नये दौर के अध्यात्म की तलाश में युवामन
20-25 साल के युवा भी बड़ी संख्या में इस बार प्रयागराज में जारी महाकुंभ में पहुंचे, गूगल व सोशल मीडिया पर भी महाकुंभ संबंधी कंटेंट की खोज की। संगम के जल में पवित्र डुबकी लगाने के बाद अपनी धार्मिक जिज्ञासाएं जाहिर करते नजर आये। तो क्या इसे युवा आध्यात्मिकता का एक नया ट्रेंड कहा जाये? यह भी कि नयी पीढ़ी के लिए धार्मिकता और आध्यात्मिकता जैसी धारणाओं के मायने क्या हैं? कहीं यह मात्र रील-प्रेरित सतही आध्यात्मिकता तो नहीं?
डॉ. संजय वर्मा
अध्येताओं ने किशोर और युवावस्था के दौर की व्याख्या इस रूप में की है कि यह उम्र तीव्र वैचारिक भूख, जीवन के अर्थ व उद्देश्य की खोज और रिश्तों से जुड़ाव की इच्छा की होती है। इस उम्र में वह मानसिक द्वंद्व भी नज़र आता है, जिसमें वे यह फैसला नहीं कर पाते हैं कि कोई विचार उनके जीवन के विकास और दिशा को किस प्रकार प्रभावित कर सकता है। अटकाव और भटकाव के इस दौर में अक्सर ये किशोर और युवा वहां पहुंचने की कोशिश करते हैं जहां उन्हें अपने अंदर उठ रहे सवालों के जवाब मिल सकें। यह अकारण नहीं है कि इस बार प्रयागराज महाकुंभ 2025 में जुटे करोड़ों श्रद्धालुओं में एक बड़ी संख्या उन युवाओं की रही- जिन्हें जेनरेशन ज़ेड कहा जाता है। जेनरेशन ज़ेड में वे लोग आते हैं, जिनका जन्म 1990 और 2010 के बीच हुआ है। इनमें से ज्यादातर छात्र हैं या कुछ ऐसे हैं जिन्होंने कुछ साल पहले कोई नौकरी या कारोबार शुरू किया है। इस पीढ़ी के युवाओं की एक पहचान और है। इसी पीढ़ी ने अपने जवान होने की उम्र में फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप को पैदा होते और इन सोशल मीडिया मंचों को जवान होते हुए देखा है। इस पीढ़ी का महाकुंभ से जुड़ाव इस रूप में भी देखा जा सकता है कि इन युवाओं ने प्रयाग में डुबकी लगाने से पहले गूगल पर महाकुंभ के बारे में सर्च किया। इंस्टाग्राम पर आईआईटियन बाबा और चेहरे-मोहरे की सुंदरता के बल पर वायरल हुई युवती मोनालिसा को देखकर जिज्ञासावश जमघट लगाया। पर क्या उनकी इस जिज्ञासा और संशय की स्थिति को कहीं से भी उस युवा आध्यात्मिकता से जोड़ा जा सकता है- जिसकी इन दिनों महाकुंभ के प्रयोजन से चर्चा छिड़ी हुई है।
तीर्थाटन में बढ़ी रुचि के मायने
यात्राओं और होटल आदि की बुकिंग करने वाली वेबसाइट एलएक्सआईगो के आंकड़ों को सही मानें तो इस बार महाकुंभ में 20-25 साल के युवाओं की तादाद 45 या इससे ज्यादा की उम्र वालों की तुलना में काफी ज्यादा रही। बीते एक साल में धार्मिक स्थलों की यात्रा संबंधी बुकिंग में 150 फीसदी इजाफा हुआ है। शायद इसी बदलाव का असर है कि प्रयागराज के साथ-साथ काशी और अयोध्या पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ में उन युवाओं की भागीदारी ज्यादा दिखी जो शायद पहली बार इस तरह की धार्मिक-आध्यात्मिक यात्रा पर निकले हैं। लेकिन क्या उनकी इस यात्रा को आध्यात्मिकता की खोज कहें। या यह सिर्फ छापामार पर्यटन है जिसमें युवा हर दिन कुछ नया खोजने यहां से वहां जाने का उपक्रम करते दिखते हैं। एक बात तो बेखटके कही जा सकती है कि जिस फोमो (FOMO- फीयर ऑफ मिसिंग आउट यानी कुछ छूट जाने या खो जाने का भय