ग़ज़लों में ज़िन्दगी का अक्स
डॉ. सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
हिन्दी ग़ज़ल-संग्रह ‘शीशे का इन्कि़लाब’ शायर जनाब देवेन्द्र मांझी का छठा ग़ज़ल-संग्रह है। इससे पहले हिन्दी में उनकी चौबीस तथा उर्दू में चार किताबें मंज़र-ए-आम हो चुकी हैं। इस संग्रह में संकलित 86 ग़ज़लें ज़िन्दगी के विभिन्न जज़्बातों और पहलुओं से जुड़ी हुई हैं। मांझी साहब की सादगीभरी बयानी में आम जनजीवन की सामान्य बातों को शे’रों में ढालने की ख़ास महारत दिखाई देती है।
इन ग़ज़लों में जहां खुदपरस्ती की मुख़ालफ़त है, वहीं ख़ुद्दारी की पैरवी भी है। मोहब्बत की दुश्वारियां, अदाकारी और भीतरघात के भाव भी इसमें समाहित हैं। विषमताओं के प्रति विक्षोभ भी साफ़ झलकता है। कुछ अश्आर रूहानियत की बात करते हैं, तो कुछ में हिम्मत और जुनून नज़र आता है।
कुछ शे’र दृष्टव्य हैं—
‘पसीने आ गए लहरों को, तट ने साध ली चुप्पी/ कोई मांझी बिना कश्ती समुन्दर में चला होगा।’
यह शे’र संघर्ष और साहस की मिसाल है।
नई पीढ़ी को बुज़ुर्गों के साथ तालमेल बिठाकर कंधे से कंधा मिलाकर चलने की सीख भी दी गई है, तो कहीं मिट्टी से जुड़ाव की बात भी—
‘करो दिल से न इतनी दूर मिट्टी/ कई रंगों से है भरपूर मिट्टी।’
हौसले की ज़बान बनते कुछ अश्आर यूं हैं—
‘सोचो के जंगल में क्यों तू भटका है/ रस्ता तो बीहड़ में भी मिल सकता है।’
‘दर्द से तड़पी है काफ़ी तीरगी/ जब कहीं पैदा हुई है रौशनी।’
अन्य कुछ उल्लेखनीय अश्आर—
‘इश्क़ की गलियों में रुस्वा कर लिया है/ काम मैंने अच्छा-ख़ासा कर लिया है।’
‘ज़मीं को तर्क किया, आसमान छोड़ गए/ ये किसके ख़ौफ़ से पंछी उड़ान छोड़ गए।’
‘तुम्हारा नक़्श दिल में गढ़ लिया है/ मोहब्बत का सबक़ यूं पढ़ लिया है।’
‘कल पे छोड़ी नहीं, अभी कर ली / हमने ख़ुद से ही दिल्लगी कर ली।’
‘उल्फ़त के हर चराग़ में घी वो ही भर गया/ अपनी अना की छत से जो नीचे उतर गया।’
‘शीशे का इन्कि़लाब’ की भाषा सरल, सहज और आम आदमी के जीवन से जुड़ी हुई है, साथ ही अपने आप में रवानी लिए हुए है। इसमें ग़ज़ल के कथ्य में ज़िन्दगी के विविध जज़्बातों को सलीके से पिरोया गया है। भाव-पक्ष और कला-पक्ष दोनों आकर्षक हैं।
पुस्तक : शीशे का इन्कि़लाब (ग़ज़ल-संग्रह) शायर : देवेन्द्र मांझी प्रकाशक : पंछी बुक्स, दिल्ली पृष्ठ : 108 मूल्य : रु. 300.