चोरी
चोरी का बदला चोरी नहीं है। सतीश चोरी करे या न करे, आप नहीं कर सकते। मैं भूखे पेट रह लूंगी, पर मेरा पति चोरी करे यह मुझे बर्दाश्त नहीं। सुषमा की आवाज और भाग-भंगिमा में ऐसा कुछ था, इतना तेज और तीक्ष्णता और गंभीरता थी कि सौरभ सकपका गया। उससे कोई जवाब देते न बना। अंत में यही तय हुआ कि दोनों सतीश के घर जाएंगे, माफी मांगेंगे कि गलती से फोन को जांचते-देखते हुए उन्होंने भूलवश रख लिया था और लौटा कर वापस आ जाएंगे।
भारत डोगरा
सौरभ की नींद तो खुल गई थी, पर वह उठने के मूड में कतई नहीं था। आज सोमवार था, उसका ‘ऑफ’ और भरपूर आराम फरमाने की इच्छा थी। बस इस तरह बेफिक्र पड़े रहो और कुछ अच्छी-अच्छी बातें सोचो।
इन दिनों सौरभ को यह सोचने से बहुत सुख मिलता था कि पिछले कुछ महीनों में घर-परिवार की हालत कितनी तेजी से सुधर गई है।
दो महीने पहले तो बस बेरोजगारी थी और उससे जुड़े ढेरों तनाव। फैक्टरी बंद होने के बाद के दो महीने तो किसी तरह कट गए थे, पर इसके बाद तो दो वक्त रोटी तक का जुगाड़ नहीं हो पा रहा था। यह तो कहो कि सुषमा बहुत सहनशील महिला है और उसमें हिम्मत भी गजब है, तभी किसी तरह वह कठिन वक्त कट सका। उस दिन वह खुद लज्जित था कि शादी के कुछ महीनों बाद सुषमा को इतनी मुश्किलें सहनी पड़ी। उसने जिक्र किया भी पर इस कठिन समय में सुषमा मायके नहीं गई, उसके साथ ही बनी रही, दिलासा देती रही।
और फिर दो महीने पहले अचानक ही यह ऑफर मिला होम डिलीवरी का। कंपनी का सामान भी हल्का-फुल्का था, फैंसी ज्यूलरी आदि, अतः भारी पैकेट लादने की भी जरूरत नहीं थी। बस एक हल्के से बैकपैक में सब सामान आ जाता था। कुल बीस आइटम थे। कुछ अग्रिम स्टॉक घर पर ही रखवा दिया गया था। बस सुबह उठकर स्मार्टफोन पर मैसेज और पते देखो, सामान भरो और बाइक पर निकल जाओ। हर डिलीवरी के साथ-साथ हैड ऑफिस को बताते रहो। शाम तक लौट आओ। कमीशन पक्का।
सौरभ ऐसे कामों में स्मार्ट था ही। बोलचाल में अच्छा, भाग-दौड़ में चुस्त। जहां दूसरे 10 से 15 हजार कमाते, उसने पहले महीने में ही 20 हजार की कमाई कर ली। दूसरा महीना इससे भी अच्छा रहा। अब सुषमा के चेहरे पर भी नया उत्साह था। शाम को वह लौटता तो दोनों बैठकर उजले भविष्य की रंगीन योजनाएं बनाते।
इन दो महीनों में जिंदगी में जो उम्मीद आई थी, उस उम्मीद को सुषमा ने जिस तरह उजला किया था, इस बारे में सौरभ देर तक सोचकर प्रसन्न होता रहा। सोचते-सोचते अनायास ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती थी।
‘ओ... हो... नींद से जागने के बाद भी महाशय कोई सपना देख रहे हैं।’ उसे मुस्कुराता देख सुषमा भी हंसने लगी।
झेंप कर सौरभ उठ बैठा और कहा, ‘तुम भी कुछ और आराम कर लो सुषमा।’
‘अरे तुम्हें डिलीवरी नहीं करनी तो क्या मुझे तो गृहस्थी चलानी है। अब चाय की डिलीवरी मुझसे प्राप्त करो और नहा-धो लो।’
नहा-धोकर, नाश्ता कर सुषमा और सौरभ बड़े आराम से बातचीत के लिए बैठ गए। उन्होंने पहले से सोच रखा था कि आज छुट्टी के दिन विस्तार से बात करेंगे कि घर की क्या-क्या चीज नई लानी है। सुषमा की सूची में पहले से लिखा था— पर्दे, और दो मेजपोश। फिर पैसे बचे तो एक चादर भी। उसने हिसाब लगाया कि बनिये का कर्ज देने के बाद भी शायद इतनी बचत हो जाएगी।
सौरभ ने कहा, ‘अपनी सूची में तुम एक साड़ी भी रख लो।’
