For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

टूटे खेती में घाटे की रीत, किसान हों समृद्धि के मीत

04:05 AM May 04, 2025 IST
टूटे खेती में घाटे की रीत  किसान हों समृद्धि के मीत
चित्रांकन : संदीप जोशी
Advertisement

अकसर देश में खेती-किसानी से जुड़े लोगों के आंदोलन की खबरें आती हैं। पिछले वर्षों में कई लंबे किसान आंदोलन चले। शहरियों को किसानों के बारे में तब सोचने को मिलता है, जब वे सड़कों पर धरना, प्रदर्शन व जाम लगा रहे होते हैं। कहा जाता है कि मुफ्त बिजली-पानी व सब्सिडी के बावजूद बार-बार आंदोलन क्यों? देविंदर शर्मा कृषि वैज्ञानिक से कृषि पत्रकार और फिर किसानी के मुद्दों पर मुखर आवाज बने। वे निरंतर प्रिंट,इलेक्ट्राॅनिक व सोशल मीडिया पर कृषि-विमर्श करते नजर आते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों से लेकर खेत-खलियानों तक मूक कृषक की आवाज बनते हैं। खेती-किसानी से जुड़े तमाम मुद्दों पर अरुण नैथानी ने उनसे विस्तृत बातचीत की। कुछ अंश।

Advertisement

समय-समय पर खेती-किसानी से जुड़ी आबादी के आंकड़े आते हैं। भारत की मौजूदा आबादी 140 करोड़ है। इसमें से आधी आबादी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़ी है। यह आंकड़ा करीब 70 करोड़ है। सरकारी आंकड़े के अनुसार, 46 प्रतिशत लोग खेती में हैं। कृषि क्षेत्र का देश की जीडीपी में 18 प्रतिशत योगदान है। पहले कहा जाता था कि दुनिया में सबसे ज्यादा खेती में जुड़े लोग चीन व भारत में हैं। दुनिया की खेती में लगी आधी आबादी इन देशों की है। लेकिन अब भारत लीड ले रहा है।
ज्यादा भागीदारी व कम उत्पादकता
दरअसल, कॉरपोरेट को तरजीह देने वाली सोच ने किसान को गरीब बनाया है। कहा गया कि देश की ग्रोथ तब होगी, जब खेती पर निर्भर जनसंख्या को कम करके उन्हें शहरों में लाया जाएगा। यानी कृषि की कीमत पर आर्थिक रिफोर्म को प्राथमिकता। ताकि सस्ते श्रमिक कॉरपोरेट को मिल सकें। कॉरपोरेट ने देश में एक सोच बना दी कि आलू-प्याज महंगा होने से आम आदमी का बजट बिगड़ जाएगा। लेकिन मॉल में शॉपिंग से हमारा बजट नहीं बिगड़ता। बेरिस्टा की हो या स्टारबक्स की कॉफी, मॉल में 300 रुपये कीमत लेने पर हमें महंगाई नजर नहीं आती। आलू-प्याज के ही दाम बढ़ने पर हमें महंगाई दिखायी देती है। एक सोचा-समझा मॉडल कि खेती बर्डन है समाज के लिये। कृषि में सुधार लाने के लिये इस सोच को बदलें। खेती से निकला किसान व खेतिहर श्रमिक शहरों की झुग्गियों में बदतर जीवन जीता है। शहरों में फ्लाई ओवर के नीचे सोता नजर आता है। विकास का ये मॉडल कॉरपोरेट को रास आता है। देश की आर्थिक नीतियां भी कॉरपोरेट सोच के अनुरूप हैं। मुख्यधारा के अर्थशास्त्री भी दुनिया के विभिन्न देशों में अपनायी गई नीतियों का कट-पेस्ट करते रहते हैं। पश्चिम में फेल पुराना मॉडल यहां लागू करते हैं।
समय के अनुरूप खेती आधुनिक बने
मैने हर बार कहा है कि खेती का संकट खेत में नहीं बल्कि खेत से बाहर है। आर्थिक डिजाइन किसान को पर्याप्त दाम नहीं देता। गांव में आधुनिकीकरण का प्रयास तब सफल होगा जब उसके हाथ में रिसोर्स होंगे। कई बार मैं कहता हूं कि वर्ष 1971 में गेहूं का मूल्य 76 रुपये प्रति कुंतल था। कालांतर 2015 में 45 साल के बाद यह 1450 रुपये हुआ। यह वृद्धि 19 गुना बैठती है। लेकिन इस दौरान आम कर्मचारी की तनख्वाह का बेसिक 120 से 150 प्रतिशत बढ़ा। वहीं प्रोफेसर का वेतन 150 से 170 प्रतिशत बढ़ा। वर्ष 1971 में स्कूल टीचरों का वेतन कम था, ये 1971 के मुकाबले 280 से 220 प्रतिशत बढ़ा। मेरा मानना है कि यदि कर्मचारियों का वेतन 45 साल में 19 प्रतिशत बढ़ता तो आधे लोग नौकरी छोड़ देते या कुछ आत्महत्या कर लेते। लेकिन खेती उसी स्तर पर है। ऐसा नहीं है कि किसान तरक्की नहीं चाहते।
गांवों से उद्योगों को जोड़ना
एक सर्वे का अकसर उल्लेख करता हूं। वर्ष 2016 में सरकार का एक सर्वे सामने आया था, जिसमें कहा गया कि देश के 17 राज्यों में किसान की सालाना इनकम 20 हजार रुपये है। कुल 17 राज्यों का मतलब है कि आधा देश हो गया। ऐसे में यदि मैं पंजाब में एक गाय पालना चाहूं तो 1700 रुपये प्रतिमाह की आय में यह संभव नहीं होगा। ऐसे में सोचें कि किसान कैसे गुजारा करता होगा। जब किसान की औसत आय इतनी कम है तो तकनीक या उद्योग से किसानों का भला