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कॉर्पोरेट्स से मिमियाना व किसानों पर धौंस जमाना

04:00 AM Feb 21, 2025 IST
कॉर्पोरेट्स से मिमियाना व किसानों पर धौंस जमाना
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ऐसा प्रतीत होता है कि केवल गरीब किसान और ग्रामीण श्रमिक की छोटी-मोटी ऋण गैर-अदायगी ही राष्ट्रीय खाते को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि कर्ज न चुकाने वाले अमीरों को आसानी से राहत मिल जाती है। इन अमीर डिफॉल्टरों में 16,000 से अधिक जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वाले भी शामिल हैं, जिन पर बैंकों के 3.45 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं।

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देविंदर शर्मा

यह असमानता डरावनी है। एक आरटीआई याचिका का जवाब देते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने बताया है कि 1 अप्रैल, 2014 से बैंकों ने भारत की विभिन्न कॉर्पोरेट्स की तरफ बकाया 16.61 लाख करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया है। वहीं, संसद में राजस्थान के सांसद हनुमान बेनीवाल ने कहा कि देश में बकाया कृषि ऋण अब 32 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया है। 18.74 करोड़ से अधिक किसान देनदारी के बोझ तले दबे हैं।
बेनीवाल ने कहा कि वास्तव में कुल बकाया कृषि ऋण देश के वार्षिक बजट में कृषि क्षेत्र के लिए आवंटित धन से 20 गुना अधिक है। उन्होंने वित्त मंत्री से पूछा कि किसानों के लिए किसी भी प्रकार की कृषि ऋण माफी योजना का उल्लेख क्यों नहीं किया गया। इसके विपरीत, पिछले 11 वर्षों में भारत की कार्पोरेट्स का कुल 16.61 लाख करोड़ रुपये का बकाया ऋण बट्टे खाते डाल दिया गया (केवल 16 प्रतिशत की वसूली हो पाई)। भारतीय बैंकों ने पिछले पांच वर्षों में इन कंपनियों पर चढ़े कर्ज में 10.6 लाख करोड़ रुपये माफ करने से पहले दूसरी बार नहीं सोचा। रिपोर्टों का कहना है कि बकाया ऋण में 50 प्रतिशत देनदारी बड़ी कंपनियों की है। लेकिन जब बारी किसानों की आए, तो कर्नाटक के शिमोगा में एक बैंक ने एक छोटे किसान को खाता बराबर करने के वास्ते बहुत तत्परता दिखाई, जिसे केवल 3.46 रुपये का बकाया चुकाने के लिए नियमित बस सेवा के अभाव में 15 किमी पैदल चलकर आना पड़ा!
अकेले वित्त वर्ष 2023-24 में, बैंकों ने कंपनियों के 1.7 लाख करोड़ रुपये माफ किए हैं। एक साल पहले, 2022-23 में, बैंकों ने 2.08 लाख करोड़ रुपये माफ किए थे। लेकिन जब बात कृषि ऋण माफ करने की आए, तो केंद्र ने ऐसा केवल दो बार किया है वर्ष 1990 और 2008 में। कुछ राज्य सरकारों ने इसे अलग से किया है, लेकिन यह बैंकों पर बोझ नहीं है, क्योंकि माफ की गई राशि का भुगतान उन सूबा सरकारों ने किया। जहां एक ओर कंपनियों का बकाया ऋण बड़ी दरियादिली से माफ कर दिया जाता है, मानो इस माफी से राष्ट्र निर्माण में मदद मिलती हो, वहीं दूसरी ओर एक महिला स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) की सदस्य को 35,000 रुपये वापस करने में असमर्थता के कारण प्रतीक्षारत पुलिस वैन में घसीटकर ले जाने जैसे दृश्य देखने को मिलते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि केवल गरीब किसान और ग्रामीण श्रमिक की छोटी-मोटी ऋण गैर-अदायगी ही राष्ट्रीय खाते को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि कर्ज न चुकाने वाले अमीरों को आसानी से राहत मिल जाती है। इन अमीर डिफॉल्टरों में 16,000 से अधिक जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वाले भी शामिल हैं, जिन पर बैंकों के 3.45 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं। जिनके बारे में आरबीआई ने भी माना है कि उनके पास पैसा था, लेकिन वे चुकाने को राज़ी न थे।
