नशे के खिलाफ़ मुहिम तेज़ करने की जरूरत
नशे और अवैध शराब के खिलाफ़ मुहिम प्रशंसनीय है। इस अभियान मेंें पुलिस सबसे आगे है। लेकिन नशे व इसकी तस्करी की समस्या को संबोधित करने को राज्य को सामाजिक-आर्थिक और सेहत संबंधी पहलुओं पर भी अवश्य ध्यान देना होगा क्योंकि यह मात्र कानून-व्यवस्था का मामला नहीं। इसके अध्ययन और समाधान सुझाने के लिए कार्यात्मक समूह गठित करने की जरूरत है।
गुरबचन जगत
लगता है नशे और अवैध रूप से बनाई गई शराब के खिलाफ़ पंजाब सरकार ने जंग करने का मन बना लिया है। अवैध शराब का इतिहास शायद उतना ही पुराना है जितना कि मानव जाति का क्रमिक विकास। कर्मस्थली के रूप में मेरी पहली पोस्टिंग बतौर एसपी कपूरथला हुई थी। जो उस समय सिर्फ़ छह पुलिस थानों वाला एक छोटा सा जिला था। उस वक्त की कानून-व्यवस्था की समस्याओं में से एक थी नदी के किनारे अवैध शराब उत्पादन। घनी झाड़ियों वाले इलाके में छिपी शराब भट्टियां धड़ल्ले से चलती थीं। खुफिया सूचनाओं के आधार पर, हमने पूरे इलाके में व्यापक संयुक्त छापे मारे, बड़ी संख्या में शराब बनाने वालों को गिरफ़्तार किया और बड़ी मात्रा में ‘लाहन’ और शराब बनाने वाले कुंड जब्त किए।
आज पचास साल बाद भी, जारी इस लड़ाई के बारे में पढ़ता रहता हूं, हालांकि अब ज़्यादा मैनपॉवर और तकनीक उपलब्ध है। अफीम और भुक्की, जुआ, वेश्यावृत्ति, अादि के खिलाफ भी ऐसे ही अभियान चलाए गए थे। हालांकि, उस समय समस्या का पैमाना आज की तुलना में नाममात्र था। नशीले पदार्थ, विशेषतया रासायनिक किस्म के, इनकी आमद भी नशे की दुनिया में हो गई है और राज्य के साथ-साथ देश भर के सीमावर्ती क्षेत्रों (विशेष रूप से पश्चिमी तट पर, जहां पर भारी मात्रा में जब्तियां की गई हैं) में बड़े-बड़े गिरोह सक्रिय हैं, लेकिन इन नशीले पदार्थों के वास्तविक स्रोत और ठिकाने के बारे में कोई विवरण उपलब्ध नहीं। फिर, मैं एक के बाद एक आई सरकारों के सामाजिक बुराइयों से निबटने के रवैये से भी हैरान हूं। कोई भी देश मानवीय बुराइयों को खत्म नहीं कर पाया है, क्योंकि वे सभ्यता जितनी पुरानी हैं; हालांकि, उन्होंने बेहतर संतुलन बनाने के लिए प्रयास किए।
अमेरिका ने एक सदी पहले शराबबंदी का प्रयोग किया था, लेकिन हश्र अपराध सरगनाओं और अनियंत्रित माफिया के रूप में मिला। अंतत: अधिकांश देशों ने अपने-अपने समाज के हिसाब से खोजे विशिष्ट समाधानों के माध्यम से समाज के अपराधीकरण और अनियंत्रित नशा कारोबार को कम-से-कम रखने की कोशिश की है। कुछ ने कम एल्कोहल वाले पेय पदार्थों को बढ़ावा दिया, तो कईयों ने भांग और इसी तरह के हल्के नशीले पदार्थों को वैध बना दिया। हालांकि वेे हार्ड ड्रग्स और उनकी बच्चों को आपूर्ति के मामले में काफी सख्त हैं। शराब और ड्रग्स के शरीर एवं दिमाग पर पड़ने वाले असर को समझाने के लिए लगातार जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं।
फिर से अपने गृह राज्य पंजाब की बात करूं तो, 1980 और 1990 के कठिनाई भरे दशकों में पैदा हुई मुसीबतों ने सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को बुरी तरह प्रभावित किया था। आतंकवाद और पाकिस्तान द्वारा छेड़े गए छद्म युद्ध ने राज्य में कहर बरपाया। आईएसआई ने हथियार, गोला-बारूद और प्रशिक्षण की आपूर्ति की। अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिदीनों द्वारा जिस रणनीति में निपुणता पाई थी, उसका इस्तेमाल यहां भी किया गया, साथ ही गोला-बारूद का भी। एके-47 एक खतरनाक हथियार बन गया (अधिकांश पर अफगान मार्का हुआ करता था) और इससे आतंकवादियों की मारक शक्ति बढ़ी। उद्योग-धंधे चौपट हो गए या पलायन कर गए; हत्याओं से परिवार टूट गए; जबरन वसूली एक स्थाई खौफ बन गई। हजारों लोग मारे गए - नागरिकों के अलावा पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान भी। इतने बड़े पैमाने पर पड़े शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक आघातों को दूर करने के लिए कोई बड़ा प्रयास नहीं किया गया।
जीवन के तमाम मापदंडों पर एक पूरा सूबा लगभग तबाह हो गया और इस उथल-पुथल के कारणों और प्रभावों की जांच करने और उपाय सुझाने के लिए एक भी आयोग का गठन नहीं किया गया। लोगों को इससे खुद ही निबटने के लिए छोड़ दिया गया - काफी लोग पलायन कर गए, कुछ ने अपराध करना शुरू कर दिया और गिरोह बना लिए, कईयों ने तस्करी और नशा वितरण शुरू कर दिया। राजनेता एक अंतराल के बाद सत्ता में लौटे, पर इससे समाज का और ज्यादा अपराधीकरण ही हुआ... क्यों? होना तो यह चाहिए था कि इस उद्देश्य के लिए प्रख्यात न्यायविदों, समाजशास्त्रियों और प्रशासकों की अध्यक्षता में एक जांच पैनल गठित किया जाता। राज्य, इसके संस्थानों, इसके लोगों को हुए नुकसानों की जांच करने और एक उचित पुनर्वास योजना बनाने के साथ-साथ वित्तीय और रोजगार पैकेज के वास्ते एक अलग आयोग का गठन किया जाना चाहिए था।
पंजाब में दो दशकों तक जो कुछ हुआ, वह पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित एक अघोषित युद्ध था। क्या उसे ऐसा मानकर ही बर्ताव किया गया? आतंकवाद को कुचलने की मुहिम के केवल पहले हिस्से के लिए ही पूरी सहायता प्रदान की गई। इसके बाद के परिणामों से निपटने वाले द्वितीय भाग में, पंजाब को कुदरत के रहम पर छोड़ दिया गया। मैं बताना चाहूंगा कि यह पंजाब पुलिस ही थी, जो पंजाब के नागरिक समाज के साथ मिलकर इस लड़ाई की अगुआई कर रही थी और जिसने इसका खमियाजा भुगता।
किसी क्षेत्र के आर्थिक रूप से समृद्ध होने के लिए सबसे जरूरी है व्यापार करने की क्षमता। पंजाब चारों ओर से जमीन से घिरा भूभाग है। ऐतिहासिक रूप से, यह क्षेत्र सिल्क रोड के जरिए मध्य एशिया, अफगानिस्तान और उससे आगे तक व्यापार करता था, जिसमें खैबर दर्रा एक प्रमुख संपर्क मार्ग था। अंग्रेजों के आने और उसके बाद के विभाजन के असर से हमारे लिए इस मार्ग का फायदा बंद हो गया। आज भी, यह विकल्प उपलब्ध नहीं है। वास्तव में, इसे खोलने के कुछ कमजोर प्रयासों के बावजूद कई दशकों से यह बंद है। माल ढुलाई समानीकरण योजना को वापस लिए जाने के साथ, दक्षिणी और पश्चिमी भारत के बंदरगाह अब अधिकांश उत्पादों के लिए व्यवहार्य नहीं रहे। नतीजतन, मंडी गोबिंदगढ़, खन्ना, लुधियाना आदि के कारखाने अपने पुराने वैभव की एक धुंधली झलकभर हैं। हमारे पास कोई उल्लेखनीय हवाई संपर्क नहीं है, भले ही यह राज्य सबसे ज्यादा प्रवासी भारतीय वाले प्रांतों में एक है। तो, हम कहां और कैसे व्यापार करें... इसको यकीनी बनाने में राज्य और केंद्र सरकार की भूमिका कहां है?
अवैध शराब और नशे के खिलाफ युद्ध के मुद्दे पर वापस आते हुए, इस समस्या को मुख्य रूप से कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर लड़ा जा रहा है और इससे निबटने के लिए नियुक्त एजेंसी पुलिस है। जहां तक मुझे पता है, समस्या की जड़ में जाने के लिए राज्य स्तर पर कोई सूचीबद्ध अध्ययन नहीं करवाया गया – सामाजिक एवं आर्थिक ताकतों और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से जुड़े कारकों पर। साथ ही राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक गिरोहों की भूमिका, विभिन्न राज्य एजेंसियों की भूमिका और हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की समझौताकारी प्रकृति पर भी। इसके लिए हमें शीर्ष स्तर के समाजशास्त्रियों, मनोचिकित्सकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मादक पदार्थों से निबटने वाली एजेंसियों को शामिल करना चाहिए। हमें इस व्यापार के स्रोत, देशभर में इसके फैले जाल और राजनेताओं, पुलिस और ड्रग आपूर्ति गिरोहों के बीच सांठगांठ का पता लगाने के लिए अपनी आंतरिक और बाहरी, दोनों, खुफिया एजेंसियों की विशिष्ट इकाइयों को भी साथ लेना चाहिये।
यह एक व्यापक पहलू वाला सुझाव है, लेकिन यदि सरकार की मंशा हो, तो समस्या का अध्ययन करने तथा समाधान सुझाने के वास्ते एक कार्यात्मक छोटे समूह या समूहों का गठन किया जा सकता है।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।