जासूसी के मकड़जाल पर कानून की निगहबानी
भारत की सुरक्षा को खतरे में डालने वाली भ्रामक जानकारी फैलाना और बेबुनियाद प्रचार करना अथवा उन्हें प्रकाशित करना, बीएनएस की नई जोड़ी गई धारा 197(1)(डी) के अन्तर्गत 3 वर्ष तक की कैद से दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है।
के.पी. सिंह
हाल ही में हुए सशस्त्र संघर्ष के बाद भारत में पाक खुफिया एजेंसियों के जासूसों और मुखबिरों के नेटवर्क पर कार्रवाई अपरिहार्य थी। यू-ट्यूबर, यायावर, शिक्षाविद, अपराधी और छोटे व्यवसायियों सहित एक दर्जन से अधिक व्यक्तियों को दुश्मन देश की गुप्त सेवाओं के साथ संदिग्ध सम्बन्धों के चलते गिरफ्तार किया गया है। सम्भव है कि इनमें से अधिकतर व्यक्ति धन प्राप्ति, वीज़ा पाने और प्रायोजित विदेश यात्राओं की खातिर अथवा अन्य प्रलोभन के वशीभूत होकर विदेशी एजेंटों के जाल में फंस गए हों।
समय के साथ जासूसी के दायरे और विधाओं में बदलाव आया है और इसके आयाम अधिक व्यापक और जटिल हो गए हैं, जिसमें विभिन्न तकनीक पर आधारित, कार्यप्रणाली तथा तरह-तरह के लक्ष्य श्ाामिल होते जा रहे हैं। प्राचीन युग में राजाओं के मुखबिर जानकारी एकत्रित करने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर गुप्त रूप से घूमते थे। अधीनस्थ रियासतों के ष्ाड्यंत्रों तथा महल की साजिशों का पर्दाफाश करने के लिए भी राजाओं द्वारा गुप्तचर नियुक्त किए जाते थे।
आधुनिक सूचना क्रान्ति के दौर में गुप्त जानकारी एकत्रित करने की प्रक्रियाएं पूरी तरह से बदल गई हैं। इनमें साइबर हमलों और आतंकवाद से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सम्भावित खतरों की पहचान करना, विरोधियों की सैन्य क्षमताओं को परखना और सैनिकों की आवाजाही पर नज़र रखने के साथ-साथ व्यापारिक रहस्यों, बाजार के रुझान और प्रतिस्पर्धियों की जानकारी से सम्बन्धित मामलों पर आर्थिक जासूसी शामिल है। साथ ही राजनीतिक और सामाजिक संस्थानों एवं भू-राजनीति से जुड़े मसलों की निगरानी श्ाामिल है।
औद्योगिक क्रान्ति के बाद, आधुनिक राज्य की अवधारणा विभिन्न स्वरूपों में अवतरित हुई, जिसके परिणामस्वरूप एक जटिल विश्व-व्यवस्था का उदय हुआ। इस व्यवस्था के लिए आवश्यक रणनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक महत्व की जानकारी एकत्रित करने के लिए पारम्परिक मानव-केन्द्रित गुप्तचर प्रणाली बहुत कम उपयोगी रह गई है। इसके लिए सिग्नल इंटेलिजेंस, वायर इंटरसेप्शन, फोटोग्राफी, उपग्रह इमेजरी और साइबर निगरानी जैसी प्रौद्योगिकी और अमूर्त परिसम्पत्तियों पर आधारित तौर-तरीकों से परिपूर्ण एक सम्पूर्ण गुप्तचर संस्था की जरूरत आन पड़ी है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता और साइबर उपकरणों का उपयोग सटीक और सम्यक ‘सॉफ्ट इंटेलिजेंस’ एकत्रित करने और दुश्मन की इलेक्ट्रॉनिकी पर आधारित प्रणालियों को बाधित करने के लिए किया जा रहा है। विरोधियों के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को निष्क्रिय करने के लिए हार्डवेयर को हैक करना और सॉफ्टवेयर से छेड़छाड़ करना आम बात हो गई है। साइबर जासूसी के क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक-संचार माध्यमों को बाधित करके उनसे प्राप्त सिग्नलों का विश्लेषण करने के लिए ‘सिग्नल इंटेलिजेंस’ लोकप्रिय हो रही है। ‘इमेजरी इंटेलिजेंस’ तकनीक का उपयोग करना, जिसमें उपग्रह और ड्रोन, हवाई टोही यंत्रों द्वारा डिजिटल फोटोग्राफी श्ाामिल है, अब कोई रहस्य नहीं रह गया है।
हालांकि, व्यक्तियों, संगठनों और दुश्मन की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए अन्दर के भेदी लोगों को अपने साथ मिलाकर लक्षित संस्थान के अन्दर घुसपैठ करके पारम्परिक निगरानी के तरीके गुप्त एजेंसियों द्वारा अभी भी प्रयोग में लाए जा रहे हैं। दुश्मन की सूचना एकत्र करने वाली इकाइयों को बाधित और भ्रमित करने, देश के रणनीतिक हितों के रक्षार्थ तथा ‘डीप स्टेट’ के नापाक मंसूबों पर पानी फेरने के लिए भी जासूसी आवश्यक है। हितधारक, प्रतिद्वंद्वी की गुप्तचर प्रणालियों से छेड़छाड़ करने तथा राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विमर्शों पर प्रायोजित एवं अपेक्षित राय विकसित करने के उद्देश्य से अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञों से युक्त ‘डीप स्टेट’ की सेवाएं निरन्तर ले रहे हैं।
