क्रिकेट का साम्राज्य और सामूहिक सम्मोहन
क्रिकेट एक बेहद लाभदायक व्यापारिक साम्राज्य में तब्दील हो गया है। चूंकि नवउदारवाद के युग में बाजारवाद को एक गुण माना जाता है, क्रिकेट- जी हां, एक दिवसीय क्रिकेट अपनी तात्कालिकता, जोशीलेपन, विज्ञापन मशीनरी और तकनीकी रूप से परिष्कृत लाइव कवरेज के साथ- एक बिक्री योग्य वस्तु बन गया है।
अविजित पाठक
हाल ही में, बिहार के ग्रामीण बच्चों के एक समूह के साथ बातचीत में, मैंने उनके पसंदीदा खेल के बारे में पूछा। उन्होंने बड़े उत्साह के साथ जवाब दिया, ‘क्रिकेट’। मैंने आगे जानना चाहा; और इस बार उनके पसंदीदा क्रिकेटर का नाम पूछा। और भी जोश के साथ जवाब आया, ‘विराट कोहली’। इसने मुझे संवाद आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया और पूछा, क्या आप मुझे किसी महान हॉकी खिलाड़ी या महिला पहलवान का नाम बता सकते हैं? इस बार गहरी खामोशी छा गई। वास्तव में, यह चुप्पी बताती है कि किस तरह क्रिकेट ने हमारी चेतना पर कब्ज़ा जमा लिया है और अंततः ध्यानचंद जैसे हॉकी के दिग्गज, इंदर सिंह जैसे फुटबॉलर या विनेश फोगाट जैसी महिला पहलवान से जुड़ी हमारी सामूहिक यादों को मिटा दिया है।
वास्तव में, क्रिकेट सर्वव्यापी हो गया है; चाहे गांव हों या शहर; यह झुग्गियों में भी है और गेट लगी कालोनियों में भी; और ड्यूटी पर तैनात ट्रैफिक कांस्टेबल से लेकर रसोई में काम करने वाली गृहिणी तक; या कॉर्पोरेट कार्यकारी से लेकर युवा छात्र तक : हर कोई क्रिकेट से सम्मोहित है। इसलिए, इसमें कोई हैरानी नहीं कि और जैसा कि एक अनुमान बताता है, हाल ही में आयोजित आईपीएल (इंडियन प्रीमियर लीग) को देखने वाले टीवी दर्शकों की संख्या 50 करोड़ से अधिक रही। ऐसा लगता है कि क्रिकेट सिर्फ एक अन्य खेल नहीं है। यह एक तमाशा बन चुका है; एक बहुत बड़े पैमाने पर उपभोग की वस्तु; और सबसे बढ़कर, एक ऐसी आधुनिक पौराणिक कथा, जो जीवन शैली बेचती है- ग्लैमर, पैसा और स्टारडम। असल में, इस घटनाक्रम को समझने के लिए हमें तीन चीजों को समझने की जरूरत है।
पहली, क्रिकेट एक बेहद लाभदायक व्यापारिक साम्राज्य में तब्दील हो गया है। चूंकि नवउदारवाद के युग में बाजारवाद को एक गुण माना जाता है, क्रिकेट- जी हां, एक दिवसीय क्रिकेट अपनी तात्कालिकता, जोशीलेपन, विज्ञापन मशीनरी और तकनीकी रूप से परिष्कृत लाइव कवरेज के साथ- एक बिक्री योग्य वस्तु बन गया है। वास्तव में, हम आईपीएल को एक बेहतरीन बिजनेस मॉडल के रूप में इस तरह समझ सकते हैं, जब हमें यह पता चले कि इसने केवल घरेलू मीडिया राजस्व के ज़रिए ही 1.21 बिलियन डॉलर से कम नहीं कमाए हैं। और यह मत भूलिए कि बहुत सारे क्रिकेट जुआ एप्लीकेशन सभी हैं- यहां तक कि बड़े क्रिकेटरों द्वारा प्रचारित। तो इसमें क्या हैरानी कि आईपीएल सीजन के दौरान 34 करोड़ से ज़्यादा भारतीयों ने इस जुएबाजी में हिस्सा लिया और दुनियाभर से हुई कमाई 1 बिलियन डॉलर से ज़्यादा की रही। जब मैं इन आंकड़ों को देखता हूं, तो मुझे फटे कपड़ों वाला वह ग्रामीण लड़का याद आता है, जो विराट कोहली को अपना हीरो मानता है। मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं कि उसका पसंदीदा क्रिकेटर भी एक 'उत्पाद' या 'ब्रांड' ही है; और इस बार उसकी 'नीलामी कीमत' सिर्फ़ 21 करोड़ रुपये थी; और रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु नामक एक कंपनी ने उसे खरीद लिया। उसने मुझे बेहद आश्चर्य से देखा।