कैसे होगा? शहर में भी यदि बीस हजार तनख्वाह कर दें तो कौन सा चेंज लाया जा सकता है? ये तो किसान के साथ अन्याय है। वहीं दूसरी तरफ यदि किसान टमाटर 10 से 20 रुपये किलो कर दे तो हंगामा हो जाता है। रेहड़ी वाले से हर आदमी मोल-भाव करना चाहता है। दस रुपये है तो आठ लगा लो। लेकिन मॉल में जाकर हम यह नहीं कर पाते। यह सोच हमारे आर्थिक डिजाइन की देन है। सोच बना दी गई है कि यदि लोगों को खेती से निकालकर शहर में नहीं लाते तो देश की तरक्की नहीं हो सकती। गांधी जी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। उनकी ग्राम स्वराज की अवधारणा नीति-नियंताओं की समझ में नहीं आती। लेकिन पश्चिमी देशों में विफल रही विश्व बैंक, आईएमएफ आदि की नीतियों को हमारे यहां कट-पेस्ट कर लागू करने को प्राथमिकता दी जाती है। सोच बना दी गई है कि कृषि उपजों का दाम कम होना चाहिए। केवल बाजार में कृषि उत्पादों के ही दाम कम होते हैं। कभी स्कूटर, कार,टीवी व घड़ी आदि के दाम कम होते देखे हैं?
स्टोरेज व्यवस्था और न्यायसंगत दाम
यह बात तार्किक नहीं है कि स्टोरेज की व्यवस्था हो जाने से किसान फसल रोककर बाजार के अनुरूप उत्पाद बेचकर मुनाफा कमा लेगा। अमेरिका में तो पर्याप्त स्टोरेज व्यवस्था है फिर वहां किसानों को क्यों घाटा होता है? मेरी बात को एक अमेरिकी किसान ने जायज ठहराया और कहा कि वर्ष 2022 में भी वह मक्का उसी कीमत पर बेच रहा है, जिस दाम में पिताजी 1970 में बेच रहे थे। दरअसल, हम स्टोरेज का बहाना बनाते हैं और किसानों को उसकी उपज का न्यायसंगत दाम नहीं देना चाहते।
एमएसपी से लाभ उठाने का प्रतिशत
दरअसल, सरकार की शांता कुमार कमेटी ने 2014 में मुझे बुलाया था। मैं गया और एक बात कही थी कि देश में सरप्लस तीस प्रतिशत अनाज की खरीद पीडीएस आदि के लिये होती है। जिसमें छह प्रतिशत को ही एमएसपी का लाभ मिलता है। जो छोटे किसान हैं, एक एकड़, दो एकड़ वाले, उनके सरप्लस से यह अनुमान लगाया गया। जब विशेषज्ञों से पूछा गया तो किसी से नहीं बताया। इसके अलावा 6 प्रतिशत में भी बड़ी भागीदारी पंजाब व हरियाणा के किसानों की थी, क्योंकि यहां सिस्टम वेल बिल्ट था। बेहतर नेटवर्क स्थापित था।
अगर आज की बात करें तो संसद में आंकड़ा दिया गया कि देश में 14 फीसदी किसानों को एमएसपी का पूरा लाभ मिल रहा है। यानी 86 फीसदी किसान बाजार के भरोसे हैं। जो बाजार से 30 से 40 प्रतिशत दाम किसानों को देते हैं।
आंदोलनों से कृषि सुधार पर प्रभाव
दरअसल, हमारे सुधारों की दिशा हमारे किसानों की आकांक्षा व जरूरतों के अनुरूप नहीं है। जो सुधार लाये जा रहे थे, वे अमेरिका व यूरोप में डिजाइन किए गए थे। वे यूरोप व अमेरिका में लागू हुए और लाभकारी नहीं रहे। अमेरिका में किसानों पर 425 बिलियन डॉलर का कर्ज है। सुधारों ने अमेरिका में किसानों का संकट कम नहीं किया। पहले छह महीने में यूरोपीय देशों में किसानों के 24 बड़े प्रदर्शन हुए। उनकी मांग है कि गारंटिड प्राइस मिलें। अगर बाजार से सही प्राइस मिल रहे होते तो वे किसान ये मांग न करते। दरअसल, ये सुधार यूरोप व अमेरिका में फेल हुए हैं। कॉरपोरेट ने ये सोच दी और हम खुश हो गए। क्या हम भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप समाधान के बारे में नहीं सोच सकते।

