न्यायप्रियता और शौर्य के अवतार
भगवान परशुराम की शक्तियां अनश्वर एवं अक्षय थीं। यही कारण है कि उनकी प्राकट्य तिथि यानी वैशाख महीने शुक्ल तृतीया तिथि ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से विभूषित हुई। यह तिथि अत्यंत ही शुभ एवं अति विशिष्ट मानी जाती है।
चेतनादित्य आलोक
गवान परशुराम का वास्तविक नाम ‘राम’ ही था, किन्तु भगवान शिव द्वारा प्रदत्त अमोघ अस्त्र ‘परशु’ को सदैव धारण किए रहने के कारण ये परशु वाले राम अर्थात् ‘परशुराम’ कहलाए। ये राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि मुनि के पुत्र थे। जमदग्नि मुनि के पुत्र होने के कारण इनका एक नाम ‘जामदग्न्य’ भी था। ये भगवान शिव के परम भक्त थे। समस्त शस्त्रों एवं शास्त्रों के ज्ञाता भगवान श्रीहरि विष्णु के ‘आवेशावतार’ भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव सतयुग एवं त्रेता युगों के संधिकाल में 5142 वि.पू. वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को रात्रि के प्रथम प्रहर में हुआ था। भगवान परशुराम की शक्तियां अनश्वर एवं अक्षय थीं। यही कारण है कि उनकी प्राकट्य तिथि यानी वैशाख महीने शुक्ल तृतीया तिथि ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से विभूषित हुई। यह तिथि अत्यंत ही शुभ एवं अति विशिष्ट मानी जाती है।
महान पराक्रमी
शास्त्रोक्त है कि भगवान श्रीहरि विष्णु ने अहंकार में चूर, अत्याचारी एवं क्रूर क्षत्रिय राजाओं को दंडित करने के लिए भगवान परशुराम के रूप में अवतार लिया था। इन्होंने धर्म से द्वेष करने वाले अन्यायियों का दमन कर जगत् के रक्षार्थ भगवान शिव द्वारा प्रदŸा अमोघ अस्त्र ‘परशु’ धारण किया था। इन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु के पांचवें एवं सातवें अवतारों यानी भगवान वामन एवं श्रीराम के मध्य क्रम में सनातन मर्यादायों की रक्षा के लिए ही धरती पर अवतार धारण किया था। इन्होंने भगवान शिव से भगवान श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरु प्राप्त किया था। वहीं, भगवान श्रीराम से इन्होंने ‘सुदर्शन चक्र’ भी प्राप्त किया था।
मनोहारी छवि के स्वामी
भगवान परशुराम महान पराक्रमी एवं अत्यंत क्रोधी स्वभाव के होने के साथ-साथ बेहद पावन व्यक्तित्व एवं मनोहारी छवि के स्वामी भी थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने विराट पौरुष वाले भगवान परशुराम के पावन व्यक्तित्व एवं मनोहारी छवि का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने श्रीरामचरित मानस के सीता-स्वयंवर प्रसंग में लिखा है- ‘बृषभ कंध उर बाहु बिसाला, चारु जनेउ माल मृगछाला। कटि मुनिबसन तून दुइ बांधें, धनु सर कर कुठारु कल कांधें।’
न्यायप्रिय भगवान परशुराम
भगवान शिव के परमभक्त भगवान परशुराम अत्यंत न्यायप्रिय थे। इन्हें अधर्मियों और अत्याचारियों का काल माना जाता था। यहां तक कि असत्य बोलने के लिए दंड स्वरूप इन्होंने अपने शिष्य कर्ण को शाप दे दिया था। दरअसल, कर्ण ने भगवान परशुराम से असत्य बोलकर शिक्षा ग्रहण की थी, लेकिन जब यह बात परशुराम जी को पता चली तो इन्होंने कर्ण को यह शाप दे दिया कि जिस विद्या को उसने असत्य बोलकर प्राप्त की है, वही विद्या युद्ध के समय वह भूल जाएगा और कोई भी अस्त्र या शस्त्र चला नहीं पाएगा।
