जीवन मूल्यों से विजेता
दिग्विजय प्राप्त करने के बाद सिकंदर की अंतरात्मा युद्धों के दौरान हुई हिंसा, बर्बरता तथा हत्याओं की स्मृति से व्यथित हो उठी। एक दिन वह संत डायोनीज की झोपड़ी में गया और हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक बोला, ‘महात्मन, मैं आपको गुरु-दक्षिणा स्वरूप कोई मूल्यवान वस्तु भेंट करना चाहता हूं।’ संत डायोनीज ने विश्व-विजयी सिकंदर की ओर गंभीर दृष्टि से देखा और शांत स्वर में कहा, ‘सिकंदर, तूने जो भी संपदा अर्जित की है, वह रक्तपात और हिंसा के बल पर प्राप्त की है। तू जो भी मुझे भेंट देगा, उसमें मुझे केवल पाप और बर्बरता ही दिखाई देगी। अतः अपनी भेंट अपने ही पास रख।’ संत डायोनीज ने आगे समझाया, ‘आतंक, रक्तपात और हिंसा से कभी भी सच्चा दिग्विजयी नहीं बना जा सकता। असली विजेता तो वही है, जिसने अपनी बुराइयों पर विजय पा ली हो।’ संत के इन सारगर्भित शब्दों को सुनकर सिकंदर रो पड़ा। उसका हृदय पश्चाताप से भर उठा और अंतरात्मा प्रायश्चित की अग्नि में जलने लगी।
प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा