ध्यान भटकाने को जारी ‘विदेशी हाथ’ के आरोप
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप व एलन मस्क की ओर से बीते दिनों आये बयानों का इस्तेमाल भारत में दलीय राजनीति में हो रहा है जो यहां यूएसएड के जरिये चुनाव में हस्तक्षेप के आरोपों से जुड़े हैं। सत्ताधारी दल विपक्ष पर निशाना साध रहा है। इस बीच निर्वासित अप्रवासी भारतीयों की अपमानजनक वापसी विवाद पीछे छूट गया। देश नयी दुनिया में अपनी भूमिका के बारे सोचे।
ज्योति मल्होत्रा
अत्यधिक कुख्यात ‘विदेशी हाथ’, जो कभी इंदिरा गांधी का अपने विरोधियों पर आरोप जड़ने का पसंदीदा ढंग था, अब फिर से प्रचलन में है। द ट्रिब्यून के अभिलेखागार में झांकें तो आपको पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा ‘देश को बर्बाद करने पर आमादा’ अज्ञात विदेशी ताकतों के जिक्र के अनेक उदाहरण मिलेंगे। बेशक, यह 40 साल पुरानी बात है, और निश्चित रूप से हम उन दिनों से आगे बढ़ चुके हैं और एक अधिक सुरक्षित व आत्मविश्वासी राष्ट्र बन गए हैं।
इस सप्ताह, मार्सेल प्राउस्ट से क्षमा याचना सहित, ऐसा लग रहा है कि हम अतीत की यादों में खो गए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के घनिष्ठ मित्र एलन मस्क का यह बयान कि यूएसएड ने ‘भारत में मतदान’ के लिए 21 मिलियन डॉलर खर्च किए थे, इसे भाजपा सत्य मान बैठी। ट्रम्प की इस हल्की-फुल्की टिप्पणी के बाद कि यह धन बाइडेन प्रशासन द्वारा ‘किसी और को निर्वाचित करने’ में मदद करने के लिए भेजा गया था,भारत में सत्तारूढ़ दल इसकी प्राप्ति को लेकर अब कांग्रेस को निशाना बना रही है- कुछ लोग इसे जैसे को तैसा कह सकते हैं।
बेशक, ट्रम्प अपने समर्थकों को खुश करने के लिए ऐसी बयानबाजियां कर रहे हैं। स्पष्ट रूप से, ठीक यही कुछ भाजपा भी अपने समर्थकों के लिए कर रही है। विदेश मंत्रालय ने कहा : ‘यह जानकारी स्पष्ट रूप से बहुत परेशान करने वाली है और भारत के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप को लेकर ‘चिंता’ पैदा करती है। आप कह सकते हैं कि यह ‘यह सब राजनीति’ है, इस तूफान का मूल उद्देश्य राहुल गांधी को शर्मिंदा करने का एक प्रयास है - ऐसा नहीं है कि उन्हें अपने बचाव में मदद की ज़रूरत है। भले ही सप्ताहांत होते-होते इसका असर अपने-आप छितर भी जाता, पर जरा देखें तो कि ‘बात के बतंगड़’ ने अब तक क्या नुकसान पहुंचाया।
सर्वप्रथम,शर्मिंदगी खुद विदेश मंत्रालय को उठानी पड़ी है, न कि कांग्रेस पार्टी को। दुनिया के बेहतरीन राजनयिकों से सज्जित भारत का विदेश मंत्रालय राजनीति के दलदल से ऊपर रहने की कोशिश करता आया है - और अधिकांशतः सफल भी रहा है। यह अकारण नहीं है कि भारत के कई प्रधानमंत्री पहले विदेश मंत्री भी रहे थे और जो नहीं थे, उन्होंने भी इसके मामलों में गहरी रुचि बनाए रखी है। (वास्तव में, भारत गणराज्य के प्रत्येक राजदूत के नियुक्ति पत्र पर हस्ताक्षर प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्तिगत रूप से किए जाते हैं)। यदि विदेश मंत्रालय की भूमिका राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना है, तो उसे वह परंपरा कायम रखनी होगी कि खुद को सत्तारूढ़ दल द्वारा इस्तेमाल न होने दे। इसीलिए वह अपने शब्दों का चयन बहुत सावधानी से करता आया है। आखिरकार, शब्द ही एक राजनयिक के तरकश के एकमात्र तीर होते हैं, और प्रत्येक का अर्थ वही होता है, जो वह कहना चाहता है।
दूसरा, इस मौजूदा तूफान का मतलब है कि भाजपा -और विदेश मंत्रालय भी- पिछले पखवाड़े में तीन अमेरिकी सैन्य उड़ानों के जरिये, बेड़ियों-हथकड़ियों में बंधे भारतीयों की वतन वापसी वाले विवाद को पीछे छोड़ चुके हैं। ट्रम्प से मिलने के उपरांत, प्रधानमंत्री के स्वदेश पहुंचने के तुरंत बाद, इनमें दो उड़ानें अमृतसर में उतरीं, लेकिन सरकार में किसी ने अभी तक यह जवाब नहीं दिया है कि क्या भारतीय पक्ष ने ट्रम्प के साथ इस मुद्दे को उठाया है।
