पंजाब में भाजपा की सियासी उदासीनता का सवाल
देश के सभी राज्यों में भाजपा की जीत का सिलसिला जारी है। लेकिन इस दल में किसी को, मोदी-शाह तक को भी, पंजाब के एक हिस्से यानी लुधियाना पश्चिम में उपचुनाव की परवाह क्यों नहीं? इतनी उदासीनता कि प्रदेशाध्यक्ष सुनील जाखड़ कई माह पूर्व इस्तीफा दे चुके हैं और उनकी जगह किसी और को लाने की कोई योजना नहीं। वहीं कैप्टन अमरेंद्र सिंह सक्रिय राजनीति से दूर हैं।
ज्योति मल्होत्रा
लुधियाना पश्चिम विधानसभा क्षेत्र में 19 जून को होने वाले मतदान से सत्रह दिन पहले, पंजाब भाजपा दो सवाल पूछ रही है। पहला, यह लुधियाना पश्चिम है कहां? और दूसरा, लुधियाना पश्चिम से है कौन? पार्टी की राज्य इकाई में चला हुआ संकट पिछले कई महीनों से बाकी पूरे देश में चल रही उस आंधी से बिल्कुल अलहदा है, जिसने जिस किसी पार्टी की सरकार पर नज़र गड़ा दी, उसे ही ध्वस्त कर डाला है। हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली...यहां तक कि मणिपुर में भी भाजपा के लोग स्थानीय स्तर पर सरकार बदलने के प्रयास में अधिकांश विधायकों (44) के समर्थन का दावा कर रहे हैं।
चौबीसों घंटे बतौर विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का वजूद रेखांकित करवाने के लिए भाजपा के धुआंधार प्रचार को ऑपरेशन सिंदूर की जरूरत नहीं है - अपने 90 करोड़ सदस्यों के साथ भाजपा का दावा है कि वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से भी बड़ी है।
निश्चित रूप से, ऑपरेशन सिंदूर ने न केवल पार्टी के भीतर, बल्कि पूरे देश और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कद को बढ़ाया है। पहली बार उन्होंने ही पाकिस्तान के काफी अंदर जाकर आतंकी ढांचे को निशाना बनाने का फैसला लिया। फिर, जब पाकिस्तानियों ने बारामू्ला से भुज तक भारतीय सैन्य ठिकानों पर ड्रोन और मिसाइलों की बौछार करके जवाबी हमला किया, तो यह प्रधानमंत्री ही थे जिन्होंने पाकिस्तान के 11 ठिकानों और रनवे पर बमबारी करके हवाई युद्ध को आगे विस्तार देने का फैसला लिया।
ब्रह्मोस मिसाइल ने निश्चित रूप से अपना काम बखूबी किया है, लेकिन रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी सेना मुख्यालय पर सीधा हमला करने के फैसले का श्रेय निश्चित रूप से पीएम मोदी को दिया जाना चाहिए। उनके अनन्य साथी, शक्तिशाली गृह मंत्री और मोदी के सबसे करीबी विश्वासपात्र अमित शाह के बारे में हम देख चुके हैं कि प्रधानमंत्री और उनके बीच निकटता इस कदर है कि जरा भी भेद नहीं है। मानो वे एक-दूसरे की बात को पूरा करते हैं। दोनों का, पार्टी और देश के मामलों में पूरा नियंत्रण है।
अमित शाह के बारे में बार-बार कहा जाता है कि वे कुछ भी संयोग पर नहीं छोड़ते। ऐसा कहा जाता है कि चुनाव पंचायत का हो या लोकसभा का, हरेक को ऐसे लड़ते हैं, मानो वह महाभारत की बिसात पर हों और हर जवाबी चाल के तोड़ में तीन चालें पहले से सोचकर चलते हैं। भारत-पाकिस्तान संघर्ष के खत्म होने के कुछ ही दिनों के भीतर, जहां प्रधानमंत्री देश भर में दौरा करके लोगों को हाल ही में समाप्त हुए संघर्ष के बारे में अवगत करा रहे थे वहीं अमित शाह जमीन पर हुए नुकसान का आकलन करने के लिए जम्मू क्षेत्र में फिर से जा पहुंचे।
शायद, यह सब कुछ नया नहीं है। साल 2014 में पार्टी के सत्ता में आने के बाद से मोदी-शाह ने भाजपा और देश को अपने मुट्ठी में कर रखा है - विपक्ष को विभाजित करना, समाज और मीडिया दोनों को प्रभावित करना, देवताओं का आह्वान करना और इसे राष्ट्रवाद से जोड़ देना, हालांकि, जैसा कि हम जानते हैं, हिंदू देवताओं के बारे में भी कई प्यारी चीजें हैं! सभी पार्टी अध्यक्षों, पिछले और वर्तमान, को यह बात अच्छी तरह पता है।
