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चंद्रशेखर आज़ाद

04:00 AM Dec 15, 2024 IST
चंद्रशेखर आज़ाद
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डॉ. पंकज मालवीय
भोर हो चुकी है। देवेंद्र की मां कमर दर्द से कराहते हुए बिस्तर से उठने की कोशिश करती है। नई सुबह की सूर्य-किरण घर के आंगन में पेड़ों की झिलमिलाती पत्तियों से अठखेलियां करती है। अंधेरे का साम्राज्य उजाले के तप से अंतरिक्ष में ही समा जाता है और जिंदगी के अजीबोगरीब बौने, कुकुरमुत्ते और कैक्टस सिर उठाकर नए दिन के आगमन का अभिनंदन करते हैं।
मां अपने पूरे शरीर को सहलाते ऊंचे पलंग से अपने खुरदुरे पैर को बाहर रखने की कोशिश करती है काश! यूं ही लटके रहें ये पैर जिन्हें दिनभर पिछले 80 वर्षों से शरीर पर चढ़े 120 किलोग्राम का बोझा उठाने का परिश्रम न करना पड़े।
देवेंद्र आंखें खोलता है। धीरे से सपना उसके मन से बाहर आता है और वह खो जाता है अपनी ही दुनिया के धुंधलके में। जहां भ्रमित, दिशाहीन पक्षी अनंत उड़ान पर निकलने के लिए आतुर हैं। पर धीरे-धीरे भोर की बयार उसके गंजे सिर को सहलाती है और वह अपने नीड़ की ओर लौटने लगता है।
उठ जाओ, देवेंद्र! सूरज चढ़ने को है। भारी-भरकम आवाज़ में कमजोर और अपाहिज बेटे से मां कहती है।
मां सब कुछ कर सकती है। सर्व शक्ति स्वरूप है। वह जो कहेगी वही होगा। देवेंद्र बेडौल, सूक्ष्म शरीर, प्रकृति का मारा, अकस्मात घुसपैठिया मानो ईश्वर की अनिच्छा से इस धरती पर अनिमंत्रित पैदा हुआ हो।
अब उठ भी जाओ! आलस मत करो! कराहते हुए कांपते घुटनों पर खड़े होने की कोशिश करते हुए मां थोड़ा जोर लगाकर कहती है।
जार्जटाउन की जर्जर कोठी के सभी किराएदार जाग चुके हैं। उनकी दिनचर्या का शोर दीवारों के पीछे से साफ सुनाई पड़ रहा है। सड़क पर निकल चुके हैं सब्जी वाले, दूध वाले व सफाई कर्मचारी अपने-अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए। देवेंद्र, उठो, दांत साफ करो, दाढ़ी बनाओ, साफ तौलिए से मुंह पोंछो, दंत मंजन के ढक्कन को बंद करना मत भूलना, ठीक से पेशाब पॉट में ही करना, इधर-उधर पानी मत बहाना। याद रहे किसी और के सामान को कतई मत छूना। कोठी में स्थित एकमात्र सार्वजनिक शौचालय की ओर संकेत करती हुई मां देवेंद्र को सावधान करती है।
ठीक है, मां...! सब समझ आ गया है। अनुभवी प्रशिक्षक के साथ नदी में तैरना कितना आसान है। पर पिछली रात हवेली का ऊंचा फाटक अभी भी खुला है। वहां के उभरे जंगलों में गरजते हाथी, दहाड़ते शेर और समुद्र की गहराई में गोता लगाती व्हेल और मार्ग में अवरोधक बनी कुटिलता से मुस्कुराती अंगारों जैसी आंखों और लंबी पूंछ वाली खतरनाक जलपरी कुटिल मुस्कान में सामने खड़ी होती है।
देवेंद्र मां के आदेशानुसार अपने आप को ठीक करेगा। मां आकर देखेगी कि गंदगी तो नहीं फैली है। नहीं तो पड़ोसी शोर मचाएंगे। देवेंद्र को देखकर पड़ोस की औरतें बड़बड़ाती हैं, अजीबोगरीब मुंह बनाती हैं और उसे बड़ी उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से देखती हैं। मां... मुझे उनसे डर लगता है। फर्श पर उसका थोड़ा पेशाब निकल जाता है।
ओ ए...! गलियारे में जोर का शोर उठता है। शौचालय का दरवाज़ा बड़ा होकर छत को छूने लगता है, दहलीज पर जलपरी कुटिल मुस्कान में टेढ़ी खड़ी हो कर देवेंद्र को आंख मारती है अपने जाल में फंसाने के लिए।
मां मुझे बचाएगी। वह 10 घोड़ों के रथ पर सवार होकर यह रास्ता साफ करेगी। देवेंद्र की भर्राई आवाज़ सुनकर मां जल्दी-जल्दी जैसे-तैसे भागती आती है और पड़ोस की औरतों को बीमार बेटे को कोसने के लिए उलाहना देती है।
