डुबकी में छिपी संभावनाएं तलाशने का दौर
डॉ. हेमंत कुमार पारीक
महाकुंभ में करोड़ों की भीड़ देख मन मचल रहा है। भीड़ में शामिल हो हम भी जनता को दिखाना चाहते हैं कि हम भी किसी से कम नहीं, पक्के सनातनी हैं। कुछ न बन सके तो कम से कम भीड़ में तो बने रहें। मौका है और दस्तूर भी चौका लगाने का। सुन रहे हैं कि इस वक्त फिल्मों में अपना करिअर बनाने उतरी हीरोइनें भी डुबकी लगा दीक्षा लेने की तैयारी कर रही हैं। आश्चर्य तो तब हुआ जब एक भूली-बिसरी अभिनेत्री अचानक अखाड़े की बड़ी कुर्सी की खलीफा हो गयी।
सुनते ही हमारे घर काम करने वाली बाई रामप्यारी की सांस फूलने लगी। लोग मानें न मानें पर वह तो अपने आपको हीरोइन से कम न समझती। उतावली हो गयी डुबकी लगाने के लिए। बर्तनों को पटकना शुरू कर दिया उसने। झाड़ू की सींकें तोड़ने लगी।
देख लो दिल्ली में क्या हुआ? तार-तार हो गयी झाड़ू। कभी भाई साहब कंधे पर उठाए-उठाए घूमा करते थे। हमेशा दूसरों को झाड़ने की फिराक में रहते थे। अब देखो झाड़ू उल्टी पड़ गयी। सो भाई झाड़ू का अपमान अच्छा नहीं होता।
हमें तो लगा था कि अबकी बार झाड़ू के साथ पोंछा भी लेकर आएंगे। पर उनके हाथ में वेक्यूम क्लीनर देख हम चकरा गए। कारण पूछा तो हंसते हुए बोले, शीशमहल में झाड़ू नहीं चलती। तौहीन होती है शीशमहल की। जब तक कुर्सी पर न थे खूब खेले झाड़ू से और कुर्सी पर आते ही उसे दुत्कार दिया, तू कौन खामखां? और फिर सबने देखा, खेला हो गया। अब मिर्जा साहिब का शे’र उन पर खूब फिट होता है- उम्रभर गालिब यही भूल करता रहा, धूल चेहरे पर थी और आईना साफ करता रहा।
खैर, कामवाली बाई जोश में है इस वक्त। बर्तनों की पटका-पटकी जारी है। इस असार संसार में अपने आपको सनातनी सिद्ध करना चाहती है। हमने कहा, ऐसा न करो रामप्यारी! जोश में होश न खोओ। वे सब तो भरीपूरी हैं। दीक्षा ले भी लें तो भी वापसी का टिकट उनके पर्स में रहता है। मगर अगर तूने दीक्षा ली तो फिर वापस नहीं लौटने वाली। कहीं भिक्षा पात्र ले वहीं कहीं सड़क या चौराहे पर न बैठना पड़े। नकल में शक्ल बिगड़ जाती है।
फिलवक्त तो वसंत और वेलेंटाइन का मौसम है। होली आ रही है। अपने परिवार के संग वेलेंटाइन-डे मना। मन चंगा रख, बनी-ठनी रहेगी। ज्यादा ही फड़फड़ा रही है तो दो-चार और घर तलाश ले। रामप्यारी से रेखा या राखी बनने की कोशिश न कर। फिर भी समझ नहीं आता तो जा रामप्यारी तू भी लगा ले एक डुबकी।