जड़ों से उखड़े लोगों को फिर से बसाने की चुनौती
सुरेश सेठ
पिछले दिनों ऑपरेशन सिंदूर ने पहलगाम आतंकी की विधवाओं और आतंकवाद से लड़ते शहीद हुए जवानों की विधवाओं का दर्द कम करने और अनाथ हुए बच्चों को संबल देने की कोशिश की। सत्ता से जुड़ी आवाजें दावा करती हैं कि प्रतिकार हो गया, आतताइयों को सबक सिखा दिया गया। लेकिन उन लोगों के दर्द का क्या, जो सरहद के गांवों से विस्थापित होकर अपने घर-बार समेट कर अनजाने ठिकानों की ओर चल पड़े?
पंजाब की सीमाओं पर तो ऐसे खेत भी हैं जो आधे हिस्से में सरहद के पार चले जाते हैं। कहीं फसलें समय से पहले काट ली गईं, और जहां नहीं काटी जा सकीं, वहां न केवल फसलें तबाह हुईं, जिससे किसानों की मेहनत भी मिट्टी में मिल गई। उखड़ना और फिर से बसना—शायद यही इन लोगों की नियति बन गई है।
युद्धविराम के बाद कुछ सरहदी गांवों के लोग जब लौटे, तो उन्हें तबाही का मंजर देखना पड़ा। इस हिंसा के साथ एक और डरावना पहलू भी जुड़ा था—आतंकी और माफिया गिरोहों की हिंसा, जिन्होंने सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी गैर-कानूनी गतिविधियों का जाल फैला रखा है। ये लोग दिनदहाड़े लूटमार करते हैं और लोगों को उनके अपने घरों में ही पराया बना देते हैं। बाढ़, तूफान और हिंसक घटनाएं आम लोगों के जीवन का कटु सत्य बन चुकी हैं। कुल मिलाकर, जो लोग दुर्भाग्यवश अपनी जड़ों से उखड़ गए हैं, उनकी संख्या लाखों तक पहुंच चुकी है। ये विस्थापन न केवल युद्ध और आतंकवाद के कारण हुआ, बल्कि जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और भूमि-क्षरण जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने भी इस त्रासदी को बढ़ाया।
किसान सिर्फ शांति का इंतजार नहीं करता; वह अपनी फसल के लिए समय पर पानी और कटाई के समय साफ माैसम की आशा करता है। लेकिन हालात उलटे हो गए—जहां शांति चाहिए थी, वहां हिंसा मिली; जब पानी की जरूरत थी, तब सूखा पड़ा, और मौसम साफ के समय इतनी मूसलाधार बारिश हुई कि बादल फटने लगे। उधर मणिपुर में भी एक छद्म युद्ध आतंकियों द्वारा जातिगत आरक्षण के मुद्दे को लेकर लड़ा जा रहा है। आगजनी और हिंसा के चलते वर्ष 2024 में मणिपुर से हजारों लोग विस्थापित हुए।
जिनेवा स्थित मॉनिटरिंग सेंटर के अनुसार, केवल असम में ही पिछले एक दशक में आई भीषण बाढ़ों के कारण 25 लाख लोग आंतरिक विस्थापन का शिकार हुए हैं। इसी तरह, देशभर में आए भीषण चक्रवातों ने 16 लाख से अधिक लोगों को उजाड़ दिया। बंगाल की खाड़ी में अक्तूबर 2024 के अंत में आए चक्रवात ‘दाना’ ने 10 लाख से अधिक लोगों को विस्थापित कर दिया। त्रिपुरा का भी यही हाल रहा है। पिछले 40 वर्षों में प्रतिकूल मौसम की वजह से वहां 3.15 लाख लोग अपने घरों से उजड़ चुके हैं।
पश्चिम बंगाल में आए चक्रवात ‘रेमल’ ने 2 लाख 8 हजार लोगों को उनके घर-द्वार छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। इसके साथ ही ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के उफान के कारण लगभग 3 लाख 38 हजार लोग विस्थापित हुए हैं। निस्संदेह, ऑपरेशन सिंदूर सफल रहा, लेकिन इस कार्रवाई से सीमा पर बसे लोगों से लेकर दूर-दराज़ के क्षेत्रों तक की जिंदगियां अव्यवस्थित हो गईं। लोग फिर से अपनी जड़ों से उखड़ने को मजबूर हो गए। जंग, आखिर जंग होती है।
आज जब हम सामान्य जीवन की ओर लौटने की कोशिश कर रहे हैं, यह सोचना जरूरी है—क्या इन उखड़े हुए लोगों को फिर से उनकी जड़ें मिलेंगी? क्या उनके वे सपने, जो बारूद की गंध में घुलकर टूट गए या बिखर गए, दोबारा संवर पाएंगे? जिन नौजवानों की आंखों से भविष्य की चमक धुंधला गई है, उसका समाधान कैसे होगा? स्पष्ट है कि न युद्ध से, न प्रदूषणजनित अव्यवस्था से और न ही प्राकृतिक आपदाओं से मानवीय संकट को दूर करने के गंभीर प्रयास हो रहे हैं। इस दिशा में सत्ता की संवेदनशीलता अपरिहार्य है।
इस संसार के नीति-नियंताओं को यह सोचना होगा कि आम लोगों की ज़िंदगी में फिर से सपनों में रंग कैसे भरे जाएं। उन युवाओं के लिए उम्मीद की कोई बुनियाद रखनी होगी, जो गांवों से शहर और शहरों से फिर गांव लौटने को मजबूर हैं, जो परदेस में ज़िंदगी की तलाश में जाते हैं और वहां उन्हें अपराधियों की तरह बेड़ियों में वापस भेज दिया जाता है। अब जरूरी है कि उनके लिए ‘सपनों की बागवानी’ की जाए। यह बागवानी भी उन्हीं हाथों से होनी चाहिए, जिन्होंने औरतों के खोए हुए सिंदूर के प्रतिकार स्वरूप आतंकवाद पर प्रहार किया था।
खंडित सपनों को पूरा करने के लिये नई मंज़िलों का निर्माण हो—ऐसी मंज़िल जिसमें साधारण व्यक्ति को भी वही स्थान मिले, जो सदियों से सत्ता और वर्चस्व के अभ्यस्त लोगों को मिलता आया है।
लेखक साहित्यकार हैं।