जर्मनी में दक्षिणपंथियों के निशाने पर आप्रवासी
जर्मनी में आगामी संसदीय चुनावों में धुर दक्षिणपंथी पार्टी 'एएफडी' के समर्थन में तेजी से वृद्धि हो रही है, खासकर आप्रवासन विरोधी मुद्दे के कारण। 23 फरवरी को होने वाले इस चुनाव में पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता और आप्रवासन नीति पर चर्चा केंद्रीय बिंदु बन चुकी है।
पुष्परंजन
धुर दक्षिणपंथी, अल्टरनेटिव फ्यूर डाएचलांड (एएफडी) का डंका जर्मन चुनाव में बज रहा है। संसदीय चुनाव 23 फरवरी, 2025 को है। जर्मन संसद ‘बुंडेस्टाग’ के 630 सदस्यों के लिए संघीय चुनाव, 28 सितंबर, 2024 को निर्धारित था, जो गठबंधन के टूटने के कारण आगे बढ़ा दिया गया। 12 साल पहले, 6 फ़रवरी, 2013 को अल्टरनेटिव फ्यूर डाएचलांड (एएफडी) की बुनियाद रखी गई थी। जर्मनी की सबसे नई-नवेली पार्टी, पुरानी पार्टियों की लकीर छोटी कर देगी, ऐसा देखकर कछुए और खरगोश की चाल समझने वाले चुनावी पंडितों को भी हैरानी हो रही है। क्या उसकी वजह आप्रवासन विरोधी वह माहौल है, जिसे बनाने में ‘एएफडी’ को कामयाबी हासिल हो रही है?
‘एएफडी’ ने 2014 में जर्मनी में यूरोपीय संसद में प्रतिनिधित्व के वास्ते चुनाव में यूरोपीय कंजर्वेटिव और रिफॉर्मिस्ट (ईसीआर) के सदस्य के रूप में सात सीटें जीतीं। अक्तूबर, 2017 तक 16 जर्मन राज्य संसदों (विधानसभाओं) में से 14 में प्रतिनिधित्व हासिल करने के बाद, ‘एएफडी’ ने 2017 के जर्मन संघीय चुनाव में 94 सीटें जीती, और देश में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। या यों कहें, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भी बन गई। यह पार्टी जर्मनी के पूर्वी क्षेत्रों में सबसे मजबूत है, विशेष रूप से सैक्सनी और थुरिंगिया के राज्यों में। ये वो इलाके हैं, जहां आप्रवासन को नापसंद किया जाता है, और यहां के ज्यादातर लोग बाहर से आकर बसने वालों का विरोध करते हैं। ख़ुसूसन, मुस्लिम समुदाय के लोग इनके निशाने पर होते हैं।
सितंबर, 2012 में, अलेक्जेंडर गौलैंड, बर्नड लक, और पत्रकार कोनराड एडम ने यूरोज़ोन संकट से संबंधित जर्मन संघीय नीतियों का विरोध करने, और ग़रीबी में ग़र्क़ होते जा रहे दक्षिणी यूरोपीय देशों के लिए जर्मन समर्थित बेलआउट का सामना करने के लिए राजनीतिक समूह, ‘इलेक्टोरल अल्टरनेटिव’ की स्थापना की थी। उनके घोषणापत्र का कई अर्थशास्त्रियों, पत्रकारों, व व्यापार जगत के नेताओं ने समर्थन किया, और कहा कि ‘यूरोज़ोन’, एक मुद्रा क्षेत्र के रूप में ‘अनुपयुक्त’ साबित हुआ है। यानी, ये लोग पुरानी जर्मन करेंसी, ‘डायच मार्क’ की वापसी चाहते हैं। ‘मार्क’, 1948 से लेकर 2002 तक जर्मनी में चलन में थी।
दिसंबर में एक सऊदी व्यक्ति द्वारा पूर्वी जर्मन शहर, मैगडेबर्ग के क्रिसमस मार्केट में कार घुसाने के दौरान कई लोग मारे गए। धुर दक्षिणपंथियों ने इसे मुद्दा बना लिया। लोग इस घटना को लेकर बाहरी लोगों को कोस रहे थे। एक 13 वर्षीय सीरियाई लड़का शहर के दूसरी तरफ़ एक लिफ्ट में था, जब एक वयस्क पड़ोसी ने उसका गला पकड़ लिया और बोला, ‘यह हमला तुम जैसे लोगों की वजह से हुआ।’ वह बालक शरणार्थी के रूप में जर्मनी आया था।
इस घटना के प्रकारांतर 22 जनवरी, 2025 को बावेरियन शहर अस्चाफेनबर्ग के एक पार्क में बच्चों को निशाना बनाकर चाकू से हमला करके दो लोगों की हत्या करने के संदिग्ध एक अफ़गान शरणार्थी की गिरफ़्तारी ने आप्रवासन नीति को और भी सख़्त करने की मांग की है। इन दोनों घटनाओं ने जर्मनी के 23 फ़रवरी को होने वाले राष्ट्रीय चुनाव प्रचार अभियान में बारूद भर दिया है। शीर्ष राजनेताओं को देश में प्रवेश करने वाले शरणार्थियों की संख्या में भारी कमी लाने की कसम खाने के लिए बाध्य कर दिया।
