जंग खत्म हो फिर भी वर्षों रोती है ज़िंदगी
दरअसल तो लड़ाई में कोई हारे-जीते, इसका सबसे बड़ा प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है, जिनके परिवार के सदस्य इसमें मारे जाते हैं। जिन माता-पिताओं के जवान बच्चे युद्ध में मारे जाते हैं, वे माता-पिता, पत्नी, बच्चे परिजन जीवन भर इस दुःख को भोगने के लिए अभिशप्त रहते हैं।
क्षमा शर्मा
टीवी स्क्रीन या मोबाइल स्क्रीन पर युद्ध कितना रोमांचक लगता है। ये मारा और वो मारा कहते हुए हम कितने खुश होते हैं। हमारे लिए जैसे युद्ध भी कोई वीडियो या मोबाइल गेम है। चैनल्स को लें तो वह टीआरपी बढ़ाने वाला और पैसा कमाने का साधन भी है। सुना गया था कि इस दौरान चैनल्स ने अपने यहां चलाए जाने वाले विज्ञापनों के दाम में भारी बढ़ोतरी की थी।
वर्ष 1965, 1971, 1999 और अब 2025 के युद्धों में आखिर हमें क्या मिला। सिवाय कोरे आश्वासनों के। इंदिरा जी को लोग इन दिनों बहुत याद कर रहे हैं। लेकिन 1971 में उन्हें भी तिरानवे हजार सैनिकों को वापस करना पड़ा था। आखिर इन सैनिकों को अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार ही सुविधाएं देनी पड़ती हैं। इन युद्धों में जो लोग मारे गए थे, जिनके बारे में कहा गया था कि जब तक सूरज-चांद रहेगा, तब तक तेरा नाम रहेगा। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले आदि बातें हमें कितने दिन याद रहीं। क्या चार-छह सैनिकों के नाम भी हमें याद हैं।
दरअसल तो लड़ाई में कोई हारे-जीते, इसका सबसे बड़ा प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है, जिनके परिवार के सदस्य इसमें मारे जाते हैं। जिन माता-पिताओं के जवान बच्चे युद्ध में मारे जाते हैं, वे माता-पिता, पत्नी, बच्चे परिजन जीवन भर इस दुःख को भोगने के लिए अभिशप्त रहते हैं। वह सैनिक हेमराज तो याद ही होगा जिसका सिर पाकिस्तान द्वारा काट लिया गया था। उस समय लोगों ने उसकी पत्नी के प्रति बहुत सहानुभूति प्रकट की थी। लेकिन बाद में पता चला था कि वह महिला वर्षों तक मुआवजे के लिए दर-दर भटकती रही थी। ऐसा ही न जाने कितने परिवारों के साथ होता होगा। न जाने कितने लोग मरते हैं और न जाने कितने बुरी तरह से घायल होते हैं।
औरतें और बच्चे आज से ही नहीं, हमेशा से युद्धों का सबसे बुरा शिकार होते रहे हैं। आक्रांता जब आते थे, तो या तो महिलाओं को साथ उठा ले जाते थे, या उनके साथ बलात्कार करके उन्हें मार दिया जाता था। बच्चों की हत्या कर दी जाती थी, क्योंकि जिन पर आक्रमण करने आए हैं उनका समूल नाश करना होता था। औरतें शायद ही किसी पर युद्ध थोपती हैं, मगर उन पर हमेशा युद्ध थोप दिया जाता है। चार दिन की इस लड़ाई में कहा जा रहा है कि इसमें दो सौ के करीब लोग मारे गए हैं। जिनमें सैनिक तो हैं ही, आम नागरिक और बच्चे भी शामिल हैं। इन नागरिकों ने, बच्चों ने यहां तक कि सैनिकों ने किसी लड़ाई को दावत नहीं दी थी। कुछ दिन पहले एक वीडियो देख रही थी, जिसमें एक पत्नी दो दिन पहले हुई शादी के बाद, पति को मोर्चे पर भेजने से पहले कह रही थी-अपना सिंदूर भेज रही हूं। उसके चेहरे पर छाई उदासी और शून्य में देखती आंखें बहुत कुछ कह रही थीं।
हकीकत फिल्म जो चीन के साथ युद्ध पर बनी थी उसका गाना याद आता है—‘हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा।’ यह गाना ऐसा है कि सुनते-सुनते रोना आ जाता है। इसे युद्ध के वक्त बर्फ में फंसे सैनिक गा रहे हैं और अपनी-अपनी पत्नियों के बारे में सोच रहे हैं। इसके विभिन्न शाट्स में उन सैनिकों की पत्नियों के हालात का वर्णन था। देवानंद, साधना द्वारा अभिनीत फिल्म हम दोनों का बड़ा हिस्सा भी इसी थीम पर है। जहां पति युद्ध में एक पांव गंवाकर आता है। उसे भरोसा नहीं है कि पत्नी उसे अपना लेगी। चार दिन चली इस लड़ाई में राजस्थान की सत्ताईस साल की किरण शेखावत युद्ध के मैदान में पहली शहीद होने वाली महिला सैन्य अधिकारी हैं। इसका खून से लथपथ शरीर देखकर रोंगटे खड़े हो गए थे। मदर्स डे पर उस महिला के बारे में भी छपा है, जिसने पति की मृत्यु के वक्त अपने बेटे को तमाम तरह के कष्ट झेलकर पाला। वह भी इस युद्ध में मारा गया। अब वह नितांत अकेली है। 1999 की करगिल लड़ाई के वक्त शहीद अनुज नैय्यर के पिता का बयान ऐसा था कि उसने हिला दिया था। उन्होंने कहा था कि लड़ाइयों में कोई नेता नहीं मारा जाता। इसी लड़ाई में एक और महिला हेमलता का बेटा मारा गया था। उन्हें बदले में सरकार ने पेट्रोल पंप देना चाहा था। लेकिन उन्होंने उसे लेने से साफ मना कर दिया था।
यहां एक आपबीती भी शामिल करना चाहती हूं। सगे मामा की लड़की के पति को विवाह के मात्र पांच महीने बाद ही कश्मीर में आतंकवादियों ने मार दिया था। वह लड़का भी सैन्य अधिकारी था। उसके पिता भी वरिष्ठ सैन्य अधिकारी रहे थे। कुछ दिन बाद इस लड़की के पिता की मृत्यु भी हो गई थी। इस लड़की ने कितनी मुश्किलों से अपने बच्चे को पाला, यह वह जानती है या उसके परिजन। उसके परिजन चाहते थे कि वह दोबारा विवाह कर ले। लेकिन उसने कहा, मेरे बच्चे का पिता तो पहले ही नहीं है। मैं शादी कर लूं, तो बच्चे की मां भी नहीं रहेगी। आज पांचवें दशक में भी उसका जीवन अनंत दुखों की गाथा है। ऐसी ही लाखों, करोड़ों स्त्रियां न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर में मौजूद हैं।
हम शहादत पर सहानुभूति दिखा सकते हैं। सरकारें मुआवजा दे सकती हैं। पत्नियों को नौकरी मिल सकती है। लेकिन जाने वाला जो खालीपन छोड़ जाता है, वह भी युवावस्था में, उसे भरना मुश्किल होता है।
जावेद अख्तर ने बार्डर फिल्म में एक गीत लिखा था। जिसकी पंक्तियां थीं—जंग तो रोज होती है, जिंदगी बरसों तलक रोती है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।