चाही थी अमृतकाल में अमृत से अमरता
सहीराम
देखिए जनाब यह कोई अमेरिका तो है नहीं कि जब ट्रंप साहब राष्ट्रपति पद पर आसीन होंगे, तभी भगदड़ मचेगी। यह तो कुंभ है। कुंभ में भगदड़ न मचे तो कुंभ यादगार नहीं बनता। नहीं-नहीं सिर्फ जुड़वां भाइयों के बिछुड़ने के लिए या फिर कुंभ में छूटी औरतों और परिजनों के लिए ही कुंभ को याद नहीं किया जाता। कुंभ भगदड़ मचने से होने वाले हादसों के लिए भी याद किया जाता है। अभी मोदीजी उस कुंभ को इसीलिए तो याद कर रहे थे, जिसमें नेहरू ने भी भाग लिया था और जिसमें मची भगदड़ में सैकड़ों लोग स्वर्ग सिधार गए थे। लेकिन यह कुंभ तो उनके भाग लेने से पहले ही हादसों का गवाह बन गया।
वैसे अगर समानता नहीं दिखानी है तो यह कहा जा सकता है कि वह इलाहाबाद का कुंभ था और यह प्रयागराज का कुंभ है। वैसे पिछले दिनों यूपी में एक स्वयंभू बाबा के आयोजन में भी भगदड़ मची थी और न चाहते हुए भी बहुत से लोग स्वर्ग सिधार गए थे। तब लोग उनके पांवों की रज लेने के लिए दौड़े थे। बाबा लोग ऐसे भी मुक्ति दिलाते हैं। ऐसा उत्तर में ही नहीं, दक्षिण में भी होता है। असल में पुण्य प्राप्ति के लिए भी लाइन में लगो, व्यवस्था का पालन करो तो फिर सांसारिकता का मोह छूटा ही कहां।
कुंभ तो इसीलिए होता है कि देवताओं के अमृत कलश से वहां अमृत की कुछ बूंदें छलक गयी थीं। वैसे तो बताते हैं कि प्रयागराज का यह कुंभ एक सौ चवालीस साल बाद बन रहे अनूठे संयोग के वक्त आयोजित हो रहा है। लेकिन संयोग यह भी देखिए कि यह आयोजन देश की आजादी के अमृतकाल में हो रहा है। अमृत से अमृत मिले टाइप से। अभी तक गर्व इस बात पर था कि कुंभ में करोड़ों लोग आ रहे हैं। अंदाजा कोई चालीस करोड़ का था। वैसे तो अस्सी करोड़ का होना चाहिए था। जब मुफ्त का राशन लेने वालों की संख्या अस्सी करोड़ है तो कुंभ का स्नान करने वालों की तादाद भी अस्सी करोड़ से कम क्यों हो। फिर भी चालीस करोड़ लोग आ रहे हैं, यह बताते हुए सरकार गद्गद थी, प्रशासन गद्गद था। सब यही कह रहे थे- आओ-आओ कुंभ में आओ, कुंभ नहाओ। सरकार कुंभ नहा रही थी, प्रशासन कुंभ नहला रहा था।
बताते हैं कि प्रशासन कुंभ नहलाते हुए इतना गद्गद था कि जिस वक्त यह हादसा हुआ उस मौनी अमावस्या के अवसर पर वह लोगों को आवाज दे-देकर जगा रहा था- उठो सोने वालो, कुंभ नहाओ। जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है, सो खोवत है। लेकिन यहां तो जागनेवालों ने ही जीवन खोया।