दिल ढूंढ़ता है फिर वही...!
04:05 AM Mar 02, 2025 IST
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शाम हो रही है, सड़क की भीड़, शोर से निकलकर मैं पगडंडी पर मुड़ गया हूं, सामने शाम का सूरज पेड़ों की झुरमुट के पीछे, आज का काम निपटा कर लौट रहा गोधूलि की ओट में समा जाना चाहता है। चारों तरफ़ बड़ी-बड़ी इमारतें हैं, गाड़ियों का रेला है, शोर है। फिर भी सामने दिखाई देता सुरमई रंग का डूबता सूरज, पक्षियों की चहचहाहट बड़ी ही मनमोहक है, गाड़ी में गीत बज रहा है, मैं वॉल्यूम तेज कर देता हूं।
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फ़ुरसत के चार दिन... तो कौन से हैं वो चार दिन, कब मिलेंगे, कब तक रहेंगे।
बहादुर शाह ज़फ़र जब अपने महल को आख़िरी बार निहार रहे थे। साथ छूट रहा था, तब उनकी ज़ुबान ने रोते-रोते कहा था।
उम्र-ए-दराज मांग के लाई थी चार दिन, दो आरज़ू में कट गये दो इंतिज़ार में।
बड़ी मुद्दत से ज़िंदगी की बात होती है, होती रहेगी, ज़िंदगी चलती रही, चलती रहेगी। हम भी यूं ही ज़िंदगी का साथ तब तक निभाते रहेंगे जब तक ज़िंदगी मुझे साथ लेकर चलती है। बिना शर्त, बिना कोई लाग लपेट।
किसी बड़े शायर ने कहा था, उन्हें नफरत हुई सारे जहां से, नई दुनिया कोई लाये कहां से।
उसी जगह पर फ़िराक़ गोरखपुरी कहते हैं, ये माना ज़िंदगी है चार दिन की, बहुत होते हैं यारों चार दिन भी।
एक तरफ़ जहां फ़िराक़ ज़िंदगी से कुछ उम्मीद जगाते हैं, तो दूसरी तरफ़ एक हारा हुआ राजा सारी उम्मीदें छोड़ कर जा रहा है।
आज मैं अपने पुश्तैनी घर अपने लोगों से मिलने जा रहा हूं। बहुत साल बीत गये वहां गये हुए। न जाने कैसा हो अब वो घर, मुहल्ला, शहर और शहर का माहौल। मन में बहुत ख़ुशी है, तो थोड़ा-सा डर भी। सब कुछ बहुत तेज़ी से बदल रहा है, परिवर्तन इतनी तेज़ी से होगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा, जब हम उम्र में छोटे हुआ करते थे।
बड़ा-सा शहर छोटा सा क़स्बा, थोड़े से लोग, सारे इतने जाने-पहचाने लोग कि जिधर भी जाओ उनसे ही मिल जाओ।
गंगा नदी के किनारे बसा मुहल्ला, नाप लो तो बित्ते भर, देख लो तो विराट सम्भावनाओं से भरा।
ऐसे ही होते थे तब छोटे शहरों के मुहल्ले, अब भी मिल जाते हैं ऐसे क़स्बे और वैसे ही लोग, लेकिन थोड़ा परेशान, थोड़ा आशंकित, एक ऐसी दौड़ में शामिल जहां जो कुछ भी है वो कम लगे, दूसरे का सुख तकलीफ़देह और अपनी परेशानी पहाड़ कि कैसे पार हो।
परिवर्तन जीवन की सच्चाई है, होना भी चाहिए, लेकिन छोटे शहरों का सुकून बड़े शहरों में परछाई की तरह पैरों से लिपटा, दुबका, आंखों पर हाथ रखकर धीरे-धीरे देखता है कि कहीं उन्नति की हक़ीक़त में उसकी आंखें न चुंधिया जायें।
अपना कच्चा घर याद करके जैसे मन भर जाता है, क्या दिन थे वो, पता नहीं अच्छे थे या ख़राब, लेकिन वो दिन थे बेहतरीन।
चार कच्चे कमरों के बीच बड़ा-सा आंगन, बीच में तुलसी जी का स्थान जहां दीपक रोज़ जलाया जाता, बड़ी बात ये कि दीपक जलाते समय मां अपने सिर पर आंचल रख लेती। दो मिनट आंखें बन्द करके कुछ बुड़बुड़ाती और परिक्रमा करती और हमें मिस्री का प्रसाद लेने के लिये हाथ फैलाने को कहती। तब हमारे लिये प्रसाद का मतलब कोई मिठाई ही होता था, खाया और हाथ पोंछ कर भाग लिये। कभी तुलसी तो कभी पीपल पूजा का अलग दिन अलग तरीक़ा, लेकिन प्रार्थना एक ही।