‘नहीं’ सुषमा ने कहा, ‘अभी इतनी गुंजाइश नहीं। परदे वगैरह हो जाएं तो घर ठीक लगने लगेगा। कर्ज चुकाना तो सबसे जरूरी है। इस महीने अपने कपड़े रहने देते हैं। अगले महीने सब ठीक चला तो पहले तुम्हारी दो शर्ट फिर मेरी एक साड़ी।’
‘देखो इस महीने कमीशन कितना आता है। 20 से ज्यादा मिले तो साड़ी इसी महीने ले लेना।’
‘नहीं, इस महीने यह गुंजाइश नहीं है। एक-दो हजार ज्यादा आ भी गया तो बचा कर रखूंगी।’
इतने में दरवाजे की बेल बजी तो सौरभ दरवाजा खोलने गया। दरवाजे पर सतीश को देखकर उसका मूड उखड़ गया।
सतीश उसका पुराना दोस्त था। वह वैसे धनी परिवार से था पर खर्चीली आदतों और शराब की लत के कारण प्रायः उधार मांगता रहता था। सुषमा को उससे बहुत चिढ़ थी।
आज भी सतीश ने उधार की मांग कर दी। अपना बैग खोलकर कुछ पर्चियां दिखाई और कहने लगा कि दवा के लिए पैसे कम पड़ गए हैं, 500 रुपये की सख्त जरूरत है, हफ्ते भर में लौटा दूंगा।
अपना पैर हल्के से सौरभ के पैर पर रखकर सुषमा ने इशारा किया।
सौरभ ने कहा भाई, ‘महीने के आखिरी दिन हैं। पैसे अभी मिले नहीं हैं। फिर भी देखता हूं अगर बटुए में कुछ बचा हो तो...’
सौरभ के साथ सुषमा भी दूसरे कमरे में चली गई है। गुस्से से पर धीमी आवाज में मिली, हमने इसे कुछ नहीं देना...
‘क्या सौ रुपये भी नहीं...’
‘नहीं...’
‘प्लीज सुषमा, पुरानी जान-पहचान है।’
‘अच्छा सौ से एक पैसा ज्यादा नहीं।’
सौरभ सौ रुपये लेकर लौट गया और किसी तरह सतीश को विदा किया।
दोनों का मूड इसके बाद बातचीत में जमा नहीं। सुषमा किचन में चली गई।
थोड़ी ही देर बाद सौरभ घबराया हुआ आया।
‘सुषमा, तुमने मेरा फोन देखा है?’
‘नहीं, टेबल पर तो पड़ा था।’
‘वहीं तो। मैंने टेबल पर, आस-पास, हर जगह देख लिया कहीं नहीं मिल रहा।’
अब सुषमा को भी चिंता हुई। छोटा-सा घर था। दोनों ने हरसंभव स्थान को देख लिया, पर फोन था कि नहीं मिला।
सौरभ ने कहा, ‘एक तरीका है। मैं पड़ोस में जाकर उसी नंबर पर फोन करता हूं। फोन जहां भी होगा, वह बजेगा तो पता लग जाएगा कि कहां है।’
उम्मीद की नई राह नजर आई। सौरभ फोन करने गया व फिर सुषमा चौंकन्नी होकर सुनने लगी।
पर फोन बजने की कोई आवाज आई ही नहीं। सौरभ बहुत उम्मीद लेकर लौटा और आते ही बोला, ‘फोन मिला।’
‘कोई आवाज ही आई नहीं।’
अब दोनों फिर फोन खोजने लगे पर अब बहुत बुझे मन से।
सौरभ निरंतर बुदबुदा रहा था कि स्मार्ट फोन के बिना तो एक दिन भी डिलीवरी नहीं हो सकती। कल छुट्टी के बाद का दिन है, हर हालत मुझे डिलीवरी पर जाना है पर बिना फोन के कैसे जाऊंगा।
सुषमा चुपचाप सुनती रही। उसके मन में एक गहरा शक जन्म ले रहा था कि कहीं सतीश तो फोन नहीं ले गया।
सौरभ भी गुपचुप यही सोच रहा था, और जितना सोच रहा था उतना ही उसका शक यकीन में बदल रहा था।
इतना तो पक्का याद है कि वह सुषमा से बात कर रहा था तो फोन सामने टेबल पर पड़ा था। उसके बाद उसने तो फोन उठाया ही नहीं। घर में केवल सतीश आया था, और कोई नहीं। उसने पर्चियां दिखाने के लिए अपना बैग खोला था तो बंद भी नहीं किया था। सुषमा और सौरभ दोनों कुछ समय से लिए कमरे में चले गए थे। उस समय सतीश कमरे में पांच मिनट के लिए अकेला था।
कुछ देर तो दोनों ने इस शक को मन में ही दबाए रखा, पर कब तक? फिर इस बारे में खुलकर बात हुई तो दोनों को पक्का यकीन हो गया कि सतीश ने ही फोन लिया है, और कोई संभावना नहीं थी।
अब क्या किया जाए?
