ग्लेशियरों पर संकट के बीच हमारी जिम्मेदारी
ग्लेशियर पिघलना प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप जैसे जलविद्युत परियोजनाओं, निर्माण कार्यों और पर्यावरणीय असंतुलन ने इसे और बढ़ा दिया। ग्लेशियरों से हिमखंड टूटने की घटनाओं का जोखिम बढ़ा है, वहीं ग्लेशियल आउटबर्स्ट फ्लड के खतरे भी। इन संवेदनशील क्षेत्रों में गतिविधि न्यूनतम रखनी चाहिये।
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
हाल ही में उत्तराखंड के चमोली जिले के माणा ग्राम के पास हुई हिमस्खलन की घटना में बीआरओ के मजदूर दब गए थे, जिनमें से कुछ को बचा लिया गया, लेकिन कई की जानें नहीं बच सकीं। दरअसल, हिमस्खलन की घटनाएं पूरी दुनिया में बढ़ रही हैं, जिससे अचानक बाढ़ें आ रही हैं और सड़कों पर वाहन सवार सैलानियों की मौतें हो रही हैं। फरवरी, 2021 में उत्तराखंड की नीती घाटी में हिमस्खलन के कारण ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में बाढ़ आई, जिससे व्यापक तबाही हुई। इस घटना के चलते वैश्विक स्तर पर हिमस्खलनों और ग्लेशियरों के संकट को लेकर चर्चा शुरू हुई। ऐसे में सवाल उठता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया में मानवीय गतिविधियों का भी योगदान है, जिससे इन घटनाओं की आवृत्ति बढ़ रही है। ग्लेशियरों का पिघलना प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप जैसे जलविद्युत परियोजनाओं, निर्माण कार्यों और पर्यावरणीय असंतुलन ने इसे और बढ़ा दिया। इसलिये, हमें इन संवेदनशील क्षेत्रों में सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।
इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना दुगनी दर से बढ़ गया है। वे हर साल आधे मीटर की मोटाई खो रहे हैं और कुछ क्षेत्रों में पीछे भी खिसक रहे हैं। गढ़वाल हिमालय में पिछले चार दशकों में औसतन 18 मीटर प्रति वर्ष ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं। ग्लेशियरों के पिघलने की दर तापमान, बारिश, नमी, हवाओं की गति और सूर्य की किरणों के परावर्तन पर निर्भर करती है। पिघलते ग्लेशियरों से उत्पन्न जल से गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी सदानीरा नदियों का अस्तित्व है, जो वर्षा के बिना भी बहती रहती हैं। यदि ग्लेशियरों का पिघलना जारी रहता है, तो इससे समुद्र स्तर 230 फुट तक बढ़ सकता है, जो वैश्विक जल संकट का कारण बन सकता है।
नदियों में पानी की महत्ता को ध्यान में रखते हुए, गंगा और यमुना के स्रोतों, गंगोत्री और यमुनोत्री के ग्लेशियरों को नैनीताल उच्च न्यायालय ने 20 मार्च, 2017 को एक आदेश में न्यायिक जीवित मानव का दर्जा दिया। हालांकि ग्लेशियर स्वयं मौसमी बदलाव और बढ़ते तापमान से काल-कवलित हो रहे हैं, लेकिन इनकी सतह जब सूर्य की किरणों को परावर्तित करती है, तो वे वातावरण संतुलन में भी मदद करती हैं। छोटे ग्लेशियर्स औसतन 70 से 100 मीटर तक मोटे होते हैं, जबकि बड़े ग्लेशियर्स 1.5 किमी तक मोटे हो सकते हैं।