अब राजस्थान के पीलीबंगा के इस किसान के मामले को लें। उन्होंने एक फाइनेंस कंपनी से 2.70 लाख रुपये का कर्ज लिया और 2.57 लाख रुपये (महामारी के दौरान राज्य सरकार से प्राप्त 57,000 रुपये की सहायता राशि समेत) वापस कर दिए। लेकिन शेष राशि चुकाने में असमर्थ रहा, एक दिन जब वह घर वापस आता है तो पाते हैं कि घर पर उक्त लेनदार ने ताला जड़ दिया। बाद में, आक्रोशित ग्रामीणों ने ताला तोड़ा। अब इस अप्रिय घटना को उस 92 प्रतिशत ‘हेयर-कट’ (ऋण अंश माफी) के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जो बैंकों और उधारदाताओं ने कर दिखाया, जब पूर्वी भारत में मिश्रित धातु और इस्पात के एक प्रमुख निर्माता ‘आधुनिक मेटैलिक्स’ की तरफ बकाया 5,370 करोड़ रुपये के मामले में जुलाई, 2018 में नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) की कोलकाता शाखा ने ‘समाधान प्रस्ताव’ को मंजूरी देते हुए केवल 410 करोड़ रुपये की अदायगी की एवज में मामला रफा-दफा कर दिया।
जाहिर है, इतने बड़े ‘हेयरकट’ (कर्ज माफी) के साथ, कंपनी के प्रमोटरों ने कहा कि वे सभी गतिविधियों को पूरा करने और इस अग्रणी कंपनी को पुनर्जीवित करने की दिशा में काम शुरू करेंगे। कोई आश्चर्य नहीं, एक समय परिवर्तनकारी समाधान तंत्र के रूप में प्रशंसित दिवाला और दिवालियापन संहिता (आईबीसी)- संदेह के घेरे में आ गई है और बैंक अब वसूली के लिए इसका उपयोग करने के लिए उत्साहित नहीं हैं। रिपोर्टें बताती हैं कि बैंकों और अन्य उधारदाताओं की वसूलियां कम हो रही हैं।
हालांकि, बड़ा सवाल बना हुआ है। यदि राजस्थान के एक किसान के घर पर महज 20,000 रुपये की शेष राशि चुकता न किए जाने पर ताला जड़ा जा सकता है, तो एनसीएलटी बकाया कर्ज का 92 प्रतिशत माफ करके आराम से निकल जाने का मौका देने की बजाय ‘आधुनिक मेटालिक्स’ जैसी फर्मों के परिसर की तालाबंदी क्यों नहीं की जाती और किसानों की तरह इसके मालिकों को भी सलाखों के पीछे क्यों नहीं डाला जाता? यदि किसी बड़ी कंपनी के लिए बड़ा ‘हेयरकट’ जरूरी है, तो किसानों को भी इस किस्म की नीति का लाभ क्यों नहीं मिलना चाहिए और वह भी अपेक्षाकृत छोटे-छोटे ढंग से? आखिरकार, उनका व्यक्तिगत बकाया कर्ज कॉर्पोरेट के अनचुके ऋणों का अंश मात्र भी नहीं हैं।
इसके अलावा, बैंक ग्राहकों की विभिन्न श्रेणियों के लिए बैंकिंग कानून अलग-अलग क्यों हों? क्या बैंक कभी आवास, कार, ट्रैक्टर या मोटरबाइक ऋण लेने वालों के साथ भी उस तरह का नरम व्यवहार करते हैं जैसा कि कॉर्पोरेट्स के साथ करते हैं? बैंक कब तक कंपनियों की तरफ बकाया ऋणों को अपने सिर पर लेने की आवश्यकता को उचित ठहराते रहेंगे, वह भी आर्थिक विकास के नाम पर? जब सोशल मीडिया पर किसानों के दर्दनाक वीडियो देखे जाते हैं–जैसा कि पंजाब और हरियाणा में उत्पाद के सही दाम न लगने पर मायूस किसानों द्वारा फूलगोभी और पत्तागोभी की अपनी खड़ी फसलों को ट्रैक्टर से कुचलते देखा और जिस तरह हाल ही में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में किसानों को टमाटर की गिरी कीमतों का सामना करते पाया, तब 2018-19 के बजट में टमाटर, प्याज और आलू की कीमतों को स्थिर बनाए रखने के वास्ते 500 करोड़ रुपये का प्रावधान कर शुरू की गई ‘ऑपरेशन ग्रीन्स’ नामक योजना की याद आती है।
जहां हर कोई इस बात से सहमत है कि कोल्ड चेन के नेटवर्क सहित कृषि बुनियादी ढांचे में पर्याप्त निवेश किसान के नुकसान को कम करने में मददगार हो सकता है, वास्तविकता यह है कि ‘ऑपरेशन ग्रीन्स’ सब्जियों की कीमतों को स्थिर करने में बुरी तरह विफल रहा है। एक कारण यह हो सकता है कि इस योजना को उचित वित्तीय सहायता नहीं मिल पा रही है। यह तथ्य इस मद्देनजर गलत है कि दिसंबर, 2023 में, एनसीएलटी दिवालिया हुई रिलायंस कम्युनिकेशंस इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (आरसीआईएल) के उस प्रस्ताव को मंजूर करे, जिसमें वादी बकाया ऋण का 99 प्रतिशत माफ करवाकर पल्ला झाड़ निकल ले। वर्ष 2018-19 में ‘ऑपरेशन ग्रीन्स’ के लिए रखे 500 करोड़ रुपये के मुकाबले, 47,251.34 करोड़ रुपये की कर्जाई आरसीआईएल को एनसीएलटी ने सिर्फ 455.92 करोड़ चुकाने करने का निर्देश देकर आराम से निकल जाने दिया।
इसकी बजाय, अगर यह राशि वसूल की जाती और ‘ऑपरेशन ग्रीन्स’ में निवेश की जाती, तो फलों और सब्जियों की कीमतों को स्थिर करने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे में निवेश करने के लिए वित्तीय संसाधनों की कोई कमी नहीं होती।

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लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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