जंजाल की जेलें
दरअसल, जेल बनाने का मूल मकसद देशकाल, परिस्थिति, भावनात्मक उद्वेग या आपराधिक मनोवृत्ति से अपराध की दुनिया में कदम रखने वाले लोगों में सुधार लाना ही रहा है। जिससे भटके हुए लोग समाज की मुख्यधारा से अलग रहकर आत्ममंथन कर सकें। सजा का मकसद दंड के बजाय सुधार रहा है। लेकिन भारतीय जेलें जिस हाल में हैं, उससे यह मकसद पूरा होता नजर नहीं आता। निस्संदेह, देश में जेलें संकटग्रस्त हैं। ये सभ्य नागरिकों की राह से भटके लोगों को भेड़-बकरियों की तरह भरने वाले स्थानों जैसी हैं। इस बाबत इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 कमोबेश इन्हीं स्थितियों का खुलासा करती है। वर्ष 2022 तक 4.36 लाख कैदियों के रहने हेतु बनायी गई जेलों में 5.73 लाख कैदी बंद थे। जो निर्धारित से 131 फीसदी अधिक है। अनुमान है कि वर्ष 2030 तक जेलों में कैदियों की संख्या 6.6 लाख तक पहुंच सकती है। जो निर्धारित 5.15 लाख की अनुमानित क्षमता से कहीं अधिक होगी। निस्संदेह, यह संकट अनुमान से कहीं अधिक गहरा है। निश्चित रूप से इसे कैदियों के मानवाधिकार का आपातकाल कहा जा सकता है। लेकिन संकट सिर्फ भीड़भाड़ का ही नहीं है। विडंबना देखिए कि पूरी जेल आबादी के लिये सिर्फ 25 मनोचिकित्सक ही हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2012 के बाद कैदियों में मानसिक रोग दुगने आंके गए हैं। इनमें ज्यादातर वे कैदी हैं जो विचाराधीन हैं। जिनका अपराध तय नहीं हो पाया है। न्यायिक प्रक्रिया में विलंब की कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है। वहीं दूसरी ओर जेलों में चिकित्सा व्यवस्था का संकट भी उतना ही गहरा है। जेलों में चिकित्सा अधिकारियों के 43 फीसदी पद रिक्त पड़े हैं। यह व्यवस्थागत खामियों की ही तसवीर है कि देश की राजधानी में 206 कैदियों पर एक चिकित्सक नियुक्त है। यही वजह है कि उचित देखभाल के अभाव में जेलों में तमाम कैदी मानसिक व शारीरिक कष्ट झेल रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद इस गंभीर समस्या के समाधान के लिये गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं।
निश्चित रूप से कैदियों के हितों की अनदेखी कोई नई बात नहीं है। देश की शीर्ष अदालत अकसर दीर्घकालीन जेल नियोजन की आवश्यकता पर बल देती रही है। लेकिन शासन-प्रशासन की कार्यवाही या तो धीमी है या फिर इन समस्याओं के प्रति उदासीन रवैया दर्शाया जाता है। जबकि कैदियों के मानवाधिकारों के मद्देनजर इस मामले में संवेदनशील रवैया अपनाया जाना चाहिए। इस समस्या का सबसे बड़ा संकट कर्मचारियों की भारी कमी भी है। विडंबना यह है कि कुछ क्षेत्रों में तो सुधारात्मक कार्यों के लिये स्वीकृत पदों पर रिक्तियां साठ फीसदी तक पहुंच गई हैं। उदाहरण के लिये दिल्ली की जेलें 250 फीसदी से अधिक क्षमता के साथ संचालित की जा रही हैं। एक विसंगति यह भी है कि इन जेलों में वंचित समाज और हाशिये पर गए वर्गों के लोगों की संख्या अधिक है। जो न्याय प्रणाली में गहराई तक जड़ जमा चुकी असमानता को ही दर्शाती है। वहीं दूसरी ओर इस संकट से निबटने के लिये जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी नजर आती है। जैसा कि शीर्ष अदालत बार-बार विचाराधीन कैदियों के मुद्दे को प्राथमिकता के आधार पर संबोधित करने के निर्देश देती है, उस पर गंभीरता से अमल करने की जरूरत है। यदि फास्ट-ट्रैक कोर्ट और वैकल्पिक विवाद समाधान से विचाराधीन कैदियों की संख्या को कम कर दिया जाए, तो जेल व्यवस्था में बड़ा सुधार लाया जा सकता है। देश की जेलों में कैदियों की बढ़ती संख्या के अनुरूप बुनियादी ढांचे में तत्काल निवेश करने की जरूरत है। समाज के वंचित वर्गों के लिये सहज कानूनी सहायता उपलब्ध कराने की दिशा में भी कदम उठाने की आवश्यकता है। जेलों को लंबे समय तक सजा देने की जगह नहीं बनाया जाना चाहिए। जेल को सुधार का केंद्र बना रहना देना चाहिए। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वहां कैदियों के साथ कितना सम्मानजनक व्यवहार किया जाता है। उनकी देखभाल के प्रति कितना संवेदनशील रवैया अपनाया जाता है। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम उन पर कोई उपकार नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि यह उनका संवैधानिक अधिकार है।