एएफडी, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ जैसा माहौल बना चुकी है। चुनांचे, एएफडी के चरमपंथी होने का संदेह व्यक्त किया जाने लगा है। गृह मंत्रालय ने इसकी जांच जर्मनी की घरेलू खुफिया एजेंसी के हवाले कर दी है। लेकिन, अब तो चुनाव सामने है। ये चरमपंथी साबित हो भी गए, तो सत्ता छोड़ेंगे, इसमें शक ही है। पहले के सर्वेक्षणों में एएफडी को 20 फीसद से ज्यादा लोगों का समर्थन मिलता दिख रहा था, मगर अब यह बढ़कर 27 प्रतिशत हो गया है।
लाइपजिष यूनिवर्सिटी द्वारा कराए सर्वे के नतीजे बुधवार को जारी हुए। इसमें पाया गया, कि एएफडी का समर्थन करने वालों में 70.6 फीसद लोग पुरुष हैं। किसी भी जर्मन पार्टी के लिहाज से यह अनुपात सबसे अधिक है। पुरुषों का समर्थन दूसरे नंबर पर कारोबार समर्थक फ्री डेमोक्रैटिक पार्टी और वामपंथी द लिंके को भी हासिल है। इन दोनों के समर्थकों में 62 फीसदी पुरुष हैं। अर्थात, इस बार के जर्मन चुनाव में महिलाओं की दिलचस्पी घटी है। लेकिन, ग्रीन पार्टी अपवाद बनी है, जिसका समर्थन करने वालों में ज्यादातर महिलाएं हैं। लाइपजिष यूनिवर्सिटी द्वारा किये सर्वे के मुताबिक, ग्रीन पार्टी को सिर्फ 33.6 फीसदी पुरुषों का ही समर्थन हासिल है। बाकी का हिस्सा महिलाओं का है।
एक बात तो है, जर्मनी के संसदीय चुनाव में आप्रवासियों का मुद्दा सिर चढ़कर बोल रहा है। आप्रवासन के सवाल पर ढिलाई बरतने का आरोप लगाकर प्रमुख विपक्षी दल सीडीयू/सीएसयू और साथ ही एएफडी ने अपनी ज़मीन उर्वर की है। चुनाव जैसे-जैसे पास आया, पार्टियों का रुख इस मामले में और ज्यादा सख्त होता गया। इससे ‘एएफडी’ का ग्राफ काफी तेज़ी से ऊपर गया है।
कई भारतीय सोच रहे होंगे, इससे हमें क्या लेना-देना है? बिलकुल है लेना-देना। ट्रम्प ने जिस तरह से भारतीयों को अवैध घोषित कर भगाना शुरू किया है, उससे नस्लवादियों, और ख़ासकर जर्मन दक्षिणपंथियों का मनोबल ऊंचा हुआ है। भारत में जर्मनी के राजदूत फिलिप एकरमन्न ने 11 जनवरी को पुणे के एक कार्यक्रम में कहा था, कि जर्मनी अवैध प्रवास को कम करने की कोशिश कर रहा है, साथ ही अपनी बहुत उदार आव्रजन नीति की रक्षा भी कर रहा है। जर्मन राजदूत ने कहा, ‘आपको कल्पना करनी होगी कि जर्मन आबादी के 30 प्रतिशत लोगों के एक गैर-जर्मन माता या पिता हैं।
भारत बहुत पहले एक समझौते के ज़रिये इस बात के लिए बाध्य हो चुका है, कि जिन्हें जर्मन सरकार अवैध भारतीय प्रवासी घोषित करती है, उसे तत्काल वापस लेना होगा। पांच दिसंबर, 2022 को ‘जर्मन-भारतीय प्रवासन और गतिशीलता समझौते’ पर संघीय विदेश मंत्री एनालेना बारबॉक की भारत यात्रा के दौरान हस्ताक्षर किए गए थे। इस तरह के समझौते का दबाव मनमोहन सिंह के कालखंड में भी डाला गया था, जिसे तब टाल दिया गया। वर्तमान में दो लाख 60 हज़ार से अधिक भारतीय नागरिक जर्मनी में रह रहे हैं, जिनमें से अधिकांश के पास नियमित निवास परमिट है। इसके अलावा, 34,000 भारतीय जर्मनी में अध्ययन कर रहे हैं, जो विदेशी छात्रों का दूसरा सबसे बड़ा समूह है। इस समय 5,000 से अधिक भारतीय नागरिक जर्मनी में अवैध रूप से रह रहे हैं। ट्रंप प्रशासन की हालिया कार्रवाई देखकर, उनकी सांसें थमी हुई हैं। संधि के मुताबिक, भारत सरकार किसी भी सूरत में इनकी मदद नहीं करने वाली, यह तो स्पष्ट है!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।