 15 वर्षों में यह पहली बार है, जब पाकिस्तानी अधिकारी सलाह-मशविरे के लिए बीते सप्ताह ढाका पहुंचे, इस दौरान ‘बांग्लादेश के विदेश सचिव ने 1971 में तत्कालीन ‘पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए नरसंहार’ के लिए माफ़ी की मांग की। साथ ही यह भी कहा कि पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी हिस्सा अलग होने के बाद– निस्संदेह भारत की कुछ मदद से–4.3 बिलियन डॉलर का हिस्सा लेना बकाया है, हालांकि बांग्लादेशी विदेश सचिव ने भारतीय मदद का जिक्र नहीं किया।
इतना ही नहीं, अगले 10 दिनों के भीतर, पाकिस्तान के उप प्रधान मंत्री और विदेश मंत्री इशाक डार ढाका की यात्रा करेंगे। डार एक मंजे हुए राजनेता हैं लिहाजा उम्मीद है कि वे 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए नरसंहार के लिए माफ़ी मांगने का तरीका आसानी से निकाल लेंगे – हालांकि यह करते वक्त सावधान रहेंगे कि कहीं इस माफ़ी से उनके सर्वशक्तिमान सैन्य प्रमुख जनरल असीम मुनीर कुपित न हो जाएं। जब भी यह माफ़ी मांगी जाती है– सवाल यदि का नहीं, बल्कि कब का है - तो पाकिस्तान के इन दो भूतपूर्व हिस्सों के बीच जो निकटता बन जाएगी,उतनी तो कई दशकों से नहीं हुई थी।
कल्पना कीजिए कि इससे 53 साल का इतिहास उलटने जा रहा है। लेकिन यहां कोई गलती न करें, मंच सज चुका है,कमरे की सजावट में बस सिर्फ फूल और कुछ छोटी-छोटी चीज़ें ही बची हैं। जब डार बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस से मिलेंगे - जिन्हें अमेरिकियों ने इस अवसर की प्रतीक्षा में सावधानी से सहेज कर तैयार रखा था कि शेख हसीना के बाद वाले बांग्लादेश में स्थापित करना है और इससे भी अधिक मूर्खता हसीना की रही, जिन्होंने यह मौका दिया - लगता है बांग्लादेशी, चीनियों के हल्के से बनावटी अनुग्रह पर, पाकिस्तानी माफी को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लेंगे। यह बस इतनी आसान सी बात है।
इस सब के बीच, मुहम्मद अली जिन्ना के प्रिय जुमले को नया जीवन मिल रहा है। बीते बृहस्पतिवार रावलपिंडी में एक समारोह में जब जनरल मुनीर कह रहे थे कि पाकिस्तान का निर्माण ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ के आधार पर हुआ था, तो अग्रिम पंक्ति में सूट-बूट पहने उनके प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ यह सुन रहे थे। उन्होंने कहा ः ‘हमारे पूर्वजों का विचार था कि हम जीवन के प्रत्येक संभावित पहलू में हिंदुओं से अलहदा हैं। हमारे धर्म अलग हैं, हमारे रीति-रिवाज जुदा हैं, हमारी परंपराएं पृथक हैं, हमारे विचारों में भिन्नता है, हमारी महत्वाकांक्षाएं अलग हैं। यही ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ की नींव बनी। मुद्दा यह कि हम दो मुल्क हैं, हम एक राष्ट्र नहीं हैं...’। स्पष्ट रूप से, काबिल जनरल खुद को एक आधुनिक कायदे-आज़म के रूप में देख रहे हैं, जिसकी पाकिस्तान को ज़रूरत है, ताकि ज्यादा दिनों तक खुद को एक जरूरत बनाकर टिकाए रख सकें। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान को बचाने की आवश्यकता नहीं है – हालात बहुत ख़राब हैं, न केवल अर्थव्यवस्था बल्कि राजनीति के भी, यह स्थिति उम्मीद के क्षितिज पर सैन्य प्रतिष्ठान को आसानी से सबसे चमकीला, चमकता सितारा बनाती है –यह अहसास निश्चित रूप से अन्य सब पर भारी है।
इस बीच, हमने देखा कि दो उंगलियां अपने गाल पर रखे प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ जनरल मुनीर की बातें खामोशी से सुन रहे थे। उस वक्त क्या वे अपने ज़हन में घुमड़ रही यादें यानि बड़े भाई नवाज़ शरीफ़ द्वारा भारत के साथ संबंध बेहतर बनाने के प्रयासों के नतीजे को अलग रख पाए होंगे, जिसके कारण मुशर्रफ़ द्वारा कारगिल पर आक्रमण करने के तुरंत बाद उन्हें अटक जेल में कठोर सजा भुगतनी पड़ी थीं - क्योंकि शहबाज़ जानते हैं कि मुनीर की कृपा के बगैर वे सत्ता में नहीं रह सकते? लेकिन बीते सप्ताहांत का बड़ा सवाल यह है कि क्या आप मानसिक विडंबना के बावजूद दिल खोलकर हंस सकते हैं। आप दुश्मन बनना चाहेंगे या दोस्त?