‘डीप स्टेट’ वह अवधारणा है जिसके अन्तर्गत व्यक्तियों के समूह, अदृश्य रहकर, सरकारों और संस्थानों की नीतियों और गतिविधियों को बिना कोई जिम्मेदारी ओढ़े संचालित अथवा प्रभावित करते हैं। कुछ हालिया गिरफ्तारियों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
दुनियाभर की सरकारों द्वारा जासूसी और ‘डीप स्टेट’ के प्रचार के खतरों से निपटने के लिए कानूनी तंत्र विकसित किया जाता रहा है। ब्रिटिश श्ाासन के दौरान, भारत में सरकार और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण आधिकारिक दस्तावेजों और सूचनाओं के प्रकटीकरण को रोकने के लिए गवर्नर जनरल द्वारा वर्ष 1889 में भारतीय आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम (आईओएस एक्ट) अधिनियमित किया गया था। लॉर्ड कर्जन के श्ाासनकाल में इस कानून को और मजबूत किया गया और परिणामस्वरूप 1904 में आईओएस एक्ट में संशोधन किए गए।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद, अंग्रेजों को सैन्य रहस्यों और प्रतिष्ठानों को पहले से कहीं अधिक सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता महसूस हुई, जिसके परिणामस्वरूप मौजूदा ‘आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1923’ (ओएस एक्ट) पारित किया गया। जिसमें श्ाासन के लिए आवश्यक गोपनीयता के सभी पहलुओं को ध्यान में रखा गया था।
ओएस एक्ट जासूसी को अपराध घोषित करता है। जासूसी की परिभाषा में किसी निषिद्ध स्थान में प्रवेश करना या स्कैच और नोट बनाना या किसी सरकारी दस्तावेज या सूचना को प्राप्त करके उसे अवांछनीय तत्वों तक पहुंचाने के कार्य को श्ाामिल किया गया है, जो किसी दुश्मन के लिए उपयोगी साबित हो सकता हो या जो भारत की संप्रभुता और अखण्डता एवं विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को प्रभावित कर सकते हो। यहॉ तक कि किसी विदेशी गुप्तचर के साथ मात्र सम्पर्क रखना भी ओएस एक्ट की धारा 4 में अंतर्गत दण्डनीय अपराध है।
गोपनीयता, सरकारों के कामकाज में अन्तर्निहित है। किसी भी सरकारी सूचना को जान-बूझकर प्रकट करना या किसी लोक सेवक के कब्जे में स्थित आधिकारिक दस्तावेज को किसी अनाधिकृत व्यक्ति के साथ साझा करना ‘ओएस एक्ट’ के अन्तर्गत अपराध है जिसमें 3 वर्ष तक की सज़ा हो सकती है।
कुछ समय से यह महसूस किया जा रहा था कि ‘ओएस एक्ट’ केवल सैन्य और सुरक्षा प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द घूमने वाले अवांछित व्यक्तियों और लोक सेवकों के अविवेकपूर्ण आचरण पर अंकुश लगाने के लिए ही पर्याप्त है, यह दुश्मन के गुप्तचरों से राष्ट्रीय सुरक्षा को दरपेश गम्भीर खतरों से निपटने के लिए सक्षम नहीं है। तदानुसार, भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस) मे एक नई धारा 152 जोड़ी गई, जिसके अन्तर्गत सशस्त्र विद्रोह को भड़काना या अलगाव को बढ़ावा देना और वित्तीय साधनों या अन्य किसी भी प्रकार से भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता को खतरे में डालना आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध बनाया गया है।
इसके अतिरिक्त, भारत की सुरक्षा को खतरे में डालने वाली भ्रामक जानकारी फैलाना और बेबुनियाद प्रचार करना अथवा उन्हें प्रकाशित करना, बीएनएस की नई जोड़ी गई धारा 197(1)(डी) के अन्तर्गत 3 वर्ष तक की कैद से दण्डनीय अपराध घोषित किया है।
नि:संदेह, राष्ट्रीय सुरक्षा, भारत की एकता और अखण्डता, सार्वजनिक श्ाांति और सामाजिक सद्भाव सर्वोपरि हैं और इन पर कोई भी समझौता नहीं किया जा सकता। साथ ही, अभिव्यक्ति की आजादी की सुरक्षा की खातिर जासूसी से जुड़े सभी मामलों की निष्पक्ष जांच भी जरूरी है ताकि कानून लागू करने वाली एजेंसियों द्वारा कानूनी श्ाक्तियों के किसी भी दुरुपयोग की सम्भावना को रोका जा सके।
लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।