देवेंद्र रसोई में रखी चौकी पर सुबह के नाश्ते को निहारता है। लाल-लाल बिंदी वाले गोल-गोल परांठे देखकर वह खुश हो जाता है। मां अंधेरे में भी मार्ग प्रशस्त कर सकती है। जीवन की सारी गुत्थियां सुलझा सकती है। इस उलझे अभेद संसार की सब भूल-भुलैया के रहस्य का पर्दाफाश कर सकती है।
देवेंद्र की अपनी दुनिया है। वहां किसी भी समय, कुछ भी हो सकता है। उसके लिए बाहरी दुनिया दिखावा है, आडंबर है। दूसरों की शर्त पर जीना उसके लिए कठिन है। वह स्वाधीन होकर जीना चाहता है। उसके अपने समझौते हैं और अपने उसूल।
इस बीच मां चाय परोसती है। चाय की भाप देवेंद्र के नाक में घुसती है और उसे खड़े-खड़े पाइप के जरिए चाय पीने का मन करता है।
देवेंद्र, ठीक से बैठो और नाश्ता करो! नाश्ते के पश्चात फर्श पर गत्ता, कैंची और गोंद रखी जाती है। देवेंद्र को एक पुराना कुर्ता पहनाया जाता है और मिठाई का डिब्बा बनाने की कवायद शुरू होती है। मां गत्ता काटेगी और देवेंद्र उसे चिपकाएगा। 50 के करीब डिब्बे बनेंगे, जो शाम होते-होते हलवाई की दुकान पर ले जाए जाएंगे और उनका भुगतान उन्हें अगली सुबह के चूल्हे की आग दिखाएगा। देवेंद्र को उन डिब्बों से बेहद प्यार है, लगाव है। वह चुपके से एकाध डिब्बे मां की निगाहें चूकने पर छिपा लेना चाहता है। पर मां की तेज़ नज़र उसे पकड़ लेती है।
शाम को मां देवेंद्र के साथ हलवाई की दुकान पर डिब्बों के वितरण के लिए निकलती है। वह कंपनी बाग से होकर शहर के पुराने मोहल्ले कटरा में स्थित नेतराम मूलचंद हलवाई की दुकान पर जाती है। कंपनी बाग के एक कोने में अमर स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद की मूर्ति मूंछों पर ताव व गठीले शरीर पर जनेऊ धारण किए बड़ी गर्वीली मुद्रा में सभी आगंतुकों को एकटक निहारते खड़ी होती है।
मां... यह कौन है? बेटा यह अमर सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद हैं, जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। इन्हीं के सर्वोच्च बलिदान के फलस्वरूप आज हम स्वाधीन हैं।
हम किससे स्वाधीन हैं? देवेंद्र ने बड़े भोलेपन से पूछा।
हम अंग्रेजों से स्वाधीन हुए हैं, जिन्होंने हम भारतवासियों के ऊपर बहुत अत्याचार किया, हमें लूटा, हमें मारा और हमें हमेशा के लिए गरीब, लाचार बना दिया।
मां... मां... मैं चंद्रशेखर आज़ाद बनना चाहता हूं।
चंद्रशेखर आज़ाद बनने के लिए जुल्मों से टकराना पड़ता है, बेटा...! देशभक्ति की ज्वाला में तपना पड़ता है, राष्ट्र की सेवा में अपने को खपाना पड़ता है। यह एक तपस्या है, मेरे बेटे...। तुम इसे नहीं समझ पाओगे। मां ने बेटे को समझाया।
बातचीत के दौरान मां और बेटे हलवाई की दुकान पर पहुंचे। मां ने सारे डिब्बे हलवाई को दिए और उसके भुगतान को साड़ी के पल्लू में बांधकर घर जाने के लिए जैसे ही मुड़ी तो देवेंद्र ने देखा कि कुछ लोग हरे-हरे, लाल-लाल कागज़ देकर कुल्फी खा रहे हैं। तो वह भी कुल्फी खाने की जिद करने लगा। मां ने समझाया की कुल्फी खाने से उसका गला खराब हो जाता है, बुखार आ जाता है और वह उसे किसी तरह पुचकारते, समझाते घर वापस ले आई।
एक दिन सुबह-सुबह घर के पास कूड़ेदान में उनके द्वारा बनाए गए मिठाई के डिब्बे पड़े देखकर देवेंद्र का पारा आसमान छूने लगा। उसकी मोटी-मोटी आंखें बाहर निकल आईं, मुंह से झाग निकलने लगा। मुट्ठी भिंच कर बड़े जोर से वह बोला, गला घोट दूंगा, टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा, बाहर निकल साले, तुम्हारी इतनी हिम्मत! और वह बांहें चढ़ाता है और सिर से पैर तक कांपता है।
मां भाग कर बाहर आती है और उसे पुचकारते हुए कमरे के अंदर ले जाती है और आराम से उसके हाथ से चाकू और कैंची छीन लेती है। लोग अपने-अपने कमरों से हल्का दरवाजा खोले डरे-डरे, सहमे-सहमे चुपचाप अंदर से झांकते हैं।
