नये कश्मीर के लिए नई उम्मीद जगाती एक ट्रेन
कटरा से श्रीनगर तक वंदे भारत ट्रेन की ऐतिहासिक शुरुआत कश्मीर के लिए मरहम भी है और साथ ही नये कश्मीर के लिए बदलाव का प्रमाण भी। पहला सबूत यह कि पहलगाम नरसंहार के विरोध में कश्मीरियों ने प्रदर्शन किया। बेशक पूर्ण राज्य बहाली की मांग के बावजूद सीएम उमर अब्दुल्ला ने नयी भूमिका से सामंजस्य बैठाया है। वहीं पीएम मोदी के भाषण में सकारात्मक-सार्थक संवाद के संकेत मिले हैं।
ज्योति मल्होत्रा
वर्ष 1897 में हुई सारागढ़ी की लड़ाई के एक साल बाद (वह इलाका अब पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में है) और लगभग उस वक्त, जब चीन एक विदेशी शासन के खिलाफ विद्रोह (जिसे बॉक्सर विद्रोह के रूप में जाना जाता है) में लिप्त था, 1898 में डोगरा महाराजा प्रताप सिंह ने तत्परता से ब्रिटिश इंजीनियरों को रेलवे लाइन बनाने के वास्ते नियुक्त किया था, वह जो उनके राज के जम्मू संभाग को कश्मीर घाटी से जोड़ सके।
आज जब कटरा से वंदे भारत ट्रेन पहली बार श्रीनगर के लिए निकली - जिसकी सभी टिकटें बिक चुकी थीं - दुनिया के कुछ सबसे खूबसूरत दृश्यों के बीच से होते हुए और साथ ही हिंदू-बहुल जम्मू और मुस्लिम-बहुल कश्मीर के दिलो-दिमाग को जोड़ते हुए, तो महाराजा का वह सपना आखिरकार फलीभूत हो गया। रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव और सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी के माध्यम से रेलवे और केंद्र के सभी बुनियादी ढांचा मिशनों को आगे बढ़ाने का पूरा श्रेय प्रधानमंत्री मोदी ले सकते हैं,न केवल चिनाब पर इंस्टा-रेडी आर्च ब्रिज बनाने के लिए, बल्कि जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच 272 किलोमीटर लंबी पटरियों पर 38 सुरंगों और 927 पुलों के लिए भी।
सात जून निश्चित रूप से खास है- पाकिस्तान में आतंकियों के कई मुख्य ठिकानों पर 7 मई को किए गए हमले के ठीक एक महीने बाद, जिसमें वहां के पंजाब प्रांत के बीचों-बीच मुरीदके और बहावलपुर स्थित अड्डे भी शामिल थे, पहली बार यह रेलगाड़ी चली है। ट्रेन पर सवार यात्री पर्यटक होने से कहीं अधिक थे; वे दो विचारों के बीच मेल की जीवंत पुष्टि कर रहे थे। पहला, कि गोलियां बहादुरों को नहीं रोक सकतीं और दूसरा, कि केवल कायर ही अपने प्रतिद्वंद्वी को अपनी बात समझाने के लिए मतपत्र की बजाय उसे मिटाने के लिए गोलियों का इस्तेमाल करते हैं।
कश्मीर के लिए यह ट्रेन मरहम और प्रमाण, दोनों का काम करती है - वास्तव में तीन किस्म का प्रमाण। पहलगाम के नृशंस नरसंहार के कारण अमीर खुसरो की जन्नत में पर्यटन लगभग ठप्प सा हो गया था। कश्मीरियों ने मस्जिदों से और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करके अपना दुख और गुस्सा जाहिर किया। यह इस बात का पहला सबूत है कि नए कश्मीर में मिज़ाज बदला-बदला सा है।
बेचारा असीम मुनीर। तथाकथित ‘दो-राष्ट्र सिद्धांत’ को दलदल से बार-बार बाहर निकालने की पाकिस्तान की हसरतों को किसी और ने नहीं बल्कि उसी कश्मीरी ने नाकाम कर दिया, जिसके नाम पर इस सिद्धांत को उछाला जाता है। वे 1947 में यह नहीं चाहते थे और 2025 में भी ऐसा नहीं चाहते। पाकिस्तान के सेना प्रमुख एक ‘सयाने’ व्यक्ति हैं; अब समय आ गया है कि वे कश्मीरी आवाम के इस संदेश को बूझें और समझें :‘कश्मीर को अकेला छोड़ दो’।
मुनीर और उनके सैन्य प्रतिष्ठान को पता होना चाहिए कि पहलगाम हिंसा अनुच्छेद 370 के ताबूत में आखिरी टेढ़ी कील साबित होगा। कश्मीर के अंदर तमाम वो लोग जिन्होंने 2019 में अपने ‘विशेष दर्जे’ के अंत का शोक मनाया था, और आज भी ‘आज़ादी’ रूपी भ्रम में यकीन रखते हैं, आज, इस बड़े खेल के बड़े जोखिम को अब पूरी तरह से समझ गए होंगे।
शायद, प्रधानमंत्री मोदी को भी जम्मू और कश्मीर में सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न होने के बाद गुजरे नौ महीनों को लेकर कुछ आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। और सवाल करें कि असीम मुनीर के ‘दो-राष्ट्र सिद्धांत’ के खिलाफ सबसे अच्छे हथियार के रूप में पूर्ण राज्य के दर्जे की बहाली, उस सूबे को क्यों नहीं दी जा सकती, जिसने लोकतंत्र के पक्ष में जी-जान से मतदान किया - और इस प्रकार भारतीय संघ के साथ एकीकरण किया।