बहुत सोच-विचार के बाद अंत में यही तय हुआ कि दोनों सतीश के घर जाते हैं। सीधा कोई आरोप तो नहीं लगाएंगे पर टोह लेंगे, फोन खो जाने के बारे में बताएंगे।
दोनों अजीब-सी मनोस्थिति में, अनिश्चय से घिर हुए दस मिनट में सतीश के घर में पहुंच गए।
अच्छा-खासा फ्लैट था। गनीमत थी कि उस समय सतीश घर में अकेला ही था अन्यथा औपचारिकताओं में ही फंस जाते।
बहुत कठिनाई से सौरभ कह पाया, ‘सतीश आज मेरा मोबाइल खो गया है।’
‘ओह...’
‘मेरे डिलीवरी के काम में यह बहुत जरूरी है।‘’
‘ऑफ कोर्स...’
‘आप एक बार चैक कर सकते हैं कि कहीं दवा की पर्चियां बैग में वापस डालते समय गलती से फोन बैग में चला न गया हो?’
‘इसका तो कोई चांस नहीं है सौरभ फिर भी आप बैग देख लें।’
सतीश ने इत्मीनान से बैग खोलकर कई तरह का चिल्लर-पिल्लर सतीश के सामने रख दिया।
अब चाहो तो घर में तलाशी भी ले लो सौरभ, सतीश ने कुटिलता भरी मुस्कराहट से कहा।
अरे नहीं, सतीश कैसी बातें कर रहे हो, वह तो हम परेशान थे, घर में कोना-कोना छान मारा था तो हमने सोचा कि एक बार आप से भी पूछ लें।
बाइक स्टार्ट होते ही पीछे से सुषमा ने कहा, ‘उसके हाव-भाव देखकर तो मेरा शक और पक्का हो गया है।’
सौरभ चुप बाइक चलाता रहा।
पर घर पहुंचकर वह अचानक चहकने लगा। हैरानी से सुषमा ने उसकी ओर देखा तो उसने एक आकर्षक फोन अपनी जेब से निकाल कर दिखाया।
अरे यह किसका फोन है, तुम्हारा तो नहीं है।
हम भी कच्ची गोलियां नहीं खेले हैं। मैं सतीश के घर में वाशरूम गया था तो मौका देखकर दूसरे कमरे में पड़ा यह फोन ऑफ कर मैंने जेब में डाल लिया।
सुषमा के चेहरे पर न खुशी आई, न उल्लास। उसके माथे पर कई बल एक साथ आ गए।
उसने सौरभ से गहरी चिंता के स्वर में बस इतना ही कहा, ‘यह आपने क्या कर दिया!’
सौरभ को उसकी चिंता अच्छी नहीं लगी। उसने कहा, ‘क्या तुम्हें कोई शक है कि सतीश ने फोन नहीं चुराया?’
‘नहीं मुझे कोई शक नहीं है।’
‘तो फिर मौका मिलते ही यह एक फोन उसके घर से उठा लिया तो क्या बुरा किया? अब मैं जाकर इसका सिम बदल दूंगा, और कल से इसका उपयोग करूंगा। काम एक दिन के लिए भी नहीं रुकेगा।’
‘फिर भी यह बहुत अनुचित है। तुम्हें यह फोन सतीश के परिवार को लौटाना होगा।’
‘यह कैसे हो सकता है?’
‘यही होगा।’
‘पर क्यों?’
