न भूतो न भविष्यति
पहले की तरह मुझे सवार होने के लिए ऊंचाई की भी अब जरूरत नहीं पड़ती। क्या साइकिल छोटी हो गई है? नहीं, मैंने माप कर देखा, उसकी ऊंचाई पहले जैसी ही है। तो फिर क्या, मेरी लंबाई बढ़ गई है? शायद ऐसा ही हुआ हो। पत्नी को बगल में खड़ा करके मापना होगा, पर उसे पहले उठाऊं तो सही। वह बस सोते-जागते रोती रहती है। एक ही रट लगाए हुए है कि मर चुका हूं, जबकि मैं सब कुछ पूर्ववत् किए जा रहा हूं। मेरे कपड़ों को सीने से लगाए पत्नी बेकार बिस्तर पर पड़ी रहती है। मुझे अब उन कपड़ों की जरूरत नहीं पड़ती। तीन-चार माह पहले से ही वे मेरे लिए छोटे पड़ गए हैं।
डी. अमिताभ
यों भी मैं ठीक तरह से साइकिल चला नहीं पाता हूं और उस पर रात के समय कभी चलायी भी हो, ऐसा याद नहीं। वह भी इस हाड़कंपाती ठंड में। शरीर का निचला हिस्सा मानो जमकर पत्थर का बन चुका है। पैडल मारना ही अत्यंत दुष्कर है। उस पर मेरा कद भी छोटा है। पैर के अंगूठे से ही किसी प्रकार चला पाता हूं। अंधेरे में बड़ी दिक्कत हो रही थी। डर रहा था कि कहीं गिर न पड़ूं। ठंड में दांत किटकिटा रहे हैं। हालांकि, एक गर्म शाल भी ओढ़े हुए हूं, परंतु उससे क्या ठंड से निजात मिल सकती है?
समयानुसार रात अधिक नहीं बीती थी लेकिन शीतकाल होने के कारण अंधेरा बहुत पहले ही व्याप्त हो चुका था। इसे और भी अधिक रहस्यमयी बना रही थी यह धुंध। राह पर एक किनारे से दूसरे किनारे तक मानो धुंध ने अपनी छतरी तान रखी हो। सड़क सूनसान। किनारे-किनारे बबूल की झाड़ियों का सघन वन। इसी से लगकर बहता हुआ संकीर्ण अलसाया नाला सन्नाटे को बुरी तरह अपने घेरे में ले रखा है। रास्ते के दोनों ओर नंगे खेत। धान काट लिए जाने के बाद उसकी बची हुई पुआल। शायद एक-दो सियार अभी-अभी वहां से गुजरे हैं, जिनकी सरसराहट कानों में पड़ी। मैं चौंककर उधर देखने वाला ही था कि साइकिल लड़खड़ा गई। गिरने ही वाला था कि उतरकर मैंने किसी तरह उसे संभाल लिया।
फिर बड़ी मुश्किल से चढ़ पाया क्योंकि मैं पैडल पर पांव रखकर चढ़ नहीं पाता हूं। कोई ऊंचा स्थान देखकर ही उसके सहारे सवार होता हूं। कुछ दूर पैदल चलने पर ऐसी एक जगह मिली। यों भी अस्पताल में मेरे लिए ईंट से एक स्थान विशेषकर ऊंचा किया गया है और घर पहुंचने पर एक उठान पर पैर टिकाकर उतरता हूं। सवार भी उसी के सहारे होता हूं। आज अचानक अंतिम समय में रतनपुर का वह व्यक्ति अस्पताल में आकर मिन्नतें करने लगा कि उसकी बछिया की चिकित्सा करनी ही होगी अन्यथा वह मर जाएगी। उसकी पीठ पर बड़े-बड़े घाव हो गए हैं। मैं साधारणतया पशु चिकित्सालय छोड़कर कहीं नहीं जाता परंतु वह व्यक्ति मेरे पीछे हाथ धोकर कुछ इस तरह पड़ गया मानो उसकी बेटी घोर संकट में हो। जिस तरह वह बछिया का नाम लेकर क्रंदन कर रहा था कि मेरा हृदय पसीज गया। मैंने कई दिनों से इस तरह किसी का अपने मवेशियों के प्रति प्रेम को नहीं देखा, इसलिए अधिक सोच-विचार न करता हुआ सरकारी पशु-चिकित्सालय बंद कर उस व्यक्ति के साथ साइकिल लेकर रतनपुर के लिए रवाना हो गया। वह बड़ी श्रद्धा से मुझे डाक्टर बाबू-डाक्टर बाबू कहे जा रहा था और मुझे भी इस पर गर्व महसूस हो रहा था वरना पशु चिकित्सालय के मुझ जैसे एक साधारण सहायक की लोग कहां कद्र करते हैं।
बछिया के जख्म गहरे थे परंतु घबराने वाली कोई बात नहीं थी। मैं उसकी मरहम-पट्टी करने में निमग्न हो गया। यों भी जब मैं अपने काम में जुट जाता हूं तो समय का ख्याल ही नहीं रहता। मेरी पत्नी भी इसी कारण मुझे भला-बुरा कहती रहती है। उसकी तो आदत ही है। साढ़े चार फुट के कद के चलते मैं सारा जीवन उसकी ही सुनता आ रहा हूं। कुछ भी करूं, लोग भी मेरा मजाक उड़ाते रहते हैं परंतु मैं अब किसी की परवाह नहीं करता। अगले जन्म में मेरा कद ऊंचा हो, हरदम ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं। पत्नी लंबी इसलिए स्वीकारी ताकि बच्चे लंबे हों। मुझसे कम-से-कम एक हाथ लंबे। पत्नी का जो कद है, मैं हामी नहीं भरता तो उसका विवाह ही नहीं हो पाता। फिर भी सारा दिन चिंचियाती रहती है। मन-ही-मन प्रतिज्ञा कर चुका हूं कि अगले जन्म में मैं अगर लंबा हुआ भी तो इससे विवाह नहीं करूंगा।