दोपहर का सूरज दूसरी खिड़की पर पहुंच जाता है। आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे मां की आंख लग जाती है। इसी बीच देवेंद्र कमरे के खुले दरवाज़े से गलियारे में आ जाता है। गलियारे के अंधेरे कोने में कुटिल मुस्कान में जलपरी खड़ी मिलती है और देवेंद्र डरकर विपरीत दिशा में भागता है और एक खुले कमरे में घुस जाता है, जहां मेज़ पर कुछ खाने-पीने की चीज़ों के साथ-साथ रंगीन कागज भी पड़े होते हैं। वह उन रंगीन कागजों को झपटकर मुट्ठी में भरता है और कमरे से बाहर भागता है। घर का मालिक चोर-चोर का शोर मचाते हुए कमरे के बाहर गलियारे में देवेंद्र के पीछे-पीछे भागता है। देवेंद्र को कुछ समझ नहीं आता। घबराहट में वह घर से बाहर आ जाता है और सड़क पर बेतहाशा भागने लगता है। चारों ओर चोर-चोर का शोर मच जाता है। लोग अपने-अपने बारजों, खिड़कियों और दरवाज़ों पर खड़े होकर पकड़ो-पकड़ो, चोर-चोर की जोर-जोर से आवाज़ लगाते हैं। देवेंद्र को लगता है कि रंगीन कागज़ों के बदले वह कुल्फी खा सकता है। वह हांफते हुए भागता है। उसकी मुट्ठी से रंगीन कागज़ झांकते हैं। वह उन्हें जेब में ठूसने की कोशिश करता है, पर फिर भी कागज़ छुपते नहीं हैं। चोर-चोर का शोर बढ़ता जाता है। सारा शहर मानो सड़क पर आ जाता है। उसने पैसे चुराए हैं, पकड़ो, मारो, जाने मत दो, कुत्ते छोड़ दो उसके पीछे। चकराया देवेंद्र सड़क पर गिर पड़ता है। ये रंगीन कागज़ के टुकड़े उसकी जान की आफत बन जाते हैं। रंगीन कागज़ को फाड़कर वह टुकड़े-टुकड़े कर देता है। पैरों से कुचल देता है। ये रहे तुम्हारे पैसे। सब खत्म हो गया।
कुछ मनचले भेड़िए उसे पकड़कर उस पर लातों और घूंसों की बरसात कर देते हैं। वह चीखता है, चिल्लाता है, आह...ओह... मुंह पर घूंसा... पेट में लात... नाक से खून...। मत मारो... मत मारो मुझे... अधमरा वह सड़क पर निढाल गिर जाता है।
छोड़ो...यार... चलो यहां से... पागल है।
देवेंद्र थूकता है तो उसके मुंह से खून निकलता है। वह जोर से चीखता है, चिल्लाता है। अपने बेडौल चेहरे से आसमान की ओर ताकता है। पर बादलों की ओट में सूरज अपने आप को छुपा लेता है। मां... मां... तुम कहां हो? मां... तुम्हारा अकेला प्यारा, दुखी बच्चा दर्द से मर रहा है। मां... मुझे बचा लो, मां... मैं मर रहा हूं... मां तुम कहां हो!
मां दौड़ती, हांफती, बाहें फैलाए आती है और झपटकर अपने बच्चे को छाती से लगा लेती है। पुचकारती है, चूमती है, सिसकती है। मैं आ गई मेरे बच्चे... मैं आ गई... घबराओ मत...मेरे लाल, मैं हूं न!
मां देवेंद्र को लगाम से पकड़कर गर्म अस्तबल में लाती है। सफेद नर्म पंख को सहलाकर घोसले में बैठाती है। घाव से सूजे चेहरे को धोती है, धीरे-धीरे पीठ सहलाती है। देवेंद्र अधमरा-सा, सुबकता बैठा रहता है। मां जल्दी-जल्दी हल्दी वाला दूध उसे पिलाती है। घावों पर फिटकरी लगती है। वह कराहता है। मां उसे सांत्वना देते हुए गर्म हलवा बनाकर खिलाने की पेशकश करती है।
देवेंद्र केवल सिर हिला देता है, पर उसके मन में कुछ और चलता रहता है। मां... मैं अब चंद्रशेखर आज़ाद बनूंगा।
हे भगवान! मेरे बच्चे… यह तुम्हारे बस का नहीं है। अच्छा-अच्छा... रो मत, शांत हो जाओ! बन जाओ चंद्रशेखर आज़ाद!
देवेंद्र ने दुनिया को समझ लिया था। उसके दस्तूर को जान गया था। जान गया था घटनाओं के गुप्त संबंध को, अ-समन्वित विषयों की उलझनों, और स्वार्थी रिश्तों को, घावों के दर्द को। उसके दिमाग में बिजली-सी कौंध गई थी। तनाव में वह बड़बड़ाने लगा और खुद अपनी खुशी के अभिनव से भौचक्का वह जोर से चिल्लाया, वंदे मातरम, वंदे मातरम, वंदे मातरम! और ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़ा। मां ने दौड़कर उसे अपनी बांहों में भर लिया। आज उसका चंद्रशेखर- आज़ाद हो चुका था।

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