तृष्णा से मुक्ति तक का पावन पर्व
वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है, जो भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की त्रयी घटनाओं का प्रतीक है। यह दिन आत्मचिंतन, तृष्णा से मुक्ति, करुणा और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, जिसे बौद्ध व हिंदू दोनों श्रद्धा से मानते हैं।
चेतनादित्य आलोक
अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिए वैशाख महीने की पूर्णिमा बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है। अवसर होता है। इस पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा, पीपल पूर्णिमा एवं बुद्ध जयंती के नाम से भी जाना जाता है। यह हिंदुओं के अतिरिक्त बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले लोगों का भी प्रमुख त्योहार है। वैशाख पूर्णिमा भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़ी तीन अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी रही है। मान्यता है कि भगवान बुद्ध का जन्म, उनको ज्ञान यानी ‘बुद्धत्व’ अथवा ‘संबोधि’ की उपलब्धता और महापरिनिर्वाण की प्राप्ति ये तीनों महत्वपूर्ण घटनाएं वैशाख पूर्णिमा के दिन ही घटित हुई थीं।
सत्य विनायक पूर्णिमा
वैशाख पूर्णिमा का एक नाम ‘सत्य विनायक पूर्णिमा’ भी है। दरअसल, भगवान श्रीकृष्ण के बचपन के निर्धन ब्राह्मण मित्र सुदामा जब द्वारिका उनके पास मिलने पहुंचे तो श्रीकृष्ण ने उनको ‘सत्य विनायक व्रत’ का विधान बताया था। मान्यता है कि इसी व्रत के शुभ प्रभाव से सुदामा जी की सारी दरिद्रता दूर हुई थी और वे सर्वसुख सम्पन्न एवं परम ऐश्वर्यशाली हो गए थे। वैशाख पूर्णिमा के दिन धर्मराज की पूजा करने का विधान भी ग्रंथों में बताया गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस व्रत के अनुष्ठान से धर्मराज जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है और अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता।
श्रीविष्णु का नौवां अवतार
हिंदू पौराणिक ग्रंथों में भगवान बुद्ध को भगवान श्रीहरि विष्णु का नौवां अवतार बताया गया है। जाहिर है कि यह केवल बौद्धों के लिए ही नहीं, अपितु हिंदुओं का भी एक महत्वपूर्ण त्योहार माना जाता है। बता दें कि बुद्ध पूर्णिमा के दिन हिंदू परिवारों में दान-पुण्य और धर्म-कर्म के अनेक कार्य किए जाने की परंपरा रही है। साथ ही, स्नान लाभ की दृष्टि से यह हिंदुओं का अंतिम पर्व भी माना जाता है।
विदेशों में आयोजन
भारत के अलावा दुनिया के विभिन्न देशों में फैले हिंदू परिवार एवं बौद्ध धर्म के मानने वाले लोग इस त्योहार को बड़ी ही धूमधाम से मनाते हैं। श्रीलंका में इस दिन को ‘वेसाक’ कहा जाता है, जो ‘वैशाख’ का ही एक परिवर्तित रूप अथवा अपभ्रंश है। इस दिन बौद्ध मतावलंबी बौद्ध विहारों और मठों में इकट्ठा होकर एक साथ उपासना करते हैं। इस दौरान बौद्ध धर्मावलंबियों के द्वारा दीप प्रज्जवलित कर बुद्ध की शिक्षाओं का अनुसरण करने का संकल्प भी लिया जाता है।
बुद्ध के चार सूत्र
बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को चार प्रमुख सूत्र दिए थे। इन सूत्रों का उनके अनुयायियों के लिए हमेशा से बड़ा महत्व रहा है। बौद्ध धर्म में इन सूत्रों को ‘चार आर्य सत्य’ के नाम से जाना जाता है। इनमें पहला आर्य सत्य ‘दुःख’ है, दूसरा ‘दुःख का कारण’, तीसरा आर्य सत्य ‘दुःख का निदान’ और चौथा आर्य सत्य भगवान बुद्ध का विशेष ‘अष्टांगिक मार्ग’ है।
दुःख का कारण