कभी बारिशों में भीग कर भुट्टे खाये हैं, कभी खेत में बैठकर सरसों के छोटे-छोटे चटक पीले धानी रंग के फूलों को पास से देखा है। कभी मटर को सीधे खेतों में छील कर खाया, गन्ने को तोड़ कर छील कर खाया। हम में से न जाने कितने लोग ईश्वर के दिये अन्न के इस उपहार का स्वाद ले चुके होंगे और न जाने कितने लोग इंतज़ार कर रहे होंगे कि दूसरा मौक़ा जल्दी ही मिले।
मिट्टी की वो ख़ुशबू जो बारिश के तुरंत बाद सोंधी-सी महकती है, धरती जैसे महुआ की महक से गमकती हुई। सड़क पर सैर करते महुआ बीनते बच्चे, बड़े और मैं, जंगली बेर, चिलबिल के बीज ये वो ख़ज़ाना था जो प्रकृति मुफ़्त ही लुटा रही थी, बस लूटने वाले की ज़रूरत थी। हम शामिल रहते थे उस वरदान को पाने के लिये, जिसका स्वाद आज भी ज़ुबान से गया ही नहीं।
विक्रम बेताल, चाचा चौधरी, पंचतंत्र की कहानियां, मोटू-पतलू, नंदन, पराग, तोता-मैना, धर्मयुग आदि पढ़कर बड़े हुए, लेकिन उन सभी की कथायें नस-नस में अब भी बह रही हैं।
तब पिज़्ज़ा, बर्गर का पदार्पण नहीं हुआ था, काला खट्टा, लेमन चूस जैसे चीज़ें जो स्वाद देती थीं वो स्वाद भले ही पहले से बदला, अच्छा हुआ है लेकिन दस पैसे में पांच का तिलिस्म अभी भी क़ायम है।
फिर पढ़ाई ने किताबों का रूप बदला, विषय नये मिले और बचपन कहीं पीछे अस्सी के दशक से बाहर निकल आया।
गर्मियों में भुना चना, लाई, गुलगुले और सर्दियों में गोभी, धनिया और पुलाव, पता नहीं क्या-क्या पकवान बनते, जैसे होली में गुझिया तो सर्दी में गाजर हलवा, ये सब इतने स्वादिष्ट थे कि भूल पाना असम्भव है, जिनके मिल जाने की उम्मीद हमेशा एक सुखद अनुभव है।
नीम के पेड़ पर पड़े बड़े-बड़े झूलों में जब बड़े-बच्चे रेगें मारते, लगता आसमान छू कर ही लौटेंगे, लेकिन अब जबकि हवाई जहाज़ से आसमान में ऊपर नीचे देखो तो लगता है, हम सचमुच बहुत ही छोटे हुआ करते थे।
एक गली हुआ करती थी, दो दीवारों के बीच, थोड़ी सोंधी-सी, थोड़ी बेला-सी, थोड़ी रूह की मीठी चाशनी। जहां कुछ भी न था पर, दो पर थे, उड़ जाने के, इस दुनिया से ही दूर। वहां इश्क़ की महफ़िल जमती थी। जहां रोज़ ही मीरा आती थी। जहां रांझे रूठा करते थे। उस गली की छत भी नीली थी, जहां इत्र बरसता रहता था। क्या वहां चलोगी तुम। गुमसुम से गुम हो जाने को, कुछ खोने को कुछ पाने को, उस इश्क़ गली के कोने में दीवारों की दहलीज़ों में क्या अपना नाम लिखूं। क्या आपका नाम भी वहां लिखा मिलेगा, हो ही। वो उम्र इस जादू के प्रभाव से कहां बच पाती है। तब धरती और सुनहरी होती है, आसमान इन्द्रधनुषी और सपने अपने सबसे प्यारे मित्र। वो समय भी लुकाछुपी में ही निकल गया। उस गली में हम सब गुजरे, हम सबका है नाम वहां, कोई हीर वहां कोई रांझा है, पर प्रीत की रीत वही है, थोड़े व्यवसायीकरण, अपनेपन की कमी ने रिश्तों का नुक़सान किया है।
जीवन बदला, समाज उन्नति की राह पर चल पड़ा, बढ़ती जनसंख्या का बोझ धरती पर भी पड़ने लगा। ऐसा महसूस किया जाने लगा जैसे बहुत से लोगों के रहने-बसने के लिये बड़ी संख्या में घरों की ज़रूरत पड़ेगी। हरीभरी धरती धीरे-धीरे सीमेंट के जंगलों में बदलने लगी। बहुत सारे पेड़, जंगल काटे जाने लगे, घर बनाने के लिये ज़मीन की तलाश में हमने धरती के बहुत बड़े हिस्से की हरियाली छीन ली। बहुत सारे घर बनने लगे, ज़रूरत के मुताबिक़ थोड़ी और जगह की दरकार ने हरियाली को धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया और हम तरक़्क़ी कर गये।
