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कौशल आधारित खेल में कोटा प्रणाली की तार्किकता

04:00 AM Jun 30, 2025 IST
कौशल आधारित खेल में कोटा प्रणाली की तार्किकता
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दक्षिण अफ़्रीकी प्रयोग के बावजूद, खेलों में आरक्षण एक अतिशयी कदम भी हो सकता है, यदि चुना गया खिलाड़ी प्रतिस्पर्धा करने के लिए पर्याप्त रूप से बढ़िया न हो, और इससे टीम का प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है। पर यह बात भारत को यह आत्मनिरीक्षण करने से रोक नहीं सकती कि क्योंकर उसकी आबादी के एक बड़े हिस्से से कोई खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम से गायब है।

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प्रदीप मैगज़ीन

जब 14 जून, 2025 के दिन इंग्लैंड के लॉर्ड्स क्रिकेट ग्राउंड पर टेम्बा बावुमा की टीम को टेस्ट क्रिकेट का विश्व चैंपियन का खिताब मिलते देखा, तो यादों में ढाई दशक पहले का एक अति मार्मिक और हिलाकर रख देने वाला पल कौंध गया, जब मैं जोहान्सबर्ग में क्रिकेट साउथ अफ्रीका के तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी गेराल्ड माजोला का साक्षात्कार कर रहा था। खेल रिपोर्टिंग पेशे के दौरान क्रिकेट की दुनिया में मेरी कई यात्राओं में दक्षिण अफ्रीका ऐसा देश रहा, जहां अतीत के घाव, इससे होते रिसाव की प्रकृति, उन्हें भरने के प्रयास और बदलाव का प्रतिरोध, सभी एक साथ अपना खेल करते दिखाई देते थे। ठीक वैसे ही, जैसा कि भारत में होता है।
जिस क्षण दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट प्रशासन के उस मुख्य कार्यकारी ने रंगभेद और भेदभाव की वजह से अपनी अश्वेत जाति को लगने वाली चोट का वर्णन करना शुरू किया, मैंने देखा कि उनके गालों पर आंसू बह रहे थे। किसी वयस्क को इस तरह रोते हुए देखना दुर्लभ है और आंखें मेरी भी नम हो गईं।
बेशक दक्षिण अफ्रीका विविधता संपन्न देश है, लेकिन जिस तरह कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लाभ की एवज पर बहुसंख्यकों का शोषण और भेदभाव करने के लिए नस्लीय रंगभेद का इस्तेमाल किया जाता था, उससे यह माहौल भयावह भी लगता था। यह एक ऐसा देश रहा जहां अश्वेत अफ्रीकियों के साथ वाकई बहिष्कृतों जैसा व्यवहार किया जाता था, जब तक कि 1994 में श्वेत प्रशासन को सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया गया,नेल्सन मंडेला इस परिवर्तन के एक उत्प्रेरक और प्रतीक बने। सत्ता हस्तांतरण ने कई बदलावों की शुरुआत की, जिनका उद्देश्य अश्वेत अफ्रीकियों को सशक्त बनाना था और उनमें से एक था घरेलू और राष्ट्रीय क्रिकेट टीमों में अश्वेत प्रतिनिधित्व को अनिवार्य बनाना। इसे ‘कोटा सिस्टम’ कहा जाता है, इसके तहत, वर्तमान में, राष्ट्रीय टीम में कम-से-कम दो अश्वेत और चार अन्य रंगों के लोगों को शामिल करना जरूरी है, कुछेक मामूली बदलावों के साथ।
जब 2002 में, उस साक्षात्कार में माजोला रो पड़े थे, कोटा सिस्टम खेल में श्वेत-निर्मित ढांचे को हिलाने लगा था और टीम संरचना में फेर-बदल होनी शुरू हो गई थी। दक्षिण अफ्रीका के लिए खेलने वाले अब तक के सर्वश्रेष्ठ तेज़ गेंदबाज़ों में से एक मखाया नितिनि टीम में चुने गए पहले अश्वेत क्रिकेटर थे। बाद में उन्होंने खुलासा किया कि टीम के श्वेत सदस्यों ने उन्हें कभी अपने में से एक नहीं माना, तिरस्कृत किया और अवांछित महसूस कराया। वे अपवाद नहीं थे, क्योंकि कई अन्य खिलाड़ियों को भी इसी तरह के व्यवहार का सामना करना पड़ा। उन्हें योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि ‘कोटा खिलाड़ी’ के रूप में टीम में होने के कारण हल्के में लिया जाता था।