भगवान बुद्ध ने जो ‘चार आर्य सत्य’ बताए हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण दूसरा आर्य सत्य ‘दुःख का कारण’ माना जाता है, जिसके संबंध में उन्होंने अपने शिष्यों को बताया था कि मनुष्य के दुखों का वास्तविक कारण उसका अपना ही अज्ञान और मिथ्या दृष्टि है। बता दें कि भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के अनुसार मनुष्य के भीतर मौजूद ‘तृष्णा’ ही सभी दुःखों का मूल कारण है। वास्तव में, तृष्णा के कारण ही मनुष्य संसार की विभिन्न वस्तुओं की ओर प्रवृत्त होता है, और जब वह उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता अथवा प्राप्ति के बाद भी जब वे नष्ट हो जाती हैं, तब तृषित मन को गहरा आघात लगता है। इसके कारण मनुष्य को दुःख होता है, जबकि अज्ञानता एवं मिथ्या दृष्टि के कारण उसका ध्यान ‘तृष्णा’ की ओर जाता ही नहीं। जाहिर है कि वह दुःख के लिए किसी व्यक्ति अथवा वस्तु को जिम्मेदार ठहराने लगता है।
अष्टांगिक मार्ग
भगवान बुद्ध ने जो ‘चार आर्य सत्य’ अपने शिष्यों को बताए, उनमें चौथा आर्य सत्य उनके द्वारा सुझाया गया ‘अष्टांगिक मार्ग’ है। बौद्ध धर्म की मान्यताओं के अनुसार इस अष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए मनुष्य के जीवन से दुःख का निवारण संभव हो सकता है। गौरतलब है कि भगवान बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग दृष्टि, संकल्प, वाणी, कर्म, आजीविका, व्यायाम, स्मृति और समाधि के सम्यक प्रयोग का संदेश देती है। बुद्ध की शिक्षाओं के अनुसार अष्टांगिक मार्ग पर चलकर साधक मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं।
पहला प्रवचन सारनाथ
भगवान बुद्ध ने अपने जीवन का प्रथम उपदेश, जिसे ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ के नाम से जाना जाता है, सारनाथ में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पांच भिक्षुओं को दिया था। उनकी वाणी का ऐसा प्रभाव था कि लोग उनसे जुड़ते चले गए। भेदभाव रहित होकर हर वर्ग के लोगों ने भगवान बुद्ध की शरण ली और उनके उपदेशों का अनुसरण किया। गौरतलब है कि पूरे भारत में ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि और संघ शरणम् गच्छामि’ का जयघोष गूंजने लगा था। भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के अनुसार केवल मांस खाने वाला ही नहीं, बल्कि क्रोध, व्यभिचार, छल, कपट, ईर्ष्या और दूसरों की निंदा करने वाला व्यक्ति भी अपवित्र होता है। वे कहते हैं कि मन की शुद्धता के लिए पवित्र जीवन व्यतीत करना आवश्यक है।
महापरिनिर्वाण प्राप्ति
भगवान बुद्ध का धर्म प्रचार 40 वर्षों तक चलता रहा। अंत में, उत्तर प्रदेश के कुशीनगर स्थित पावापुरी नामक स्थान पर 80 वर्ष की अवस्था में ई.पू. 483 में वैशाख पूर्णिमा के दिन ही उन्हें महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई। यही कारण है कि बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर कुशीनगर के महापरिनिर्वाण मंदिर में प्रत्येक वर्ष एक महीने तक चलने वाले विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश-विदेश के लाखों बौद्ध अनुयायी शामिल होते हैं। वहीं, बोधगया स्थित बोधिवृक्ष (पीपल वृक्ष), जिसके नीचे भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी, की जड़ों में इस दिन भक्तगण दूध और सुगंधित पानी का सिंचन करके पूजा करते हैं।
तीन देवों की पूजा
बौद्ध धर्म की मान्यता के अनुसार बुद्ध (वैशाख) पूर्णिमा को भगवान बुद्ध की पूजा करने से भक्तों के सारे सांसारिक कष्ट मिट जाते हैं। वैसे शास्त्रों की मान्यता है कि वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध, के साथ-साथ यदि भगवान श्रीहरि विष्णु तथा चंद्रदेव की भी पूजा की जाए तो मनोकामनाएं शीघ्र पूरी होती हैं तथा व्यक्ति के जीवन से संकटों का नाश होता है और सौभाग्य का उदय होता है।