ग्लोबल वॉर्मिंग और कृषि उत्पादन
दरअसल, आज सबसे बड़ी जरूरत किसानों की आय बढ़ाना है। जब सुनिश्चित आय होगी तो अब चाहे ग्लोबल वार्मिंग हो या कुछ अन्य, वे निपटने की क्षमता हासिल कर लेंगे। किसान की आय बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। सबसे पहले किसानों की खरीद क्षमता पर ध्यान दिया जाए।
फसलों पर जानवरों का हमला
उत्तराखंड व हिमाचल में जंगली सुअर,बंदर, लंगूर, तोते आदि फसलों को बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं। किसानों की फसलें बर्बाद हो रही हैं। दरअसल, हमने प्राकृतिक जीवन में जो दखल दी है, ये उसका नतीजा है। किसान व उनके परिवार रात-दिन खेतों व बगीचों में फसल की रक्षा कर रहे होते हैं। हमें विकल्प देने से पहले किसानों को शिक्षित करने की जरूरत है।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन
अन्ना आंदोलन के दौरान भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चली तो मैं मूल संस्थापकों में शामिल था। उस समय नहीं सोचा कि देश भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होगा। मध्य रात्रि में संसद सत्र आहूत किया गया। भले ही परिणाम सबके सामने है, लेकिन इस दिशा में प्रयास तो बंद नहीं होने चाहिए।
कृषि वैज्ञानिक से कृषि एक्टिविस्ट
दरअसल, यह मेरी ऑर्गेनिक ग्रोथ है। मैं एग्रीकल्चर साइंटिस्ट था। फिर मूक कृषकों को आवाज देने को एक दशक तक पूरे देश में रिपोर्टिंग की। फिर सोचा कि ऐसे मैं पूरी तरह किसानों के मुद्दे नहीं उठा पा रहा हूं। उन्हें आवाज देने के साथ आत्मसंतुष्टि भी जुड़ी थी।
कैंब्रिज व फिलीपीन्स के अनुभव
कृषि अनुसंधान व पत्रकारिता ने नये अनुभव दिए। अनुभव से ज्ञान मिला। फिलीपीन्स के राइस इंस्टीट्यूट में विजिटिंग एडिटर के रूप में ईस्ट एशिया के 10-12 देशों में जाने को मिला। पता लगा कि कोरिया, जापान, चीन व कंबोडिया में क्या हो रहा है। विजन विस्तृत होता है। अमेरिका,आस्ट्रेलिया व यूरोप के करीब पचास वि.वि. में व्याख्यान दिए। एक्सप्रेस में दस साल कृषि संवादाता रहते हुए सारे देश की खेती को समझने का मौका मिला। मुझे पूछा जाता कि अंतर्राष्ट्रीय कृषि व व्यापार समझौतों व ड्ब्ल्यूटीओ के बारे में जानकारी कैसे मिलती है। दरअसल, शिक्षा यात्रा से मिलती है। विश्लेषण करने की क्षमता बढ़ती है।
अमेरिका से द्विपक्षीय समझौता
यह एक बड़ी चुनौती होगी। किसानों को नजर रखनी होगी। जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों की चुनौती है। उनके यहां सरपल्स है। ज्यादा बाजार खोलने का दबाव होगा। दूध उत्पादन में भारत ग्लोबली नंबर वन है। यूएसए नंबर टू है। मगर उनका सरप्लस दूध बिकता नहीं है। उन्होंने कनाडा व अफ्रीका के लिये पुश किया। भारत को सावधान रहना होगा। सेब व वॉलनट के लिये भी दबाव आएगा। मेरे जीवन का टास्क अभी भी अधूरा है। जिस दिन सरकार के छोटे इंप्लाइज के बराबर किसान की आय हो जाएगी, मैं अपना संघर्ष सफल मान लूंगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा- ‘सबका साथ, सबका विकास’ मुझे लुभाता है। इसका रास्ता खेत-खलियानों से गुजरना चाहिेए, जिससे देश की आधी जनसंख्या समृद्ध होगी।
फसलों के विविधीकरण की जरूरत
यह बात बहुत पहले से कही जा रही है। अस्सी के दशक में जोहल रिपोर्ट में कही गयी। दूसरी रिपोर्ट में भी यही कहा गया। ऐसा नहीं कि किसान नहीं चाहते। लेकिन पॉलिसी मेकर चाहते हैं। सरकार ने प्रोत्साहन देकर धान व गेहूं उगाने को कहा। किसानों ने कर दिखाया। उन्हें आर्थिक रिटर्न मिलना चाहिए। यदि किसानों को फसल बदलने से लाभ होगा तो वे जरूर दलहन, तिलहन और मिलेट उगाना शुरू कर देंगे।