हिमाचल प्रदेश से संबंध रखने वाले और सौम्य स्वभाव के वर्तमान भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा तक को भी मालूम नहीं होगा कि उनका विस्तारित अध्यक्ष पद कब तक और कितने समय तक रहने वाला है। कहा जाता है कि आरएसएस पूरी तरह से मोदी की गाड़ी पर सवार है, हिंदुत्व का इसका संदेश देशभर में फैलाया जा रहा है; अपने शताब्दी वर्ष में इससे ज्यादा और क्या चाहिए।
तो, पहले प्रश्न पर वापस आते हैं। भाजपा में कोई भी, यहां तक कि मोदी-शाह को भी, पंजाब के एक हिस्से यानि लुधियाना पश्चिम में उपचुनाव की परवाह क्यों नहीं है, इसे देखते हुए कि पंजाब एक सीमावर्ती सूबा है, और अभी-अभी पाकिस्तान के साथ लगभग युद्ध जैसी स्थिति से गुजरा है, भले ही लड़ाई मुख्य रूप से हवाई युद्ध रही; लेकिन संघर्ष विराम के एक दिन के भीतर ही आदमपुर में प्रधानमंत्री के अलावा और कोई नहीं आया क्योंकि यह दिखाना था कि एस-400 ने पाकिस्तान की हत्फ मिसाइलों को मार गिराया था।
इस पूर्ण उदासीनता पर गौर करें। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सुनील जाखड़ कई महीने पहले इस्तीफा दे चुके हैं और उनकी जगह किसी को लाने की कोई कोशिश नहीं की गई। प्रभावशाली अमरेंद्र सिंह, जिन्होंने कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए पार्टी छोड़ दी और भाजपा में शामिल हो गए, राजनीति के मसलों से कोसों दूर हैं और गर्मियों में कहीं और घूमने की सोच रहे होंगे। गुजरात के विजय रूपानी, जो कि भाजपा के पंजाब प्रदेश प्रभारी हैं, अब एक तरह से छुप रहे हैं, लेकिन हर कोई यह सब देख रहा है।
लुधियाना पश्चिम मुख्य रूप से हिंदू बहुल मतदान क्षेत्र है, यह तादाद 85 प्रतिशत तक है, जो वर्तमान में दो विधायकों वाली भाजपा के लिए बेहतर कर दिखाने के दृढ़ संकल्प के वास्ते एकदम सही जमीन है। यूं 2024 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन बहुत बुरा नहीं रहा, जब 18 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। आपातकाल के दौरान पंजाब में काफी समय बिताने वाले प्रधानमंत्री के बारे में कहा जाता है कि उन्हें पंजाब से खासा लगाव है। लेकिन निश्चित तौर पर ऊहापोह है।
लुधियाना के स्थानीय नेता बिक्रम सिंह सिद्धू के बारे में लुधियाना पश्चिम से संभावित उम्मीदवार होने की बात कही जा रही है - उन्होंने पिछली बार भी चुनाव लड़ा था - सिवाय इसके कि स्थानीय 'संगठन' या आरएसएस के मंत्री श्रीनिवासुलु, उन्हें पसंद नहीं करते और उन्हें तो 'संगठन' को पूरी तरह समर्पित एक अन्य स्थानीय व्यक्ति जीवन गुप्ता भा रहे हैं,लेकिन जैसा कि एक व्यक्ति ने चुटकी ली ः ‘10 वोट भी नहीं मिलेंगे’।
इस बीच, श्रीनिवासुलु पंजाब भाजपा में अलोकप्रिय हैं। एक तेलुगु भाषी सज्जन, जो शिद्दत से मीलों-मील दौरा करते हैं, इस ‘पिंड’ से उस ‘पिंड’ घूमते रहते हैं, लेकिन फायदा कुछ नहीं हो रहा। यह वास्तव में उनकी गलती नहीं है। पंजाबियों के लिए वे अजूबा हैं और पंजाबी उनके लिए। न्यूटन का तीसरा नियम यहीं लागू होता है : ‘हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’।
यकीनन, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, वाया पंजाब और आंध्र प्रदेश , भारत एक है, लेकिन भाजपा को पता होना चाहिए कि मैगी में कुछ स्थानीय स्वाद का तड़का हमेशा पसंद किया जाता है। तो, मूल प्रश्न पर वापस आते हैं। भाजपा लुधियाना पश्चिम से लड़ने में दिलचस्पी क्यों नहीं ले रही? शायद, केवल 13 लोकसभा सीटों वाला पंजाब इतना मायने नहीं रखता; और अकाली दल के बिना, भाजपा के लिए राज्य के सिख-बहुल गांवों में प्रवेश करना मुश्किल है।
हो सकता है उपरोक्त में से कोई एक भी सच न हो और असली कारण यह हो कि पंजाबी, जो सदियों से दिल्ली दरबार की मुखाल्फत करने के आदी रहे हैं, उनके लिए भगवा पार्टी के मोह से बचना आसान है। लेकिन फिर भाजपा इस स्थिति को बदलना क्यों नहीं चाहती?
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।