दूसरी, चूंकि हममें से ज़्यादातर लोग सक्रिय रचनात्मक जिंदगी जीने की बजाय निष्क्रिय उपभोक्ता के रूप में जीते हैं, इसलिए इन क्रिकेटरों की चमक-दमक से जुड़ी परी कथाओं से विस्मित हो जाना मुश्किल नहीं। उनका ग्लैमर, उनकी ‘ब्रांड वैल्यू’, उनके ‘प्रेम प्रसंग’, यत्न करके गढ़ी गई छवि और उनकी जीवनशैली हमें लुभाती है। दरअसल, वे बॉलीवुड सेलेब्रिटीज़ से कम ‘भड़कीली हकीकत’ नहीं हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं। बाज़ारवाद की खींच इतनी अधिक कि यदि आप किसी भी आईपीएल टीम के खिलाड़ियों की जर्सी पर अलग-अलग प्रायोजकों के प्रतीक चिन्ह (लोगो) देखें, तो लगेगा मानो वाकई ‘चलते-फिरते बिल बोर्ड’ बन चुके हैं। दरअसल, खेलते वक्त भी वे आपको यह उत्पाद खरीदने के लिए लालायित करते हैं। यही मुद्रा घुमाने का चक्र है। आप और हम पागल हो जाते हैं, आईपीएल की टिकट ब्लैक में खरीदते हैं या घंटों टीवी के सामने बैठकर ज़िंदगी की एकरसता से उबरने के लिए क्रिकेट देखते हैं। और इस बीच, क्रिकेटर और उनके प्रायोजक दिमाग हिला देने वाली दौलत कमाते हैं।
और तीसरी, एक अन्य कठोर सच्चाई, जिसे स्वीकार करना महत्वपूर्ण है : क्रिकेट का हथियारीकरण। जी हां, नवउदारवाद और अति-राष्ट्रवाद एक साथ चल रहे हैं; और इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि क्रिकेट की व्यापक अपील का इस्तेमाल अक्सर अति-राष्ट्रवादी आवेगों को सक्रिय करने में एक औजार के रूप में किया जाता है। कल्पना करें कि भारत और पाकिस्तान विश्व कप में खेल रहे हैं। हमें खेल को युद्ध की तरह लेने को बरगला दिया जाता है। जहां मैच में जीत आत्ममुग्धता भरे अहंकार को बढ़ाती है, वहीं हार सामूहिक शोक में डुबा देती है। वास्तव में, क्रिकेट को अति-राष्ट्रवादी चश्मे से देखना तमाम किस्म की विकृतियों को जन्म देता है। उदाहरणार्थ, आप किसी पाकिस्तानी क्रिकेटर के गेंदबाजी कौशल की तारीफ नहीं कर सकते जो विराट कोहली या रोहित शर्मा को कड़ी मुश्किल डाल रहा हो। क्या पता आप इस किस्म का 'राष्ट्र-विरोधी' धत्तकर्म कर बैठें और बुलडोजर आपके घर को निशाने पर लेे? दरअसल, इस किस्म के क्रिकेट उन्माद के बीच अति-राष्ट्रवादी प्रशंसकों का गिरोह अपनी निगरानी मशीनरी को तेज कर देता है, और नोट करता है कि क्या देश के संभावित 'दुश्मन' भारत का समर्थन कर रहे हैं या जब कोई पाकिस्तानी बल्लेबाज खूबसूरती से खेले, और शतक बना डाले, तो तालियां बजा रहे हैं। वास्तव में, एक उपभोग की वस्तु होने के अलावा, क्रिकेट इस विषाक्त समय में एक अति-राष्ट्रवादी उत्प्रेरक बन गया है। और यह बिक रहा है...
क्रिकेट नामक तमाशा जिस किस्म का सामूहिक सम्मोहन पैदा कर रहा है, उसके घातक परिणाम होकर रहेंगे। वास्तव में, मुझे झटका तो लगा, लेकिन हैरानी नहीं हुई जब मुझे बेंगलुरु के एक क्रिकेट स्टेडियम के बाहर मची भगदड़ में 11 लोगों की मौत के बारे में पता चला। इसके बारे में विचार कीजिए। जिस स्टेडियम की कुल क्षमता ही 32,000 है, वहां रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु की आईपीएल जीत का जश्न मनाने के लिए 200,000 से अधिक लोग पहुंच जाएं। आप और मैं ऐसी भीड़ मानसिकता और इससे जुड़ी त्रासदी को कैसे अक्लमंदी कह पाऐंगे? संभवतः, वे उनकी एक झलक पाना चाहते थे, उन्हें छूना चाहते थे, उन्हें सूंघना चाहते थे, और एक प्रकार के 'मोक्ष' का अनुभव करना चाहते थे।
इस तरह की झुंड मानसिकता और उसके परिणामस्वरूप होने वाली त्रासदी से पता चलता है कि क्रिकेट वास्तव में हमारे देश में एक नशे की लत बन चुका है।
लेखक समाजशास्त्री हैं।