विडंबना का इसके अधिक सबूत क्या होगा- जब मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, जिन्हें अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद हर विरोध को कुचलने के उपायों के अंतर्गत 5 अगस्त, 2019 को नजरबंद कर दिया गया था, शुक्रवार को चिनाब पुल पर प्रधानमंत्री की बगल में खड़े थे और जहां उन्होंने पूछा कि उनका रुतबा एक पूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री से घटाकर केंद्र शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में क्यों किया गया। जहां उनके इन शब्दों में हास्य और शालीनता, दोनों थे, वहीं दर्द भी झलक गया। आम कश्मीरी राजनेता, खासकर मुख्यमंत्री, जिसे वहां वजीर-ए-आला कहकर पुकारा जाता है, क्या वजीर-ए-आला (प्रधानमंत्री) उसे भरोसा करने लायक नहीं समझते?
सच तो यह है कि कानून एवं व्यवस्था, सुरक्षा, पोस्टिंग और अभियोजन के मामलों में लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा के पास मुख्यमंत्री अब्दुल्ला की तुलना में कहीं अधिक शक्ति है। अब्दुल्ला चाहते तो नाममात्र के मुख्यमंत्री बना दिए जाने पर अपनी भड़ास पहलगाम में साइकिल चलाकर या गुलमर्ग में स्कीइंग करके निकाल सकते थे, क्योंकि जो काम कायदे से उनका है, वह शक्ति संपन्न बना दिए गए उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा कर रहे हैं।
लेकिन उमर अब्दुल्ला ने अपने काम की रूपरेखा को फिर से गढ़ा है, नए कश्मीर का नया मुख्यमंत्री, जो उन लोगों तक पहुंच रहा है और उनका दर्द कम करने की कोशिश कर रहा है, जिन्होंने गुजरे सालों में काफी भुगता है। भगवान जाने, उन्हें लंबा रास्ता तय करना है। इस काम की रूपरेखा को यह दरकार भी है कि आप अपने निजी अभिमान और अहंकार को निगल लें, खासकर इसलिए भी क्योंकि केंद्र में सत्ता में बैठे अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ काम करने के लिए यह जरूरी है। उनके सहयोग बिना, आपको मालूम हो कि आप कुछ भी नहीं हैं।
दूसरा प्रमाण वह है, जो दर्शाता है कि कश्मीर में चीजें कैसे बदल गई हैं। युवा अब्दुल्ला जानते हैं कि उन्हें न केवल उन्हीं प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह से राबता रखना है - जिन्होंने उनको नजरबंद किया था- बल्कि वे एक मुरझाते हुए इंडिया गठबंधन के प्रति अपनी वफादारी के बारे में अधिक नहीं सोच सकते।
तीसरा प्रमाण पीएम मोदी का अपना है। कटरा में उन्होंने कहा : ‘पहलगाम में इंसानियत और कश्मीरियत, दोनों पर हुआ हमला।’ उन्होंने 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के दिए एक नारे का हवाला दिया, जब पूर्व प्रधानमंत्री ने कश्मीर को मरहम लगाने की आवश्यकता बताई थी और कहा था कि सभी कश्मीरियों के साथ बातचीत ‘कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत’ के व्यापक दायरे में हो सकती है।
क्या इससे प्रधानमंत्री का अभिप्राय यह है कि भारत के मुकुट के रत्न के लिए एक नया ‘हीलिंग टच’ तैयार किया जा रहा है? पिछले साल चुनावों के दौरान भी इनमें से कुछ अवयव निश्चित रूप से मौजूद थे, जब जमात-ए-इस्लामी उम्मीदवारों को जेल से रिहा करके, चुनाव लड़ने की अनुमति दी गई। इससे पहले भी जमात के साथ परदे के पीछे बातचीत के प्रयास जारी रहे हैं; इस साल की शुरुआत में, जमात के पूर्व सदस्यों ने मिलकर एक नई राजनीतिक पार्टी, जस्टिस एंड डेवलपमेंट फ्रंट का गठन किया था।
रेलगाड़ी का काम है लोगों, सामान और विचारों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना। कश्मीर के लिए यह रेलगाड़ी पहले से ही नई चर्चाओं को जन्म दे रही है। शायद इसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है। जम्मू-कश्मीर में अब हालात पहले जैसे कभी नहीं रहेंगे।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।