लौटते समय ध्यान से साइकिल चला रहा था। शुरू में ऐसा ही करता हूं। मैं ठीक से साइकिल चला नहीं पाता हूं, इसीलिए शुरू के दो-तीन सौ मीटर का विशेष ध्यान रखता हूं। यह समय मेरे लिए बहुत अहमियत रखता है। ध्यान से नहीं चलाऊं तो ऐसी आशंका बनी रहती है कि मैं गिर पड़ूंगा। यह समय गुजर जाने के बाद तो ऐसा लगता है कि रास्ते के किनारे के पेड़ पक्षियों की तरह उड़े जा रहे हैं और मैं संकीर्ण नाले पर रखे फट्टे पर से होकर बेझिझक मस्ती में उसे पार कर जाता हूं। फिर भी नीचे पानी की धार देखते ही मुझे गिरना हो तो अक्सर गिर ही पड़ता हूं। मेरे जैसा छोटे कद का, जो साइकिल ठीक से चला नहीं पाता है, उससे उम्मीद ही क्या की जा सकती है। आज भी मैं गिरने को हुआ। गिरकर बेहोश होना ही उचित है और इस समय यही शांतिदायक होता है परंतु आज मैं चाहकर भी न तो गिरा और न बेहोश हो सका। मैं स्वाभाविक रूप से साइकिल चलाए जा रहा था और मुझे आनंद भी बड़ा आ रहा था। पीछे से मानो कोई प्रकाश दिखाकर मेरी राह आसान किए जा रहा हो। मैं गुनगुनाता हुआ मस्ती में घर लौट रहा था।
सुबह नींद टूटी मुहल्ले के लोगों की आवाज से। मैंने उठकर पहले पत्नी का ढूंढ़ा। वह कहीं नहीं मिली। फिर अपनी साइकिल की ओर निगाह डाली। दोनों का कद मुझसे लंबा है। साइकिल भी नदारद थी। रतनपुर की तरफ कोई व्यक्ति रास्ते में मरा पड़ा है, ऐसी आवाज कानों में पड़ी। साइकिल से गिरकर इस ठंड में कोई नाले के पास गिरा पड़ा हो तो क्या वह बच सकता है? मैं घर से नहीं निकला। क्या करूंगा निकलकर भी? मैं छोटे कद का कमजोर इंसान हूं। कुछ नहीं कर सकता। किसी की सहायता करना भी चाहूं तो नहीं कर सकता। किसी को उस नाले से निकालना मेरे वश का नहीं जबकि यह काम कोई भी आसानी से कर सकता है। फिर भी कमरे में बैठा-बैठा सुन पाया कि जो व्यक्ति मरा है, वह मेरी तरह छोटे कद का है। शायद मैं अकेला ही उसे निकाल पाता। खैर, अब क्या किया जा सकता है? नाटा आदमी मरा है, यह पहले पता चलता तो चला भी जाता। अब तक कई लोग वहां इकट्ठा हो चुके होंगे। मुझे भीड़ से डर लगता है। धक्का लगते ही मैं गिर पड़ता हूं। इससे अच्छा है कि थोड़ी देर और सो लूं। आज सुबह नींद टूटने पर चाय की तलब भी नहीं हुई। आश्चर्य भी हुआ। जाने दो, इतना भी क्या सोचना?
उसके बाद शाम को ही नींद से जागा। थोड़ी देर बाद फिर से सो गया। दूसरे दिन प्रातः ठीक समय पर अस्पताल पहुंचा। पहले वहां के ताले की चाभी मेरे पास हुआ करती थी। आज न जाने किसने खोला था। रोज-रोज ताला खोलना और बंद करना मुझे भी अच्छा नहीं लगता।
तीन-चार माह तक सब कुछ स्वाभाविक रूप से चलता रहा। मैं पशु चिकित्सालय जाता, गाय-भैंसों की चिकित्सा करता और घर लौट आता। सिर्फ एक ही चीज खटकती। मैं अब साइकिल बहुत अच्छी तरह चलाने लगा हूं यानी कि पैडल तक पूरा पांव पहुंच रहा है। पहले की तरह मुझे सवार होने के लिए ऊंचाई की भी अब जरूरत नहीं पड़ती। क्या साइकिल छोटी हो गई है? नहीं, मैंने माप कर देखा, उसकी ऊंचाई पहले जैसी ही है। तो फिर क्या, मेरी लंबाई बढ़ गई है? शायद ऐसा ही हुआ हो। पत्नी को बगल में खड़ा करके मापना होगा, पर उसे पहले उठाऊं तो सही। वह बस सोते-जागते रोती रहती है। एक ही रट लगाए हुए है कि मर चुका हूं, जबकि मैं सब कुछ पूर्ववत् किए जा रहा हूं। मेरे कपड़ों को सीने से लगाए पत्नी बेकार बिस्तर पर पड़ी रहती है। मुझे अब उन कपड़ों की जरूरत नहीं पड़ती। तीन-चार माह पहले से ही वे मेरे लिए छोटे पड़ गए हैं।
मूल बांग्ला से अनुवादः रतन चंद ‘रत्नेश’