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कैसा है बॉलीवुड में राइटर का रुतबा!

04:05 AM May 24, 2025 IST
कैसा है बॉलीवुड में राइटर का रुतबा
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बॉलीवुड में लेखक के रुतबे की बातें तो बहुत होती है लेकिन शायद ही किसी फिल्म की सफलता का श्रेय उसे दिया जाता हो। दरअसल, हिंदी सिनेमा अच्छे लेखकों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया है। सिने दर्शक भी कुछ हद तक इसके जिम्मेदार हैं।

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डीजे नंदन
बीते दिनों सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने सोशल मीडिया में लिखा-सभी फिल्मों के राइटर हीरो होते हैं। उनकी इस पोस्ट के बाद प्रतिक्रियाओं में किसी ने वाह वाह कहा, किसी ने बिग बी की विनम्रता को सैल्यूट किया। किसी ने सच की बयानी कहा। लेकिन बॉलीवुड में छोटे-बड़े पर्दे की लेखक बिरादरी ने बहुमत में उनकी इस टिप्पणी पर करीब-करीब ऐसा ही कहा- सब बातें हैं, बातों का क्या? हकीकत में उतरकर देखें तो यही सच है। अगर वाकई मायानगरी में लेखक की इतनी ही ताकत होती तो, किसी फिल्म की सफलता के जश्न में सबसे आगे लेखक रहता। सफलताओं के जश्न में लेखक को अमूमन याद भी नहीं किया जाता।
दर्शकों को ट्रेनिंग नहीं
बॉलीवुड में लेखकों को उचित सम्मान न मिलने की एक वजह दर्शकों का रुख भी है। दरअसल ज्यादातर सिने दर्शक फिल्मों को समझने की ट्रेनिंग और शिक्षण से वंचित हैं। ऐसा नजरिया कम है कि वे रिश्तों और भावनाओं के ताने-बाने से बुनी फिल्म को क्रिएशन मानें और क्रिएटर यानी लेखक को श्रेय दें। वहीं गलत धारणा बनी हुई है कि जब फिल्म देखने जाएं तो दिमाग को एक तरफ रख दें। लोगों में यह धारणा बना रखी है ताकि वे बेसिर-पैर की फिल्मों के बारे में जवाबदेही न मांगें। इसलिए फिल्मों को मनोरंजन की एक ऐसी चाशनी में लपेट दिया है, जिसका उद्देश्य सिर्फ तथाकथित मनोरंजन का लुत्फ लेना है।
फिल्मकारों का नजरिया
ज्यादातर सिनेमा बनाने वाले लोग अपनी मूल्यजनित प्रतिबद्धता से कन्नी काटना चाहते हैं। अगर दर्शक फिल्मों को गंभीरता से देखते होते, तो हमारे लेखकों को सचमुच रचनात्मकता की दुनिया में डूबकर फिल्में लिखनी पड़तीं और तब फिल्म के असली नायक अभिनेता नहीं, लेखक ही होते। बॉलीवुड में अगर कोई कॉमेडी फिल्म 100 करोड़ रुपये कमा ले तो भी निर्माता-निर्देशक तो छोड़िये उस फिल्म के दर्शक भी इसके लिए लेखक को इज्जत नहीं देना चाहते। ऐसे में लेखक थ्रिलर या ड्रामा लिखने को पहली प्राथमिकता देते हैं।
अच्छे लेखन का हासिल!
बॉलीवुड में अच्छे लेखकों की कमी नहीं है। लेकिन लेखक को अच्छे लेखन की बिना पर न तो इज्जत मिलती है और न वाजिब पारिश्रमिक। उसे निजी संपर्कों पर निर्भर रहना पड़ता है। हिंदी सिनेमा अच्छे लेखकों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहा। -इ.रि.सें.

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