लेकिन वह कहानी खत्म हो गई है। भारत सरकार आगे बढ़ चुकी है। हालांकि, तथ्य यह है कि कई सवाल अनुत्तरित हैं, जिनमें यह भी शामिल है कि निर्वासित किए सिखों की पगड़ियां अकारण क्यों उतारी गईं। जहां तक सवाल है कि उन्हें बेड़ियां-हथकड़ियां क्यों पहनाई गईं, तो ऐसा लगता है कि अमेरिकी का तरीका यही है - जबकि कई अन्य देश ऐसा नहीं करते और उन्होंने अवांछित भारतीयों को घर भेजते समय ऐसा नहीं किया - लेकिन लगता है कि अमेरिकी कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते।
मूल प्रश्न बना हुआ है। क्या अमेरिका में भारतीय दूतावास या दिल्ली स्थित विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी राजनयिकों को बुलाकर उनसे जवाबतलबी की है कि उन उड़ानों में भारतीय नागरिकों के साथ इतना बुरा सुलूक क्यों किया गया? अमेरिकियों ने फिलहाल ऐसी उड़ानें बंद कर रखी हैं –जाहिर है,निर्वासितों को पनामा और कोस्टा रिका में छोड़ना कहीं सस्ता पड़ता है। भारत का कहना है कि वह इन लोगों की पहचान की तसदीक कर रहा है - इसमें कुछ समय लग सकता है, मेरे शब्दों पर ध्यान दें, चूंकि यह प्रक्रिया सच में लंबी है और इसमें यह फैसला लेना भी शामिल है कि क्या इनमें कोई किसी अन्य दक्षिण एशियाई देश का नागरिक तो नहीं - भारतीय या पाकिस्तानी या कोई और?- या फिर सब के सब आपके अपने देश के हैं। इस बारे में सोचें, यदि आपके अवैध वीसा एजेंट ने आपका पासपोर्ट रख लिया या जंगल में कहीं फेंक दिया और आपके पास अब कोई पहचान के कागजात नहीं हैं, तो कोस्टा रिका या पनामा में भारतीय राजनयिक किस आधार पर यह तय करेगा कि उसके सामने खड़ा व्यक्ति भारतीय है या नहीं? उसका घर का पता क्या है? वह दिखता कैसा है? वह कौन सी भाषा बोलता है?
तीसरा, तथ्य यह है कि मंटो की लघुकथा के किरदार टोबा टेक सिंह की बेमानी दुनिया में फंसे इन पुरुषों और महिलाओं की परवाह कौन करे–इधर पंजाब में हालात तुलनात्मक रूप में बेहतर नहीं हैं, जहां कनाडा-अमेरिका अब भी लुभावने रहेंगे। गुजरातियों की भांति वे भी वहां पलायन करना चाहते हैं, जिनकी गिनती वहां पहुंचे लोगों में दूसरी सबसे बड़ी है - और ठीक वैसे ही, जैसे कि हम में से वह लोग, जिन्हें अमेरिकी वीजा पाने का चाव है।
चौथा, अब वक्त है सीधे मुद्दे पर आने का। सच्चाई यह है कि मौजूदा तूफान वास्तव में आपको अपने आसपास की दुनिया में तेजी से हो रहे बदलावों का विश्लेषण करने से ध्यान भटकाने के वास्ते खड़ा किया गया है। रियाद में रूस-अमेरिका वार्ता के बाद, लगता है ट्रम्प एंड कंपनी रूसियों के साथ अच्छे संबंध बनाने के मूड में पूरी तरह से है। इससे भी महत्वपूर्ण यह कि ट्रम्प ने हाल ही में चीन के शी जिनपिंग को वाशिंगटन डीसी आने का न्यौता दिया है। तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि याल्टा जैसा दूसरा सम्मेलन होने वाला है? यह कि, ट्रम्प, पुतिन और जिनपिंग जल्द ही अपने-अपने महाद्वीपों को संभालने जा रहे हैं - रूस को यूरोप और चीन को एशिया का जिम्मा सौंप दिया जाएगा? भले ही यह अतिशयोक्ति लगे, फिर भी आप बात समझ गए होंगे। आप दावे के साथ कह सकते हैं कि रूस और चीन भर में उत्साह की बयार बह रही है।
और यही इस लेख का आखिरी सवाल है: यदि ट्रंप जिनपिंग से गलबहियां डालने जा रहे हैं, जोकि जाहिर है एक नई साहसिक दुनिया की तरह दिखाई दे रहा है, तो भारत का इसमें क्या स्थान है, खासकर तब जब भारत और मोदी चीन से अपने बचाव के लिए ट्रंप और अमेरिका को ढाल की भांति देख रहे थे?
शायद, यह भारत को जगाने वाली चेतावनी है। कदाचित, यह वक्त अपने भीतर ध्यान केंद्रित करने और अपनी खुद की ताकत विकसित करने का है। जहां तक ‘विदेशी हाथ’ वाले हथकंडे की बात है,तो इसे ठीक उसी रूप में लें जैसा कि यह हमेशा से रहा है, केवल ध्यान भटकाने का एक टोटका।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।