‘खेतों में कब क्या उगेगा’ को भूल कर ज़मीन का सौदा करने लगे, ये धरती उतनी ही है, न ये बड़ी की जा सकती है न ही छोटी, जंगल काटे जाने लगे, रोते बिलखते, विलापों से भरी चीख, पंछियों के रुदन, करुणा और आंसू मिश्रित सड़ांध किसी भी गुलाब की महक से नहीं छुप रही थी। धरती दहक रही है, यमुना में, गंगा के पानी में पता नहीं क्यों उबाल नहीं है, कुछ है जो सुलग रहा है। जो किसी भी हिरोशिमा को शायद परास्त करने की असीमित छमता रखती है। जीवन के आवश्यक चांद से प्रारम्भ हुआ सफ़र मंगल, सूर्य और अंतरिक्ष तक का रास्ता नापने की नई होड़ शुरू हो गई है, जिसने जहां एक ओर जीवन को थोड़ा आसान बनाया तो तमाम नई आशंकाओं को जन्म दिया है। लेकिन मानवीय संवेदना, आपसी सद्भाव, सामंजस्य बिखर रहा है, कम हो रहा है, पहले ही सीमित रिश्तों में सिमटी दुनिया और भी संकोची, असहज, असहयोग के रास्ते पर बढ़ गई, हमारी संवेदना, प्रेम, समाज में एकरूपता का ताना बाना बिखर रहा है। हम से मैं और मैं से अहम की दूरी तेज़ी से कम हो गई है।
रिश्तों की नज़ाकत, नफ़ासत और गुंजाइश, गुज़ारिश जैसे भाव विलुप्त हो रहे हैं,
रोज़ ही अंतरिक्ष से आने वाले अदृश्य ख़तरे, हमें तत्कालिक रूप से ज़्यादा ही कमजोर बनाते है। चिकित्सा के क्षेत्र में हो रहे अनुसंधान, नई दवाओं, सर्जरी के नये उपकरण, तमाम असाध्य बीमारियों से सफलतापूर्वक लड़ सकने का माध्यम तैयार किया है। अभी-अभी ही विश्व कोरोना जैसी अनजान बीमारी से वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक सहयोग के माध्यम से जिस तरह संघर्ष करके बाहर आया वो, वसुधैव कुटुम्बकम् के कथन को चरितार्थ करता है। अस्पतालों में भी मरीज़ों की संख्या बढ़ी है, चिकित्सा तंत्र में विस्तार की ज़रूरत है।
विश्व, विशेष कर भारत जिस तरह से हर क्षेत्र में सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा है, ये एक अभूतपूर्व मिसाल है। सरकार का मार्गदर्शन बहुत ही आवश्यक है, हम निरंतर इसी गति के साथ सफलता की नई बुलंदियों को छूने में कामयाब हों, ये बड़ा ही खूबसूरत स्वप्न है, जो सच होगा ऐसा प्रतीत हो रहा है। हमें आशान्वित रहना चाहिये, देश के प्रति समर्पित भाव, उन्नति में सकारात्मक सहयोग आवश्यक है।
आज सुबह-सुबह आसमान का एक टुकड़ा छत से ऐसे दिखा जैसे गांव में रोज़ सिर पर छतरी की तरह तैरता रहता था, रात को जब आंगन में ज़मीन में पानी डाल कर ठंडा करके, निवार वाली चारपाई पर बिछी सफ़ेद चादरों पर सोते हुए, गर्मियों के साफ़ आसमान में तारों की एक नदी धीरे-धीरे बहती रहती थी, जो तारे शाम में आंगन के एक किनारे होते दूर रहते, वो कब सिर के बालों को सहला कर गुजर जाते पता ही नहीं चलता, जब हम सब थक कर सो रहे होते। रात में देखो तो सफ़ेद चादरें बैंगनी या नीली दिखतीं। दूर कोई चौकीदार जाने कब तक जागता, कब सो जाता। चांद सबकी हाज़िरी लगाता चुपचाप हमें थपकियां देकर निकल जाता, नदी की ओर। सुबह-सुबह ही नदी में डुबकी मार कर ठंडा हो सो जाता।
पास रखी मिट्टी की सुराही बस अपनी लंबी गर्दन सम्भाले इंतज़ार करती कि पहले किसको प्यास लगेगी, कौन नींद से जागेगा और पानी पियेगा। शांत माहौल में कभी कभी कोई पंछी बोलता तो दादी कहतीं, शायद प्यासा होगा। जा एक कटोरे में पानी निकाल कर रख दे, या फिर ये बारिश को आवाज़ दे रहा है।
हम मां की आवाज़ से उठते- ‘उठो स्कूल नहीं जाना, तैयार हो, रिक्शावाला आता होगा।’
