कुपोषण से जंग जीतकर ही बनेगा विकसित भारत
हाल ही में बिहार में बहुतायत में पैदा होने वाले मखाने को लेकर खूब चर्चा हुई। इसे सुपरफूड बताया गया। लेकिन यह महंगा है और आम आदमी की पहुंच से दूर है। ध्यान रहे कि देश के लगभग एक-तिहाई बच्चों में खून की कमी है। ‘नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे’ के अनुसार 15 से 50 साल तक की आधी से अधिक लड़कियां-महिलाएं रक्त की कमी से त्रस्त हैं।
विश्वनाथ सचदेव
कहते हैं राजनीति की दुनिया में कुछ भी कहा जा सकता है। इस दुनिया के हर प्राणी को यह विशेषाधिकार मिला हुआ है कि वह जो चाहे बोले, जो चाहे दावे करे। खास तौर पर चुनावों के मौकों पर तो कुछ भी कहने, दावा करने का यह अधिकार खूब काम में लिया जाता है। इस बात की एक विशेषता यह भी है कि राजनेताओं के कथनों-दावों की सत्यता की कोई शिनाख्त नहीं होती। जो नेता बोले, सो सच!
होता यह भी है कि नेता इन दावों-बातों को अक्सर भूल जाते हैं। कहना चाहिए, जान-बूझकर भुला दिया जाता है। फिर अगला चुनाव आ जाता है। फिर नये दावे, नयी बातें। कई बार तो ऐसा भी होता है कि एक चुनाव में एक नेता जो बोलता है, वैसा ही कुछ दूसरे चुनाव में दूसरा नेता बोल जाता है। मज़े की बात यह है कि इसे भी राजनीति की एक ज़रूरत के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
यह सारी बातें जो आज याद आ रही हैं उनका रिश्ता मखानों से है। वैसे यह रिश्ता किसी भी ‘नायाब’ चीज़ से हो सकता है, पर फिलहाल यह सब मखानों के संदर्भ में याद आ रहा है। सब जानते हैं कि मखाने बहुत पौष्टिक होते हैं। सामान्यतः बड़े लोग, यानी धनी लोग ही इसका सेवन कर पाते हैं। वैसे, अक्सर उपवास आदि में ही मखाने ज्यादा खाये जाते हैं। ज्ञातव्य यह भी है कि मखाने मुख्य भोजन नहीं होते, नाश्ते के रूप में या नमकीन के रूप में ही इसका उपयोग हो पाता है। ऐसा इसलिए कि मखाना एक महंगा पदार्थ है। सुना है, बाज़ार में इसका भाव पंद्रह सौ से लेकर दो हजार रुपये प्रति किलो है। थोक भाव कुछ कम होता होगा।
तो जैसा कि सब जानते हैं, यह बहुत महंगा और बहुत पौष्टिक आहार है। अब तो सब यह भी जान गये होंगे कि हमारे प्रधानमंत्री जी को यह आहार बहुत पसंद है। हाल ही में जब वह आगामी चुनावों के संदर्भ में प्रचार करने के लिए बिहार गये थे तो वहां एक विराट जनसभा में उन्होंने बताया था कि वे साल के 365 दिनों में से 300 दिन तो वह मखाना खाते ही हैं। उनके अच्छे स्वास्थ्य का एक कारण यह आहार भी हो सकता है। उस सभा में प्रधानमंत्री ने यह भी बताया कि दुनिया के बाज़ार में इसकी मांग बढ़ती जा रही है। हमारे देश में बिहार राज्य में इसकी सर्वाधिक पैदावार है। देश में मखाने की उपज का लगभग 35 प्रतिशत बिहार में ही होता है। कहते हैं 25-30 हजार किसान परिवार इस खेती से जुड़े हैं। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि मखाने की मांग को ध्यान में रखते हुए हमारे बिहार के किसान भी इससे लाभ उठाएं– उन्होंने कहा है, ‘अब मखाने को दुनिया के बाज़ार तक पहुंचाना है।’ उस सभा में तालियां बजाकर प्रधानमंत्री की इस बात का स्वागत किया गया था। तबसे देशी बाज़ार में भी मखाना चर्चा में है। अब इसे ‘सुपरफूड’ भी कहा जाता है। अंग्रेजी के इस विशेषण से हमारा मखाना और महत्वपूर्ण हो गया है!
इस सुपरफूड की चर्चा देश के मुख्य धारा के समाचार-चैनलों में खूब हुई है। चर्चा सोशल मीडिया पर भी हो रही है, पर वहां स्वर कुछ अलग है। वहां इस बात पर हैरानी तो व्यक्त नहीं की जा रही, पर यह ज़रूर कहा जा रहा है कि इतना महंगा ‘सुपरफूड’ प्रधानमंत्री ही, या फिर उनका मित्र-परिवार भी, साल में 365 में से 300 दिन ही तक खा सकता है! सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि जिस देश में 80 करोड़ आबादी को मुफ्त अनाज देकर पेट भरवाना पड़ रहा हो, वहां का आम आदमी इतना महंगा ‘सुपरफूड’ कैसे खा सकता है?