यही बांग्लादेश, जो अब पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ा रहा है, 53 साल पहले उसने पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों की मशीनगनों की फायरिंग के सामने ‘जॉय बांग्ला’! का उद्घोष करते हुए ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ को इतिहास के कूड़ेदान के हवाले किया था। आज, जब यूनुस अतीत में लौटने को बेकरार हुए पड़े हैं और जनरल मुनीर अलगाव का विचार याद दिला रहे हैं – विद्रूपता यह कि वर्तमान में भारत में भी कुछ ऐसा ही विचार बहुत लोकप्रिय है –भाषा की बजाय बांग्लादेशी धर्म और भू-राजनीति के महत्व को पुनर्स्थापित करते दिखाई दे रहे हैं। सिर्फ़ दो दिन पहले, यूनुस के विदेश मामलों के सलाहकार ने भारत को रूखे तरीके से अपनी घरेलू स्थिति को बेहतर ढंग से संभालने और पड़ोस के पश्चिम बंगाल में अपनी अल्पसंख्यक आबादी का ख्याल सही ढंग से करने की नसीहत दी है - मुर्शिदाबाद में हुई हिंसा के संदर्भ में। इस पर भारत को गुस्सा चढ़ना समझा जा सकता है। लेकिन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इतना भर कहा कि पहले बांग्लादेशियों को अपने अंदर झांकना चाहिए और अपने हिंदू अल्पसंख्यकों की रक्षा करनी चाहिए।
‘विभाजन’ के पैराकार हों या ‘अखंड भारत’ के, दोनों के साथ यही मूल समस्या है कि उप-महाद्वीप इतना वैविध्यपूर्ण है कि चाहे कहीं भी रेखा खींचनी हो - किसी के द्वारा भी, फिर चाहे यह रैडक्लिफ़ हो या मैकमोहन या डूरंड – लकीर सीधी न होकर बेतरतीब होगी। कोई एक या दूजा या दोनों ही पक्ष नाराज अथवा गुस्सा हुए बिना नहीं रह पाएंगे।
और इसलिए वर्तमान पर लौट आते हैं। कुछ हफ़्ते पहले बीजिंग में यूनुस की एक बैठक याद करें जब उन्होंने चीनी व्यापारियों से कहा था कि वे आएं और निवेश करें, और कहा कि वे बंगाल की खाड़ी उन्हें सौंपने के लिए तैयार हैं। इस दौरान, कुछ चीजें, चाहे वे कितनी भी बदल जाएं, एक जैसी ही रहती हैं, और इसका एक उदाहरण चीन-पाकिस्तान संबंध हैं- जिसे पाकिस्तानी नेता दशकों से ‘पहाड़ों से भी ऊंचा, समुद्र से भी गहरा और शहद से भी मीठा’ वर्णित करते आए हैं। चीन न केवल पाकिस्तान का सबसे बड़ा रक्षा साझेदार बल्कि संरक्षक भी है; उसने पाकिस्तान में कराकोरम राजमार्ग से शुरू करके अरब सागर के तट पर ग्वादर तक सड़कें और समुद्री बंदरगाह बनाया है,‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ नामक परियोजना के माध्यम से वह पूरे देश को जोड़ रहा है। मिसाइलों से लेकर बकसुआ तक, चीनी चीन में बना रहे हैं और पाकिस्तानी खरीद रहे हैं। इसलिए जहां भारत के एक तरफ चीन-परस्त पाकिस्तान अपना जोर बढ़ा रहा है वहीं दूसरी तरफ चीन-हितैषी बनकर बांग्लादेश भी। पहले ही, बांग्लादेश और पाकिस्तान द्वारा अपनी पिछली गलतियों पर एक-दूसरे को माफ करके आगे बढ़ने का नजारा साफ दिख रहा है। इनके बीच में भारत है, जिसने पाकिस्तान के साथ राजनयिक संबंध तोड़ रखे हैं तो बांग्लादेश के साथ रिश्ते बिगड़ रहे हैं।
इसलिए, अब जबकि इस उपमहाद्वीप में नए सिरे से मंथन चल रहा है, तो वह मुख्य प्रश्न जो यह खुद से पूछना चाहेगा : न केवल यह कि नरेन्द्र मोदी सरकार इन चुनौतियों से किस प्रकार निबटेगी बल्कि यह भी कि इन घटनाओं के अंदरूनी निहितार्थ का असर क्या रहेगा?
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।