चांद दूर आसमान में किसी किनारे सो गया होता और सूरज अपनी ड्यूटी पर लौट आता। स्कूल से लौटकर घर के पास वाले पार्क में तब तक खेलना जब तक पिता जी छड़ी लिये पार्क में न आ जाते, ‘पढ़ाई कौन करेगा।’
पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब से चला सफ़र, कम्प्यूटर की ‘की’ थाम कर कहां से कहां पहुंच गया, आगे भी बहुत उम्मीदें हैं। आने वाला भविष्य, ऑर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का होगा, मल्टीलेवल सड़कों, फ़्लाई ओवर का होगा, चिकित्सा क्षेत्रों में नये मुक़ाम हासिल होंगे। जीवन सुगम और सुरक्षित हो, बचपन ख़ुशियों से भरा और युवा उम्मीदों से लबालब हों, बुजुर्ग समाज में पूरी प्रतिष्ठा के साथ जीवनयापन कर सकें, महिलाओं की समाज में व्यापक भागीदारी हो, इसी सपने के साथ देश आगे बढ़ेगा।
एक बार किसी बहुत बड़े शहर में किसी पुराने दोस्त के फ़्लैट में रहते हुए, मैंने उससे एक शाम कहा चलो छत पर सोते हैं, वो बड़ी अचरज भरी निगाहों से देखता हुआ बोला - क्या करोगे छत पर जा कर, वहां कुछ भी नहीं है यार।
मैंने कहा, ‘तुम भूल गये, गांव में हम आंगन में या छत पर सोते थे।’
वो ज़ोर से हंसा, ‘अरे यार तुम अब भी पुरानी दुनिया में अटके हो, यहां सूरज, चांद, तितली, चिड़िया जैसा कोई विचार ही नहीं आता। यहां ख़्याल आता है, सिर्फ़ अपना असाइनमेंट, कमरे का किराया, महीने का खर्च और घर कुछ पैसे भेजने की उम्मीद। हम सुबह सात बजे से रात सात बजे तक नॉन-स्टाप काम करते हैं, फिर तनख़्वाह आती है यार, अब सब भूल गया। छत क्या पार्क में गये, बरसों से हंसे-खिलखिलाये, परिवार के साथ समय बिताये ज़माना हो गया और रही बात तारों की यहां छत से तारे नज़र ही नहीं आते, इतना पॉल्यूशन आसमान काला दिखता है। नींद सबसे बड़ा तोहफ़ा है, तो छुट्टी सबसे खूबसूरत नियामत, जीवन बहुत बदल गया है मेरे यार, अब ये सब बातें कौन सोचता है। बड़ा कठिन संघर्ष चल रहा है।
मैं उसकी बात सुन रहा था, सोच रहा था, न जाने कितने रिसॉर्ट्स लोगों को घर जैसा माहौल, रहन सहन, खाना पीना ऑफ़र करके न जाने कितने पैसे कमा रहे हैं। न जाने कितने पिता अपने बच्चों को गांव घर की, दादी-नानी की कहानियां सुनाकर गौरवान्वित हो रहे हैं। हम अपनी जड़ों से दूर भाग रहे हैं।
कुछ विशेष त्योहारों में चांद को छत पर देर रात तक तलाशते रहते हैं, विज्ञान ने लाख चांद पर कदम रखे, वहां से मिट्टी लाये, लेकिन चांद का तिलिस्म भारतीय समाज, साहित्य और जीवन में उसी तरह याद किया जाता रहेगा।
शाम हो रही है, सड़क की भीड़, शोर से निकलकर मैं पगडंडी पर मुड़ गया हूं, सामने शाम का सूरज पेड़ों के झुरमुट के पीछे, आज का काम निपटा कर लौट रहा गोधूलि की ओट में समा जाना चाहता है। चारों तरफ़ बड़ी-बड़ी इमारतें हैं, गाड़ियों का रेला है, शोर है। फिर भी सामने दिखाई देता सुरमई रंग का डूबता सूरज, पक्षियों की चहचहाहट बड़ी ही मनमोहक है, गाड़ी में गीत बज रहा है, मैं वॉल्यूम तेज कर देता हूं, इसी समय पत्नी का फ़ोन आ गया है, ‘कहां पहुंचे आप।’
मैं बोलता हूं- ‘छुट्टी मंज़ूर हो गई, हम गांव जा रहे हैं, पिता जी के पास।’
गाड़ी में गीत बज रहा है- ‘दिल ढूंढ़ता है, फिर वही, फ़ुरसत के रात दिन। दिल ढूंढ़ता है फिर वही।’
एक नन्ही-सी तितली न जाने कहां से मेरी गाड़ी के चक्कर काट रही है। शायद उसे पता चल गया है, मैं आ रहा हूं।
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