‘इसलिए कि चोरी का बदला चोरी नहीं है। सतीश चोरी करे या न करे, आप नहीं कर सकते। मैं भूखे पेट रह लूंगी, पर मेरा पति चोरी करे यह मुझे बर्दाश्त नहीं।’
सुषमा की आवाज और भाग-भंगिमा में ऐसा कुछ था, इतना तेज और तीक्ष्णता और गंभीरता थी कि सौरभ सकपका गया। उससे कोई जवाब देते न बना।
अंत में यही तय हुआ कि दोनों सतीश के घर जाएंगे, माफी मांगेंगे कि गलती से फोन को जांचते-देखते हुए उन्होंने भूलवश रख लिया था और लौटा कर वापस आ जाएंगे।
शीघ्र ही दोनों फिर सतीश के घर पर थे। इस समय सतीश बाहर गया हुआ था और अन्य सदस्य लौट आए थे।
इस स्थिति में उनके लिए बात बनाना आसान हो गया। फोन सतीश के छोटे भाई का था। वह बेचैनी से फोन खोज रहा था। उसने सौरभ और सुषमा को बार-बार धन्यवाद दिया कि वे इतनी शीघ्र लौटाने आ गए।
बाइक पर बैठते समय सुषमा ने कहा, ‘पहले पांच मिनट मेरी एक सहेली के घर रुकेंगे।’
सौरभ हैरान हुआ पर उसने सुषमा की बताई दिशा की ओर बाइक बढ़ा दी।
अब तुम बस पांच मिनट इंतजार करो। मैं अभी गई और आई।
सौरभ की हैरानी और बढ़ गई, पर इससे पहले कि वह कुछ और पूछ पाता सुषमा तेजी से एक फ्लैट की ओर बढ़ गई। एक पेड़ के नीचे सौरभ ने बाइक लगाई और इंतजार करने लगा।
सुषमा शीघ्र ही वापस आ गई। अब उसने कहा, ‘प्लीज अभी घर नहीं न्यू मार्किट चलो।’
सौरभ की हैरानी बढ़ती जा रही थी पर साथ ही न्यू मार्किट की ओर उसकी बाइक भी बढ़ती जा रही थी।
पार्किंग स्थान पर बाइक रुकवा कर सुषमा ने कहा, ‘प्लीज 10 मिनट यहां रुको मैं अभी आती हूं।’
अब सौरभ नाराज होकर कुछ कहने लगा था कि सुषमा ने चुप रहने का इशारा करते हुए कहा, ‘बस थोड़ी देर गुड ब्वॉय बनकर यहीं रुके रहना। सवाल-जवाब बाद में।’
सुषमा फिर फुर्ती से यूअर ज्यूलर्स की ओर बढ़ी तो सौरभ और हैरान हो गया।
खैर, कुछ ही देर में सुषमा मुस्कराते हुए लौट आई। उसने चहकते हुए कहा, ‘अब मेरे पर्स में नया मोबाइल खरीदने के लिए 7000 रुपये हैं।
अब तो सौरभ के आश्चर्य की सीमा पार हो गई थी। सुषमा ने तसल्ली से बताया, ‘मेरी सहेली के पति इस ज्यूलर्स में काम करते हैं। मैंने उसकी पत्नी से फोन करवाया कि कानों की बाली ठीक से बिकवा दें। पहले से उन्हें पता था अतः पहुंचते ही काम हो गया व 7000 रुपये में बाली बिक गई। अब इसका तुम अच्छा-सा फोन खरीद लो।’
‘तुमने मुझे पहले से क्यों नहीं बताया?’
‘क्योंकि तुम बाली बेचने से मना करते या अपना दिल खराब करते।’
खैर, मार्किट में खड़े-खड़े ज्यादा बात करने की गुंजाइश नहीं थी। फोन खरीद लिया गया, चिंता दूर हो गई।
फिर सुषमा ने कहा, काम खत्म हुआ तो भूख भी लग आई है। चलो घर चलकर फटाफट कुछ बनाती हूं।
‘नहीं सुषमा, आज मैं तुम्हें यहीं खाना खिलाऊंगा।’
सौरभ ने एक वातानुकूलित दक्षिण भारतीय रेस्तरां की ओर इशारा किया। सुषमा का सबसे प्रिय व्यंजन था मसाला डोसा।
जब रेस्तरां के ठंडे माहौल में दोनांे आराम से खाना खा रहे थे तो सुषमा की खुशी देखते ही बनती थी।
पर सौरभ ने आह भरकर कहा, ‘सब ठीक हो गया सुषि पर तुम्हारे बिना बाली के कान मुझे बहुत सूने से लगेंगे।’
पर सुषमा चहकती ही रही। उसने आवाज धीमी कर कहा, ‘पर चोरी का दाग दूर करने से जो खुशी मिली है, उसके सामने बालियां खोने का दुख कुछ नहीं है।