गतिक ग्लेशियर्स अपनी यात्रा के दौरान शिलाओं को तोड़ते हुए उन्हें उनके मूल स्थानों से दूर ले जाते हैं, जिससे हिमस्खलन के दौरान हिमखंडों के साथ बड़ी-बड़ी शिलाओं की भी बौछार होती है। जब ये हिमखंड और शिलाएं नदियों-नालों में गिरती हैं, तो कभी-कभी बहते पानी की राह रोक अस्थायी बांध बना देती हैं। इन बांधों के टूटने से अचानक बाढ़ों और तबाही का खतरा उत्पन्न हो सकता है। हिमस्खलनों के अतिरिक्त, बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों में उत्पन्न होती और फैलती ग्लेशियल झीलें सर्वाधिक चिंता का कारण बन रही हैं। जिनके टूटने पर भारी मात्रा में पानी बहकर ये अचानक बाढ़ों का कारण बनती है, जिसे ग्लेशियल आउटबर्स्ट फ्लड कहा जाता है। ग्लेशियर्स प्रायः पहाड़ी निर्जन क्षेत्रों में होते हैं। अगर हम आर्थिक लाभ या मनोरंजन के लिए उनके नजदीक न जायें, तो शायद उनके टूटने या ग्लेशियर झीलों के अनायास टूटने का प्रभाव बस्तियों और संरचनाओं पर उतना भयंकर न होता। हालांकि, आज नंदादेवी बायोस्फीयर जैसे संरक्षित क्षेत्रों में भी विभिन्न प्रोजेक्ट, जैसे जल विद्युत परियोजनाएं, स्कीइंग रिसॉर्ट्स और वेडिंग डेस्टिनेशन जैसी गतिविधियों को लेकर प्रवेश किया जा रहा है, जिससे स्थिति और भी जटिल हो गई है।
वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद, जीएसआई ने 2014-16 में एक विशेष अध्ययन किया, जिसमें उत्तराखंड में 486 ग्लेशियल झीलों की पहचान की गई, जिनमें से 13 अत्यधिक जोखिमपूर्ण हैं। इन झीलों में से 71 ऋषिगंगा और धौलीगंगा घाटियों के ऊपर स्थित हैं, जो भूकंप, बादल फटने या भूगर्भीय कारणों से विखंडित हो सकती हैं। मानवीय कारणों से अब ग्लेशियरों से हिमखंड टूटने की घटनाओं का जोखिम बढ़ गया है। यदि हिमखंडों के गिरने या बहने के रास्ते के भूभागों को कमजोर किया गया, तो फ्लैश फ्लड की संभावना बढ़ सकती है। ऐसे में, हमें ग्लेशियरों की अनदेखी करने की बजाय उनके संवेदनशील क्षेत्रों जैसे नंदादेवी बायोस्फीयर और गंगोत्री, केदारनाथ के आसपास के संरक्षित क्षेत्रों को पारिस्थितिकीय असंतुलन से बचाने की नीति अपनानी चाहिए। ग्लेशियरों के नीचे पहाड़ी दरारों में पानी जमना और बर्फ का पिघलना भी एक सतत प्रक्रिया है, जो पहाड़ों को कमजोर करती है। इस प्रकार, ग्लेशियर अपने नीचे की चट्टानों को कमजोर करके उनका क्षरण करता रहता है, जिससे और भी अधिक खतरे पैदा हो सकते हैं।
ग्लेशियरों के आधार के पहाड़ों में मशीनी कटान और विस्फोट स्थितियां और भी जोखिमपूर्ण बना सकते हैं। यदि घाटियां संकरी हैं या वहां मलबा जमा है, तो फ्लैश फ्लड आ सकता है। एक वैज्ञानिक के अनुसार, यह आपदा ग्लेशियरों से जुड़ी भी हो सकती है, लेकिन इसके लिए कई अन्य कारण भी जिम्मेदार हो सकते हैं, जैसे लैंड स्लाइड, ढलाव का टूटना, अत्यधिक तापमान आदि। ग्लेशियरों के लिए स्वस्थ पर्यावरण प्रदान करने की आवश्यकता है, ताकि वे अपने स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर सकें।