लेकिन प्रशासक टस से मस नहीं हुए और आज लगता है कि उस बदलाव ने एक सकारात्मक परिणाम दिया है, जैसा कि बावुमा ने मैच उपरांत अपने भाषण में कहा ‘एक विभाजित देश को एकजुट किया’। रेनबो नेशन, जैसा कि दक्षिण अफ्रीका को कहा जाता है, ने दुनिया को दिखाया है कि खेलों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता हासिल की जा सकती है और कोटा प्रणाली, जिसे भारत में हम ‘आरक्षण’ और ‘योग्यता’ कहते आए हैं, यह व्यवस्था दीर्घ काल में इनके बीच की रेखा को धुंधला कर सकती है।
भारतीय दृष्टिकोण से, दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत लोग गोरों के लिए वैसे ही थे जैसे यहां ऊंची जातियों के लिए दलित हैं। ऑस्ट्रेलिया पर दक्षिण अफ्रीका की जीत का जश्न मनाने वाले अधिकांश भारतीय क्रिकेट प्रशंसक शायद यह नहीं जानते कि यह अति कुख्यात ‘आरक्षण’ ही है, जिसने एक ऐसे देश की वास्तविक विविधता को प्रतिबिंबित करने में मदद की है, जिसका इतिहास विभाजनकारी संताप का रहा है। आज जबकि दक्षिण अफ्रीकी टीम में अश्वेत अफ्रीकियों का प्रतिनिधित्व है, यह महसूस करके दुःख होता है कि भारतीय क्रिकेट इतिहास की शुरुआत से ही, टीम में शामिल किए गए किसी दलित और आदिवासी खिलाड़ी का नाम खोजने में खूब खंगालना पड़ता है। साल 1947 से पहले पलवंकर बालू और नब्बे के दशक में विनोद कांबली, ले-देकर, दलित जाति के दो ही जाने-माने नाम हैं, जो दिमाग में आ रहे हैं। हो सकता है, कुछ और भी हों। चूंकि उनकी जाति की पहचान स्थापित करना मुश्किल है, इसलिए हम यहां उनका नाम लेने से बच रहे हैं। देश के सबसे लोकप्रिय खेल में, कुल आबादी के लगभग 25 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व बस इतना ही! दक्षिण अफ़्रीकी कोटा प्रणाली को भूल जाइए, क्या उनकी तरह हमने भी खेल तक पहुंच बनाने और सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए, जमीनी स्तर पर प्रशिक्षण व छात्रवृत्ति कार्यक्रम शुरू किए हैं?
खेल में जाति पर चर्चा करने और व्यवस्था में खामियों का निदान करने को लेकर हमारी उदासीनता, भेदभावपूर्ण प्रणाली बनाने में हमें भी एक भागीदार बनाती है, वह जो हमारी आबादी के एक-चौथाई हिस्से को हमारे राष्ट्रीय खेल में उचित प्रतिनिधित्व से वंचित करती है, वह क्रिकेट,जिसे हम अपना धर्म भी कहते हैं। एक ऐसा खेल जो 140 करोड़ लोगों को जोड़ता हो, उसमें भारत की ओर से खेलने के लिए एक भी ‘योग्यता वाला’ दलित खिलाड़ी नहीं है। टीम संरचना में इस असंतुलन का कारण खोजने के लिए क्या यह अरबों रुपये से लदे-फदे क्रिकेट बोर्ड की जिम्मेदारी और नैतिक दायित्व नहीं? कितनी लज्जा की बात है!
जहां भारत अभी भी जातिगत पूर्वाग्रहों और भेदभावपूर्ण प्रथाओं से ग्रस्त समाज में नौकरियों में आरक्षण के महत्व पर बहस में उलझा है वहीं यह आश्चर्य की बात है कि एक ऐसा देश भी है, जिसने विश्व में अब तक ज्ञात सबसे कौशल-आधारित खेल में कोटा प्रणाली के सकारात्मक परिणाम दिखा दिए हैं। खेल उत्कृष्टता पर पनपते हैं, जहां किसी की प्रतिस्पर्धा दुनिया के ‘सर्वश्रेष्ठतम’ खिलाड़ियों के साथ होती है। इसके लिए कड़ी मेहनत, उचित प्रशिक्षण, संसाधन और सबसे बढ़कर एक निष्पक्ष समर्थनकारी प्रणाली की आवश्यकता होती है, जो किसी व्यक्ति को अपनी प्रतिभा को खुलकर दिखाने की अनुमति देने वाली हो।
हालांकि दक्षिण अफ़्रीकी प्रयोग के बावजूद, खेलों में आरक्षण एक अतिशयी कदम भी हो सकता है, यदि चुना गया खिलाड़ी प्रतिस्पर्धा करने के लिए पर्याप्त रूप से बढ़िया न हो, और इससे टीम का प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है। पर यह बात भारत को यह आत्मनिरीक्षण करने से रोक नहीं सकती कि क्योंकर उसकी आबादी के एक बड़े हिस्से से कोई खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम से गायब है। आखिरकार उस विशेषाधिकार का क्या मोल, अगर उसे यह अहसास नहीं है कि एक अन्यायपूर्ण और असमान समाज में संसाधनों तक समान पहुंच बनाए बिना ‘योग्यता’ पर चयन एक दिखावा भर है।
लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं।
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