युवाओं को सताने लगा है, धर्मस्थलों की ओर उनकी दौड़ उस डर को कुछ अंशों में अभिव्यक्त करती है। ये युवा सोशल मीडिया पर अपना स्टेटस अपडेट करना चाहते हैं। दिखाना चाहते हैं कि महाकुंभ के दुर्लभ संयोग में संगम स्नान का पुण्य उन्होंने भी अर्जित किया है। कुछ अलग फील करने की चाह (जो कई बार युवाओं को नशे की राह पर ले जाती है) भी एक वजह है जो उन्हें इस आयोजन तक खींच ले गई। लेकिन उनकी उत्सुकता इतनी सतही भी नहीं कही जानी चाहिए। महाकुंभ पहुंचने वाले युवाओं में एक तबका ऐसा भी है जो भक्ति के रंग में रंगा, उत्साह से लबरेज़ और भारतीय संस्कृति को करीब से जानने-समझने की ललक लेकर वहां पहुंचा। उसे यह महसूस हुआ कि विविधि संस्कृतियों वाले इस महादेश को और उसकी आध्यात्मिकता की वास्तविकता को समझने के लिए इससे बेहतर कोई और जगह नहीं हो सकती।
अध्यात्म के प्रति जिज्ञासा का भाव
साधुओं की संगत में बैठकर स्मार्टफोन लेकर यह पूछते हुए वीडियो बनाते तमाम युवाओं को भी इस बार नोटिस किया गया, जो यह पूछ रहे थे कि आखिर सनातन धर्म क्या है, यह दूसरे धर्मों से कैसे और कितना अलग है? साधुओं का हठयोग क्या है? ये साधु कैसे न्यूनतम संसाधनों पर जीवित रह पाते हैं और कठिनतम स्थितियों का सामना कर पाते हैं? हालांकि युवाओं को इन आध्यात्मिक सवालों का समाधान जल्दी में चाहिए, पर उनकी इस जिज्ञासा को हल्के में नहीं लेना चाहिए। हो सकता है कि उनका अध्यात्म के प्रति जो आरंभिक रुझान है, वह उन्हें सच्ची आध्यात्मिकता की ओर ले जाए। आईआईटियन बाबा के रूप में मशहूर शख्स को एक मिसाल माना जा सकता है, जो युवा आध्यात्मिकता के नए ट्रेंड की पड़ताल करने और उसे सहेजने की मांग करता है। इन जिज्ञासाओं, व्याख्याओं और सोशल मीडिया पर प्रसारित-प्रचारित इंस्टा-रील्स के प्रसंग से यह सवाल उठा है कि क्या ये सब चीजें हमारे युवाओं के आध्यात्मिक रुझान को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रही हैं। और क्या यही वह युवा आध्यात्मिकता है, जिसे भारत ही नहीं, पूरी दुनिया को जरूरत है। निश्चय ही इसमें पहला प्रसंग आईआईटी वाले बाबा का उठता है। दावा किया गया कि आईआईटी- बॉम्बे से डिग्री ले चुका और एक कंपनी में सालाना लाखों का वेतन पाने वाला एक युवा संन्यासी बन गया और बाबा के रूप में महाकुंभ में शामिल होकर उसने आध्यात्मिकता के नए पहलुओं को सामने रखा। वैसे तो कथित सांसारिकता से विमुख हुए आईआईटियन बाबा की अस्पष्ट सी बातों-व्याख्याओं में से अध्यात्म की गहरी समझ हासिल करने का दावा करना जल्दबाजी होगा, लेकिन एक पढ़े-लिखे शख्स के मुंह से अध्यात्म की बातें सुनना युवाओं को खूब भाया। इससे युवाओं की यह जिज्ञासा सामने आ गई है कि आखिर अध्यात्म में ऐसा क्या है कि वह पढ़े-लिखे लोगों को अपनी ओर खींच लेता है।
एकाग्रता की कमी से जुड़े पहलू
