जोखिम से समृद्धि
एक बार की बात है, धरती की गोद में दो बीज आ पड़े। कोमल मिट्टी ने उन्हें स्नेहपूर्वक ढक लिया। प्रातःकाल जब सूरज की पहली किरण ने धरती को स्पर्श किया तो दोनों बीजों की चेतना जागृत हुई। उनमें से एक बीज में अंकुर फूटने लगे। वह धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ने लगा। तभी पास ही पड़ा दूसरा बीज भयभीत स्वर में बोला—‘भैया, ऊपर मत जाना! वहां बड़ा जोखिम हो सकता है। यहां नीचे ही सुरक्षित रहो।’ पहला बीज अपने छोटे भाई की बात सुनता रहा, किंतु उसने रुकने का नाम नहीं लिया। वह मिट्टी की परतों को चीरकर ऊपर निकल आया। बाहर का संसार अनोखा था। सूर्य की किरणों ने उसे ऊर्जा दी, वायु ने थपकियां देकर उसे सहलाया, वर्षा ने उसे अमृत समान जल से सींचा। धीरे-धीरे बीज पौधा बना, फिर वृक्ष। वह झूमता, लहलहाता, खिलता और फलता गया। उसकी शाखाओं पर पक्षी बसेरा करने लगे, उसकी छाया में पथिक विश्राम करने लगे, उसकी डालियों पर फूल खिले और उसके फलों से असंख्य नए बीज उत्पन्न हुए। समय बीतता गया, एक दिन वह वृक्ष भी प्रकृति के नियम के अनुसार इस संसार से आत्मसंतोष के साथ विदा हो गया। जाते-जाते वह अपने जैसे असंख्य बीज छोड़ गया, जो फिर अंकुरित होकर जीवन को आगे बढ़ाने वाले थे। धरती के गर्भ में पड़ा दूसरा बीज यह सब देख पश्चाताप कर रहा था। वह बुदबुदाया, मैं जोखिम उठाने से डरता रहा। परिवर्तन और संघर्ष से बचता रहा। भय और संकीर्णता के कारण मिट्टी में पड़ा रहा। जबकि मेरा भाई समृद्धि पा गया।
प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा