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त्वचा से सांस लेने वाली अनूठी कुचिया

04:05 AM Mar 07, 2025 IST
त्वचा से सांस लेने वाली अनूठी कुचिया
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दलदल की ईल, जिसे कुचिया भी कहा जाता है, एक अद्भुत मछली है जो अपने अनोखे श्वास लेने के तरीके के लिए प्रसिद्ध है। यह मछली गहरे दलदल, कीचड़ और कम ऑक्सीजन वाले पानी में जीवित रहती है और हवा से सांस लेती है। इसके शरीर की संरचना और जीवनशैली अन्य मछलियों से पूरी तरह भिन्न होती है, जो इसे प्रकृति में एक अनोखा जीव बनाती है।

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के.पी. सिंह
दलदल की ईल को अंग्रेजी में स्वैम्प ईल कहते हैं। यह दलदल वाले क्षेत्रों में रहती है और ईल जैसी दिखती है। इस ईल की लगभग दस जातियां हैं। ये भारत में भी पायी जाती है। भारत में इसे कुचिया कहा जाता है। बिहार और बंगाल के सदाबहार तालाबों में ये काफी बड़ी संख्या में देखी जा सकती है। दलदल की ईल अद्भुत विशेषताओं वाली मछली है। इसने सामान्य मछलियों की तरह एक लंबे समय तक, सांस लेने के लिए अपने गलफड़ों का उपयोग नहीं किया। परिणाम स्वरूप इसके गलफड़ों समाप्त हो गए। इस प्रकार यह हवा से सांस लेने वाली मछली बन गयी। दलदल की ईल दलदल, कीचड़, गंदेपानी एवं कम ऑक्सीजन वाले पानी में रहती है तथा बार-बार सतह पर आकार हवा से सांस लेती है। कभी-कभी इसे दलदली सतह पर रेंगते हुए भी देखा जा सकता है। दलदल की ईल प्रकाश से दूर रहना पसंद करती है। यही कारण है कि यह दिन में दिखाई नहीं देती।
दलदल की ईल की शारीरिक संरचना अन्य ईलों एवं मछलियों से पूरी तरह भिन्न होती है। इसकी लंबाई 30 सेंटीमीटर से लेकर 1.5 मीटर तक होती है एवं शरीर का रंग काला-कत्थई अथवा हरा होता है तथा इस पर पीले, लाल या कत्थई रंग के धब्बे अथवा धारियां होती हैं। दलदल की ईल के शरीर पर कोई स्पष्ट पार्श्व रेखा नहीं होती। इसकी त्वचा पर शल्क भी बहुत छोटे-छोटे होते हैं। दलदल की ईल के जोड़े वाले मीनपंख नहीं होते। इसकी पीठ और नितम्ब के मीनपंखों में फिनरेज नहीं होती। दलदल की ईल की आंखें बहुत छोटी होती हैं एवं त्वचा से ढंकी रहती है। इसीलिए इसकी आंखें दिखाई नहीं देती। इसकी कुछ जातियां तो ऐसी हैं, जिनकी आंखें समाप्त हो चुकी हैं अथवा समाप्त हो रही है। दलदल की ईल की आंखों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो गया है कि जिनके आंखें हैं, उन्हें भी दिखाई नहीं देता। ये अपनी आंखों से केवल प्रकाश और अंधकार ही पहचान सकती हैं।
दलदल की ईल की एक प्रमुख विशेषता यह है कि ये अपने शरीर की कार्बनडाइऑक्साइड अपनी त्वचा से बाहर निकालती है। भारत में पायी जाने वाली दलदल की ईल कुचिया के फेफड़ों की तरह के दो थैले होते हैं, इन्हीं से यह सांस लेती है। ये दलदल के भीतर कम रहती है। ये अपने जीवन का अधिकांश बड़ा पानी के बाहर कीचड़ अथवा गीली घास में भोजन की तलाश में रेंगते हुए गुजार देती है। कुचिया गर्मी में कीचड़ के भीतर मांद बनाकर लंबी ग्रीष्मकालीन निंद्रा लेती है। यह प्रकाश से दूर रहती है। दिन के समय जलीय पौधों के बीच छिपी रहती है और रात में शिकार की खोज में बाहर आती है। दलदल की ईल का प्रमुख भोजन छोटे-छोटे रीढ़धारी जीव हैं। यह एक दिन में अपने शरीर के वजन के बराबर का भोजन चट कर जाती है। यह पेटू होती है।
समागम काल में नर और मादा दोनों एक-दूसरे से मिलते हैं और कीचड़, दलदल अथवा कम ऑक्सीजन वाले पानी के भीतर सतह के पास ही समागम करते हैं। इसके बाद नर हवा के बुलबुलों का एक विचित्र घोसला तैयार करता है। इसके लिए यह बार-बार सतह पर आता है, सतह से हवा लेता है और हवा पर एक विशेष प्रकार का आवरण चढ़ाकर छोड़ देता है। इससे सतह पर हवा के बुलबुलों का एक घोसला-सा बन जाता है। यह घोसला इतना मजबूत होता है कि सुई चुभाने पर भी नष्ट नहीं होता। समागम के बाद जैसे-जैसे मादा अंडे देती है, नर प्रत्येक अंडे को अपने मुंह में भरकर घोसले के नीचे की सतह पर चिपका देता है। इस प्रकार कुछ ही देर में बुलबुलों से बना पूरा घोसला अंडों से भर जाता है। दलदल की ईल के अंडों की सुरक्षा का काम भी नर ही करता है। यह दलदल अथवा पानी में लहरें उत्पन्न करके अंडों तक ऑक्सीजन पहुंचाता है और शत्रुओं से भी अंडों की रक्षा करता है। इतना ही नहीं, अंडों बच्चों के निकलने पर नर उनकी भी रक्षा करता है।
इनके अंडे परिपक्व होने पर फूटते हैं और उनसे छोटे-छोटे बच्चे निकल आते हैं। नवजात की छाती पर बड़े मीनपंख होते हैं, जिनसे सांस लेते हैं। दस दिन के बाद मीनपंख गिर जाते हैं तो यह हवा से सांस लेने लगते हैं। इन अंडों को बगुला, सारस जैसे पक्षी अपना शिकार बना लेते हैं। दलदल की ईल की एक जाति चावल की ईल है जिसमें सेक्स बदलने की अद्भुत क्षमता होती है। यह जन्म के समय नर होती है, कुछ समय तक उभयलिंगी और इसके बाद मादा बन जाती है। यह एक्वेरियम की मछली है लेकिन उसमें प्रजनन नहीं करती। दलदल की ईलों का उपयोग भोजन के रूप में काफी किया जाता है। इ.रि.सें.

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