असल में जेनरेशन ज़ेड कहलाने वाले युवाओं की दुनिया में इंटरनेट और खास तौर पर सोशल मीडिया मंचों ने जो बड़े बदलाव किए हैं, उनमें एक तो उनमें एकाग्रता की कमी (अटेंशन डेफिसिट) की शक्ल में किया है। मोबाइल इंटरनेट की तकनीकी ने युवाओं के दिमागों को उलझाने के लिए इतनी तेज गति से दृश्यों और सूचनाओं की बौछार शुरू की है जिसमें उन्हें हर क्षण खुद को व्यस्त रखने के लिए कुछ नया और रोमांचक चाहिए होता है। सोशल मीडिया पर सक्रिय ये युवा किसी एक चीज से बड़ी जल्दी ऊब जाते हैं। किसी एक मुद्दे पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। उन्हें किसी बहुत बड़ी तलब की तरह थोड़ी-थोड़ी देर में कुछ अप्रत्याशित और आवेगपूर्ण कंटेंट की जरूरत होती है। इससे युवा दुनिया में एक नए किस्म के मनो-सामाजिक विकास का चरण कायम हुआ है, जिसमें वे अपनी एक मुकम्मल पहचाने बनाने के संकट से जूझ रहे हैं। इसमें कभी उन्हें साथियों और माता-पिता की अपेक्षाओं का दबाव झेलना पड़ता है तो कभी डिजिटल स्क्रीनों पर दिख रहे व तेजी से बदल रहे दृश्यों और सूचनाओं से तालमेल बिठाने की जरूरत महसूस होती है। ऐसी स्थितियों में वे कई बार खुद के बारे में वास्तविक और ईमानदार होने के बजाय इन चीजों का “अभिनय” मात्र करते हैं। ऐसा दूसरे लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर प्रदर्शित उदाहरणों के दबाव में होता है। अगर युवाओं का यह व्यवहार जारी रहता है, तो यह उन्हें छद्म किस्म की आत्म-अस्वीकृति और आत्म-धोखे की ओर ले जा सकता है। इन दबावों में वे यह सीख नहीं पाते हैं कि खुद के प्रति सच्चा होना क्या होता है और अपनी कमज़ोरियों को व्यक्त करते व स्वीकारते हुए कैसे आगे बढ़ा जाता है। ऐसे में वे आईआईटी बाबा के नाम से मशहूर हुए शख्स की तरह जटिल व्यक्तित्व बन सकते हैं। ऐसे युवाओं में सतत चिंता और अवसाद के लक्षण विकसित हो जाते हैं। यह दशा उनके स्वाभाविक विकास, कैरियर, रिश्तों और उनकी सामाजिक हैसियत को प्रभावित करती है। इनसे बचाव के लिए युवाओं को एक ऐसे सुरक्षात्मक माहौल की जरूरत होती है, जिसमें उनका परिवार, दोस्त, योग शिक्षक, एक संरक्षक या आध्यात्मिक गुरु उनका सही मार्गदर्शन कर सकता है।
रील-प्रेरित आध्यात्मिकता
हालांकि इस मामले में विडंबना यह है कि इसके लिए भी बहुत से युवा सोशल मीडिया की शरण में चले जाते हैं। वे उस रील-प्रेरित आध्यात्मिकता के जाल में फंस जाते हैं, जो छद्म है और खोखली है। ऐसे में उन्हें यह बताने की जरूरत है कि वह कौन सी आध्यात्मिकता है जिसकी उन्हें सच में जरूरत है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण शोध हुए हैं, जो बताते हैं कि युवा किस किस्म की आध्यात्मिकता में यकीन करते हैं। शोधकर्ता गैलप और बेजिला ने जो रिसर्च की है, वह बताती है कि नई पीढ़ी के युवाओं की आध्यात्मिकता ईश्वर में आस्था से जुड़ी है। इस शोध के मुताबिक अमेरिका में 95 फीसदी किशोर और युवा ईश्वर में विश्वास करते हैं। इसमें यह भी माना गया है कि आध्यात्मिकता और धार्मिक आयोजनों में भागीदारी को अमेरिकी समाज किशोरों के विकास का एक महत्वपूर्ण आयाम मानता है। सबसे दिलचस्प आंकड़े “द प्रोजेक्ट टीन कनाडा” में मिले। इसमें शोधकर्ताओं ने पाया कि उत्तरदाताओं ने खुद को एक धर्म के सदस्य के रूप में माना। अध्ययन में शामिल 60 फीसदी युवाओं ने आध्यात्मिकता को महत्वपूर्ण माना, जबकि 48 प्रतिशत युवाओं ने ऐसे संकेत दिए कि उनकी आध्यात्मिक ज़रूरतें हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के 236 कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में 112,232 नए छात्रों पर आधारित अध्ययन में बताया गया कि 77 फीसदी छात्र इस बात से सहमत थे कि वे “आध्यात्मिक प्राणी” हैं।