सुदर्शन चक्र
ज्ञातव्य है कि रामायण काल में सीता स्वयंवर के समय जब भगवान शिव का धनुष टूटा था तब भगवान परशुराम अत्यंत क्रोधित हुए थे। तत्पश्चात् इनका लक्ष्मण जी के साथ कठोर संवाद हुआ, जिसके बाद भगवान श्रीराम और भगवान परशुराम ने शस्त्रों का आदान-प्रदान किया था। इस क्रम में भगवान श्रीराम ने परशुराम जी को अपना ‘सुदर्शन चक्र’ प्रदान किया, जिसे परशुराम जी ने द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण को वापस किया था। वहीं, भगवान परशुराम ने भगवान श्रीराम को अपना धनुष सौंपा था।
चिरंजीवी परशुराम
भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। ये सतयुग से लेकर आज तक प्रत्येक युग में पृथ्वी पर रहे हैं। बता दें कि सतयुग में इनके द्वारा परशु प्रहार कर गणेश जी के एक दांत तोड़ने वाली घटना घटी थी। वहीं, त्रेतायुग में जनक, दशरथ आदि प्रतापी राजाओं का इन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में धनुष-भंग के उपरांत तीखे संवाद के बाद अंततः भगवान श्रीराम को पहचान कर उनका अभिनंदन किया था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तपस्थली रही है। ऐसी मान्यता है कि ये आज भी उसी पर्वत पर तपस्यारत हैं। ज्ञातव्य है कि त्रेता युग में सीता-स्वयंवर के समय भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने हेतु इन्होंने अपना धनुष भगवान श्रीरामचन्द्र को सौंपा था। उसके बाद, ज्योंहि श्रीराम ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई, परशुराम जी समझ गए कि श्रीरामचन्द्र भगवान श्रीहरि विष्णु के ही अवतार हैं। तत्पश्चात् उनकी वन्दना करके परशुराम जी पुनः तपस्या करने महेंद्रगिरि पर्वत पर चले गए।
हैहयवंशी राजा सहस्रबाहु अर्जुन भार्गव आश्रमों के ऋषियों को हमेशा सताया करता था। एक बार उसके पुत्रों ने जमदग्नि मुनि का वध करके कामधेनु गाय को चुरा लिया, जिससे विचलित होकर परशुराम जी की माता रेणुका जी पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गईं। इस घटना के बाद क्रोधित होकर भगवान परशुराम ने संकल्प लिया- ‘मैं हैहयवंश के सभी क्षत्रियों का नाश कर दूंगा।’ उसके बाद इन्होंने सभी भार्गवों को संगठित किया और सरस्वती नदी के तट पर भूतेश्वर शिव तथा महर्षि अगस्त्य मुनि की तपस्या कर अजेय 41 आयुध व दिव्य रथ प्राप्त किए और भगवान शिव द्वारा प्राप्त परशु को अभिमंत्रित किया। फिर इन्होंने देशभर में घूमकर अपने 21 अभियानों में हैहयवंशी 64 राजवंशों का नाश कर ऋषि-मुनियों को भयमुक्त किया था। इनमें 14 राजवंश तो पूर्णतः अवैदिक ‘नास्तिक’ थे।
अनुकरणीय एवं वंदनीय
इस प्रकार, सर्वशक्तिमान विश्वात्मा भगवान श्रीहरि ने भृगुवंश में अवतार लेकर पृथ्वी के भारभूत राजाओं को दंडित किया तथा सत्य, दया एवं शांतियुक्त कल्याणमय धर्म की स्थापना की। भगवान परशुराम ने सामाजिक न्याय एवं समानता के स्थापनार्थ तथा समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग के अधिकारों एवं सनातन मर्यादा के रक्षार्थ शस्त्र उठाया था।