जहां मिलती है सिख और सनातन परंपरा
उत्तराखंड के हेमकुंड साहिब में आस्था, इतिहास और प्रकृति का अनुपम संगम है, जहां गुरु गोविंद सिंह की तपोभूमि और लक्ष्मणजी का पौराणिक मंदिर साथ-साथ श्रद्धा का केंद्र बनते हैं।
डॉ. बृजेश सती
उत्तराखंड राज्य में एक ऐसा स्थान है, जहां दो धर्मों के तीर्थ स्थल एक साथ हैं। हिंदू श्रद्धालुओं का लक्ष्मण मंदिर और तो सिख श्रद्धालुओं का हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा। श्री हेमकुण्ड साहिब सिखों का दुनिया में सबसे ऊंचाई पर स्थित गुरुद्वारा है। यह समुद्र की गहराई से 15 हजार फीट की ऊंचाई पर है। सिख तीर्थ यात्रियों के लिए यहां की यात्रा का खास मायने हैं। यही कारण है कि विपरीत परिस्थितियां होने के बावजूद बड़ी संख्या में सिख श्रद्धालु यहां आते हैं।
यह प्राकृतिक कुंड अधिकतर बर्फ से अटा पड़ा रहता है। सप्त श्रृंग अर्थात् सात हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से घिरा 5 सौ वर्ग मीटर क्षेत्र में विस्तारित है। हाथी पर्वत एवं सप्तश्रृंग ग्लेशियर इस सरोवर के जल स्रोत हैं। यहां से निकलने वाली एक जलधारा घांघरिया में पुष्पावती नदी में मिलती है। इसके बाद यह नदी लक्ष्मण गंगा कहलाती है।
सरोवर का धार्मिक पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों के साथ ही सिखों धर्म ग्रन्थों में भी इस सरोवर का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस सरोवर को सिखों के दसवें गुरु, गोविन्द सिंह का सरोवर कहा जाता है। मान्यता है कि कि गुरु गोविन्द सिंह ने सरोवर के तट पर पूर्व जन्म में कई सालों तक तपस्या की थी। इसका वर्णन पवित्र ग्रन्थ, दशम् ग्रन्थ साहिब में है।
इसके अलावा गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित बचित्तर नाटक पुस्तक में भी यहां का उल्लेख मिलता है। यह गुरु गोविन्द सिंह की जीवनी है, जो काव्य रूप में है। इसमें वर्णन है कि गुरु गोविंद सिंह ने यहां अपने पूर्व जन्म में तपस्या की थी और दूसरे जन्म में उन्होंने गुरु तेग बहादुर एवं माता गुजरी के यहां जन्म लिया। हालांकि, वर्षों तक यहां के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी।
सरदार सोहन और मोहन सिंह सबसे पहले पहुंचे
सन् 1864 में तारा सिंह नरोत्तम ने गुरु तीर्थ संग्रह में इस स्थान के बारे में लिखा। सन् 1930 में भारतीय सेना से सेवनिवृत्त ग्रंथि हवलदार संत सोहन सिंह ने इस स्थान के बारे में जानकारी जुटाई। फिर उन्होंने एक अन्य सैनिक हवलदार मोहन सिंह को साथ लिया और पहुंचे। उन्होंने गुरुद्वारे की नींव रखी। संत सोहन सिंह की मृत्यु 1937 में हो गई। वे अपनी मृत्यु तक यही रहे। उस समय यहां के स्थानीय गाइड नंदा सिंह चौहान ने दोनों का मार्गदर्शन और सहयोग किया।
वर्ष 1951 यहां सर्वप्रथम गुरु ग्रंथ साहब का प्रथम अखंड पाठ किया गया। भारतीय सेना के मेजर जनरल हरकीरत सिंह ने इस स्थान की यात्रा की और आधुनिक पेंटागन गुरुद्वारे का डिजाइन बनवाया। इस गुरुद्वारे का निर्माण 1960 के मध्य में सरोवर की तट पर शुरू हुआ जो वर्तमान में भव्य गुरुद्वारे के रूप में है।
हेमकुंड साहिब के कपाट प्रतिवर्ष 25 मई को श्रद्धालुओं के लिए खुलते हैं और 5 अक्तूबर को बंद कर दिए जाते हैं। पूर्व में कपाट 1 जून को खुलते थे, लेकिन अब तिथि में परिवर्तन कर दिया गया है। इस गुरुद्वारे का संचालन एवं प्रबंधन हेमकुंड साहिब ट्रस्ट कानपुर द्वारा किया जाता है।
लोकपाल तीर्थ एवं लक्ष्मण सिद्ध मन्दिर
हेमकुंड में गुरुद्वारा और लक्ष्मण मंदिर आसपास ही हैं। इसलिए दोनों धर्मों के धर्माबलम्बी दोनों स्थलों में जाकर अपनी आस्था जताते हैं। स्कन्द पुराण में लोकपाल तीर्थ एवं दंड पुष्करणी तीर्थ का वर्णन किया गया है। माना जाता है कि इस तीर्थ को सतयुग में भगवान नारायण द्वारा स्थापित किया गया। भगवान नारायण ने ही दण्ड पुष्करणी अर्थात् हेमकुण्ड सरोवर का निर्माण किया था। उन्होंने शैल दण्ड से एक पर्वत को तोड़कर कुण्ड का निर्माण किया। यही पुष्करणी के नाम से विख्यात हुआ। इस तीर्थ की पवित्रता के बारे में वर्णन है कि स्वयं भगवान बदरीनाथजी द्वादशी पूर्णिमा के दिन यहां आकर स्नान करते हैं। त्रेता युग में भगवान राम के अनुज लक्ष्मण ने रावण के वध के कारण ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति के लिए भगवान नारायण के सान्निध्य में तपस्या की।
कैसे पहुंचे हेमकुंड साहिब
हरिद्वार, देहरादून एवं ऋषिकेश तक रेलवे या फिर वायु तथा सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। इसके आगे गोविंद घाट तक सड़क मार्ग से पहुंचा जाता है।
गोविंदघाट से पुलना गांव 3 किलोमीटर स्थानीय सैटेलाइट सेवा या स्वयं के वाहन से यात्री जा सकते हैं। पुलना गांव से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है घांघरिया, जो हेमकुंड साहिब का मुख्य आधार स्थल है। यात्री यहां रात्रि विश्राम करते हैं। इसके अगले दिन यहां से हेमकुंड साहिब की ओर प्रस्थान करते हैं।
घांघरिया से हेमकुंड साहिब की कुल दूरी 6 किलोमीटर है। अत्यधिक चढ़ाई और ऊंचाई पर होने के चलते यात्री यहां कुछ समय के लिए ही रुकते हैं। इस के बाद वापस घांघरिया रात्रि विश्राम के लिए आते हैं।