ये अध्ययन निश्चय ही आध्यात्मिकता को लेकर युवाओं के रुझान को स्पष्ट करते हैं, लेकिन समस्या यह है कि इनमें से ज्यादातर से यह पता नहीं चलता है कि आखिर वे किस आध्यात्मिकता की बात कर रहे हैं या जिसे वे आध्यात्मिकता कह रहे हैं, क्या वास्तव में वह अवधारणा इसकी परिभाषाओं से मेल खाती है। शोध अध्ययनों के अनुसार किशोरों और युवाओं के लिए आध्यात्मिकता के अर्थ सोशल मीडिया या रील-प्रेरित हैं और अत्यधिक सतही हैं। वे जीवन के लक्ष्यों, समाज और परिवार से संबंधों के बारे में अमूर्त ढंग से सोचते हैं और ऐसे समाधानों के प्रति आकर्षित हो जाते हैं जो अव्यावहारिक हैं। ऐसे युवाओं को कुछ देर सांस रोककर ध्यान में बैठ जाना ही आध्यात्मिकता लगता है। बहुत हुआ तो पालतू पशुओं को खाना खिला देना ही उनके लिए आध्यात्मिकता है। इस आध्यात्मिकता में न तो उन्हें अपने चित्त-मन को शांत करना सिखाया जाता है और न ही यह बताया जाता है कि जीवन का असली मतलब क्या है।
जिंदगी के अर्थ से जुड़े गंभीर प्रश्न
जिंदगी के बारे में वे (युवा) अक्सर कुछ सवाल तो उठाते हैं, लेकिन उनके प्रश्न “जीवन के अर्थ” या “जीवन में उद्देश्य” के उस बड़े दायरे को लेकर संबोधित नहीं होते हैं जो तीन परस्पर संबंधित मुद्दों से जुड़े होते हैं। ये तीन मुद्दे हैं- एक, जीवन का अर्थ क्या है। अर्थात हमारा या मनुष्य का जीवन क्या दर्शाता है, इसके अस्तित्व का क्या महत्व है। दो, जीवन की सार्थकता किसमें है। यानी क्या जीवन जीने योग्य या उद्देश्यपूर्ण है। और तीन, जीवन में हमारा उद्देश्य क्या है। यह मुद्दा जीवन के लक्ष्य, पूरा किए जाने वाले कार्य से संबंधित है। इतिहास देखें तो युवाओं और किशोरों के व्यवहार में अध्यात्म प्रेरित जीवन के अर्थ का महत्व और स्पष्ट होता है। जैसे, 1930 के दशक में युवाओं ने नाजी जर्मनी में हिटलर का समर्थन किया था क्योंकि तब उनका मानना था कि जातीय रूप से श्रेष्ठ जर्मनी का निर्माण उनका जीवन मिशन था। इसी तरह 1960 के दशक में कम्युनिस्ट चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान, रेड गार्ड्स ने सर्वहारा वर्ग के “दुश्मनों” के खिलाफ जमकर लड़ाई लड़ी। क्योंकि उन्होंने पाया था कि कम्युनिस्ट यूटोपिया का निर्माण उनका पवित्र जीवन लक्ष्य था। इसी तरह, अफ्रीका के कई युवा अपने देशों के लिए बदलावों की चाहत में सैन्य गतिविधियों में भाग लेते हैं। ये सारी गतिविधियां समय, काल और परिवेश के अनुसार आध्यात्मिक आदर्श कही जा सकती हैं। साफ है कि ऐसे उद्देश्यों के बिना अध्यात्म को जानने, समझने या समझाने की कोई प्रेरणा ऊपरी चमक-दमक से प्रेरित है। इस आध्यात्मिकता से कोई भला नहीं हो सकता है।
युवाओं के लिए आध्यात्मिकता क्यों जरूरी
बहुत से लोगों का मत है कि आध्यात्मिकता को जानने, समझने और हासिल करने की एक उम्र होती है जो बुढ़ापे की ओर अग्रसर व्यक्तियों के लिए जरूरी है। जबकि सच यह है कि आध्यात्मिकता युवाओं के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि किसी अन्य आयु वर्ग के लिए। जबकि किशोरावस्था या युवावस्था में आध्यात्मिकता की सहज खोज का फायदा यह है कि कम उम्र में ही उन मुद्दों और तत्वों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है जो किसी के जीवन को और जिंदगी जीने के नजरिये को और बेहतर बना सकते हैं। युवाओं के लिए आध्यात्मिकता से जुड़ाव का पहला विशेष कारण यह है कि इससे युवा अपनी मानसिक क्षमताओं का सही दिशा में इस्तेमाल करना सीख सकते हैं। कई बाहरी और आंतरिक दबाव झेल रहे और भय, चिंता, पछतावे, बेचैनी और अति-उत्साह से भरी जिंदगी में आध्यात्मिक चेतना युवाओं को सही रास्ता दिखा सकती है। हालांकि युवाओं को आध्यात्मिकता की आरंभिक समझ देना ही काफी नहीं है। आध्यात्मिकता के विकास में उनका सक्रियता से चिंतन करना और आध्यात्मिकता के वास्तविक स्वरूप को अनुभव करना भी महत्वपूर्ण है। जैसे, उनमें यह समझ विकसित होनी चाहिए कि “इस पृथ्वी पर एक मनुष्य के रूप में हम क्यों मौजूद हैं?” “हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है और हम कहां जा रहे हैं?” “यदि हम सचेत हैं तो हमें क्या करना चाहिए?” ये महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रश्न हैं जो सचेत चिंतन की मांग करते हैं। अधिक अनुभव पाने और चिंतन करने के अलावा, धार्मिक समूहों और समारोहों में शामिल होना आध्यात्मिकता विकसित करने का एक अच्छा अवसर प्रदान करता है। शोधकर्ताओं ब्रूस और कॉकरेहम ने समाजसेवा या सामूहिक कार्यों में भागीदारी को अनिवार्य करने के रूप में युवाओं में आध्यात्मिकता को बढ़ावा देने के विभिन्न तरीकों का प्रस्ताव दिया। इन शोधकर्ताओं का सुझाव युवाओं में आध्यात्मिकता को बढ़ावा देने के लिए पाठ्यक्रम-आधारित कार्यक्रमों का उपयोग करने का भी है। आध्यात्मिक चेतना कैसे सोशल मीडिया और जीवन के उलझावों के बीच कैसे एक बेहतर राह सुझा सकती है, इसे एक लकड़हारे का उदाहरण देकर लेखक स्टीफन कोवे ने अपनी किताब- “द सेवन हैबिट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव पीपल” में समझाया है। उन्होंने लिखा कि लकड़हारा पेड़ों को काटने में इतना व्यस्त रहता है कि उसके पास अपनी कुल्हाड़ी और आरी की धार को तेज करने का समय नहीं होता है। इससे भोथरी धार वाली कुल्हाड़ी या आरी से पेड़ों को काटने में अतिरिक्त श्रम और समय लगता है। इस कारण लकड़हारा अपनी दक्षता खो देता है और लक्ष्य हासिल करने में नाकाम होता है। लेकिन जब आध्यात्मिकता की मदद से उसमें मन को शांत और एकाग्र करने वाले गुणों का विकास होता है, तो वह धैर्यवान बनता है और अपनी क्षमताओं और दक्षताओं का सही दिशा में इस्तेमाल कर पाता है। असल में, आध्यात्मिकता की समझ विकसित होने से जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए आंतरिक शक्ति का विकास होता है। ऐसी आध्यात्मिकता हमारे जीवन को एक उच्च अर्थ और उद्देश्य देती है। यह समझ विकसित होती है कि सफलता बाहरी उपलब्धियों में निहित नहीं है। बल्कि अगर किसी के पास मन की शांति, अच्छा स्वास्थ्य और परिवार और दोस्तों से सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं हैं, तो पैसे, प्रसिद्धि और ताकत से मिली सफलता बेमानी है। -लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।