बहरहाल, आज भले ही यह दावा किया जा रहा हो कि 21वीं सदी भारत की है और 2047 तक हमारा भारत एक विकसित देश बन जाएगा, पर आज की स्थिति तो यही है कि हमारे देश में जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा। वर्ष 2024 के ही एक सर्वेक्षण के अनुसार ‘भुखमरी इंडेक्स’ में दुनिया के 127 देशों में हमारा स्थान 105वां है। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ के इस आंकड़े से स्पष्ट है कि भले ही हम यह दावा करते फिरें कि हमारा भारत जल्द ही विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जायेगा, पर हकीकत यह है कि अभी हम अपनी भूख मिटाने लायक भी नहीं बने हैं। जल्दी ही हम विकासशील देश से विकसित राष्ट्र बन जायें, यह कौन नहीं चाहेगा, पर चाहना हमें यह भी होगा कि वह दिन शीघ्र आये जब देश की आम जनता भी मखाना जैसा महंगा अनाज खा सके। मखाने का स्वाद उसे भी पता हो।
अभी तो यह बात एक खुशफहमी ही लगती है। हमें इस बात को भी नहीं भुलाना होगा कि वर्ष 2025 के एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश में 28 राज्यों में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। देश के लगभग एक-तिहाई बच्चों के शरीर में खून की कमी है। महिलाओं की स्थिति इन बच्चों से भी बुरी है। ‘नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे’ में यह देखने को मिला है कि 15 से 50 साल तक की लड़कियों-महिलाओं की आधी से ज्यादा आबादी रक्त की कमी से पीड़ित है। 29 प्रतिशत पुरुष भी खून की कमी के शिकार हैं।
यह आंकड़े और यह स्थिति हमें जागरूक करने वाली होनी चाहिए। सवाल गरीबों-अमीरों या गरीबी-अमीरी का नहीं है, सवाल समस्या की तह तक पहुंच कर उचित समाधान को तलाश करने का है।
‘सुपरफूड’ को दुनिया के बाज़ारों में पहुंचा कर बिहार के किसान की बेहतरी की दिशा में कदम बढ़ाना कतई ग़लत नहीं है। देश में उत्पन्न होने वाले मखाने में से 35 प्रतिशत बिहार में होता है। इसका अर्थ यह है कि मखाना-बाजार से होने वाले लाभ में बिहार के किसान का हिस्सा अच्छा-खासा होगा। यह स्वागत-योग्य स्थिति है। यह बात भी कहीं न कहीं मन में आ सकती है कि देश का आम नागरिक कब मखाने का स्वाद चख पायेगा? नेतृत्व का बोला गया हर शब्द महत्वपूर्ण होता है। उम्मीद की जाती है कि नेतृत्व द्वारा चाहे वह सत्ता पक्ष का हो या फिर विपक्ष का– बोला जाने वाला हर शब्द तौल कर बोला गया है। उम्मीद जगाना अच्छी बात है, ज़रूरी भी है, पर उम्मीद भी बेबुनियाद नहीं होनी चाहिए।
पिछले साठ-सत्तर सालों में देश में बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिस पर गर्व किया जा सकता है। पर यह बहुत कुछ पर्याप्त ‘बहुत’ नहीं है। अभी और बहुत कुछ करना है हमें। आज हम जहां हैं वहां पहुंचने का श्रेय राह में उठाये गये हर कदम को है। पहला कदम जब उठता है तो मंजिल एक कदम नज़दीक आ जाती है। ज़रूरत हर कदम को मज़बूती से टिकाने की है। ठोस इरादों के लिए कोई मंजिल दूर नहीं होती।
मंजिल की इस दूरी को पार करने के लिए इरादों की ईमानदारी भी ज़रूरी है। अक्सर हमारे नेता ईमानदार इरादों की बात करते हैं। यह ईमानदारी लगातार झलकनी चाहिए। नेता यह कह सकता है कि वह सच बोल रहा है। पर यह सचाई भी चुनाव-दर-चुनाव की नहीं होनी चाहिए। बिहार में मखाना पर्याप्त होता है, इसका लाभ वहां के किसानों को मिलना चाहिए। पर यह स्थिति लाने के लिए किसी चुनावी समय की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयें तो हम मखाने की बात करें, लिट्टी-चोखे की बात करें, मखाने और लिट्टी-चोखे से अपने रिश्ते की बात करके रिश्तों की महत्ता बखाने, यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। अच्छी स्थिति तब बनेगी जब मखाने की खेती करने वाले किसान को यह लगेगा कि वह भी 365 दिन में से 300 दिन मखाना खा सकता है। तब उसका स्वास्थ्य सुधरेगा, तब देश का स्वास्थ्य बनेगा। तब हमारी राजनीति भी शायद कुछ स्वस्थ बने।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।