दान का माधुर्य
एक बार एक पथिक ने सरिता से पूछा, हे सरिता! तू इतनी छोटी है किंतु तेरा जल कितना मधुर तथा तृप्तिकारक है और वह सागर इतना विशाल है, परंतु उसका जल खारा है। इसका आखिर यह रहस्य क्या है? वेग से बहती सरिता को किसी की बात सुनने की फुर्सत ही कहां थी। सरपट दौड़ते-हांफते उसने इतना मात्र कहा कि सागर से ही जाकर पूछो। क्षितिज तक विस्तृत और गर्जन-सर्जन करने वाले सागर के पास पथिक गया और उसने उससे वही प्रश्न किया? सागर बोला, पथिक, मेरी बात ध्यान से सुनो। सरिता एक हाथ से लेती है दूसरे हाथ से देती। वह अपने पास एक पल के लिए भी कुछ नहीं रखती। दूसरों को कुछ देते के लिए ही दिन-रात दौड़ती रहती है। किंतु मैं सब से केवल लेता हूं। यही कारण है कि मेरा संचित जल खारा है और सरिता का जल मीठा। पथिक ने समझ लिया कि जो एक हाथ से देता है और दूसरे हाथ को उसका भान भी न रहने देता है, उसी के जीवन में माधुर्य ही भरा रहता है।
प्रस्तुति : मुग्धा पांडे