Advertisement

एमएसपी गारंटी की तार्किकता
किसानों की मांग है कि आय सुनिश्चित करने के लिये एमएसपी को कानूनी गारंटी दी जाए। अब जो एमएसपी 23 फसलों पर मिल रही है उसे कानूनी अधिकार बना दिया दिया जाए। कह सकते हैं कि ऐसा दुनिया में कहां है। इंडोनेशिया एक बड़ा मुल्क है। वहां चावल का एक बैंच मार्क प्राइस तय किया गया है। उससे कम दाम में कोई धान नहीं खरीद सकता। इसके बावजूद व्यापारियों ने खरीदना बंद नहीं किया।
गारंटी का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
दरअसल, अर्थशास्त्रियों के नाम पर एक भय की स्थिति पैदा करने की कोशिश होती है। कहा गया कि एमएसपी को कानूनी गारंटी देने से अर्थव्यवस्था को 17 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा। किसानों का कर्ज माफ करने पर अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है जबकि कॉरपोरेट का माफ करने पर अर्थव्यवस्था फलने-फूलने लगती है। पिछले 11 साल में कॉरपोरेट का 16 लाख करोड़ रुपया माफ किया तो किसी ने सवाल नहीं उठाया। चौथा वेतन आयोग लागू हुआ तो इसकी व्यवस्था के लिये करीब 4 लाख करोड़ रुपये हर साल खर्च हुए, लेकिन किसी ने आवाज नहीं उठायी। यदि किसान को पैसा देने की बात आती है तो उसे व्यर्थ जाना बता दिया जाता है। मेरा मानना है कि यदि एमएसपी को कानूनी गारंटी मिली तो बाजार में किसान का खर्च बढ़ेगा। फिर जीडीपी दस प्रतिशत से अधिक रॉकेट डोज से बढ़ेगी।

डायरेक्ट इनकम की सार्थकता
कृषि वैज्ञानिक देविंदर शर्मा के मुताबिक, मैंने सबसे पहली बार जब किसानों को डायरेक्ट इनकम देने की बात कही तो कई अर्थशास्त्रियों ने विरोध किया। इस हकीकत के बावजूद कि देश का कॉरपोरेट सब्सिडी पर जीता है। तब कहा गया- ट्रेज़री से सीधा पैसा कैसे किसानों को दे दिया जाएगा? अच्छा लगा जब वित्तमंत्री के रूप में अरुण जेटली ने इस विचार से सहमति जतायी। आज भले थोड़ा मिल रहा है, लेकिन एक बड़ी शुरुआत है। किसानों को छह हजार रुपये साल का मिल रहा है। ये महत्वपूर्ण है कि देश के सवा लाख करोड़ रुपये के कृषि बजट का आधा साठ हजार करोड़ किसानों को डायरेक्ट इनकम के रूप में मिल रहा है। यह बहुत बड़ा टेक्टोनिक शिफ्ट है। आर्थिक सोच बदली है। ये हमारा किसानों के साथ हुए अन्याय का प्रायश्चित कहा जा सकता है। हमारी नीतियों ने किसान को गरीब बनाया। दुनिया के सबसे रिच संगठन ओईसीडी के अनुसार, 2000 से 2016 के बीच भारतीय किसानों को पैंतालिस लाख करोड़ नुकसान हुआ। लेकिन इस गंभीर तथ्य पर कोई विमर्श नहीं हुआ।
ग्लोबल वॉर्मिंग संकट का मुकाबला
निस्संदेह, यह ग्लोबल वॉर्मिंग नहीं रहा, अब ग्लोबल बॉयलिंग हो गया है। स्पष्ट कर दूं कि हमारे फूड सिस्टम व कृषि का खाद्य शृंखला में 34 प्रतिशत योगदान है। उससे निकलने का एक मात्र रास्ता एग्रो इकॉलाजिक सिस्टम अपनाना है। भारत की परंपरागत खेती समृद्ध रही है। इससे जहां पैदावर बढ़ेगी। जमीन ठीक होगी, पानी बचेगा, हवा ठीक होगी, वहीं कंज्यूमर की सेहत सुधरेगी। एग्रो इकॉलाजी अपनाने से पंजाब का पानी संकट भी कम होगा।

Advertisement
Advertisement