अब निजता और व्यक्तिगत आजादी को तरजीह
वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना कानून के तहत अगर किसी पति या पत्नी को बिना वजह छोड़ दिया गया है, तो उन्हें अदालत में जाकर कहने का अधिकार है कि वे अपना वैवाहिक जीवन फिर शुरू करना चाहते हैं। कानून एक को मजबूर कर सकता है कि वह साथ रहे। लेकिन अब अदालतें मान रही हैं कि इच्छा के विरुद्ध रिश्ते में रहने को मजबूर करना सही नहीं।
डॉ. सुधीर कुमार
अगर पति-पत्नी अलग हो जाते हैं, तो कानून एक को मजबूर कर सकता है कि वह वापस दूसरे के साथ जाकर रहे। इसे वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना कहते हैं। भारतीय कानून में, यह प्रावधान प्रमुखत: हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत आता है। यानी अगर किसी पति या पत्नी को बिना किसी वजह छोड़ दिया है, तो यह कानून उन्हें अदालत में जाकर कहने का अधिकार देता है कि वे अपना वैवाहिक जीवन फिर शुरू करना चाहते हैं। इसे कहते हैं, ‘चलो फिर से साथ रहो’ का कानूनी तरीका।
लेकिन आजकल लोग अपनी आजादी और मर्जी को ज़्यादा मानने लगे हैं। अदालतें भी सोचने लगी हैं कि किसी को जबरदस्ती साथ रहने के लिए कहना ठीक नहीं। इसलिए, अब वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना पहले जितना आसान नहीं रहा। अदालतें अब यह देखती हैं कि क्या वाकई दोनों साथ रह सकते हैं या फिर उन्हें अपनी ज़िंदगी अपनी मर्जी से जीने का हक है। अब यह ज़्यादा ‘पसंद’ की बात हो गई है, न कि सिर्फ कर्तव्य की। अब कानून नहीं कहता कि हर हाल में साथ रहो। देखता है कि क्या दोनों अपनी इच्छा से साथ रहना चाहते हैं।
पहले माना जाता था कि विवाह में पति-पत्नी का एक साथ रहना उनका कर्तव्य है, और यदि कोई एक साथी अलग रहना चाहता था, तो अदालत उसे वापस आने के लिए मजबूर कर सकती थी। लेकिन, अब अदालतें भी समझने लगी हैं कि किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध रिश्ते में रहने को मजबूर करना सही नहीं। कानून ‘कर्तव्य’ से ‘पसंद’ की ओर बढ़ रहा है।
कई अन्य देशों में, वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना का कानून या तो पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है, या इसे बहुत ही कम और विशिष्ट हालात में इस्तेमाल किया जाता है। इन देशों में कानूनी दृष्टिकोण इस मान्यता पर आधारित है कि व्यक्ति को इस मामले में अधिकार होना चाहिए कि वह किसके साथ अपना जीवन बिताना चाहते हैं। यानी राज्य को इस व्यक्तिगत और अंतरंग मामले में हस्तक्षेप का हक नहीं। इस सोच के पीछे अहम कारण निजी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सर्वोपरि माना जाना है। पति हो या पत्नी, दूसरे के साथ रहने के लिए मजबूर करना मानवाधिकार उल्लंघन माना जाता है। यह निजता के अधिकार और यह तय करने की स्वतंत्रता का हनन है कि वे निजी जीवन में कैसे संबंध रखना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त, कई देश तर्क देते हैं कि जबरदस्ती से बनाए गए रिश्ते अक्सर अस्वस्थ और दुखद होते हैं। यदि एक साथी संबंध से बाहर निकलना चाहता है, तो उसे वापस रहने के लिए मजबूर करने से केवल तनाव, मनमुटाव और संभावित दुर्व्यवहार ही बढ़ सकता है। कानून का उद्देश्य रिश्तों को बनाए रखना होना चाहिए, लेकिन ऐसे रिश्तों को नहीं जो आपसी सहमति और सम्मान पर आधारित न हों। कुछ देशों ने इस कानून को इसलिए समाप्त कर दिया कि यह लैंगिक रूप से पक्षपातपूर्ण है। इस का इस्तेमाल अक्सर महिलाओं को उनके अनिच्छुक पतियों के साथ वापस रहने के लिए मजबूर करने को किया जाता था, जबकि पुरुषों को ऐसी बाध्यता का सामना शायद ही कभी करना पड़ा।
भारत में भी अदालतें वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना कानून के बारे में चिंताएं व्यक्त कर रही हैं। उनका मानना है कि इस कानून का इस्तेमाल किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध विवाह में बने रहने के लिए मजबूर करने के लिए किया जा सकता है। यह चिंता महिलाओं के लिए अधिक है, जिन्हें अक्सर अपने पति के साथ रहने के लिए बाध्य किया जाता है, भले ही वे दुर्व्यवहार, क्रूरता झेल रही हों। अदालतों की चिंता यह भी कि क्या यह कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। मुख्य रूप से, अदालतें निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों के संभावित उल्लंघन पर फोकस कर रही हैं, जिसकी अनुच्छेद 21 के तहत गारंटी है।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने टी. सरिता बनाम टी. वेंकट सुब्बैया (1983) के अहम मामले में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9, जो वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना से संबंधित है, को असंवैधानिक घोषित किया था। तर्क दिया था कि यह कानूनी प्रावधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है। इस मामले में न्यायमूर्ति पी.ए. चौधरी ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह धारा एक व्यक्ति को उसकी शारीरिक स्वायत्तता से वंचित करती है, जिससे राज्य को निजी संबंधों के क्षेत्र में हस्तक्षेप की अनुमति मिल जाती है, जो अस्वीकार्य है। हालांकि, इस निर्णय को अगले ही वर्ष, सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चोपड़ा (1984) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 9 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए तर्क दिया कि इस प्रावधान का मुख्य उद्देश्य वैवाहिक कलह रोकना और विवाह संस्था को संरक्षित करना है। हालांकि इस फैसले में भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पसंद के अधिकारों पर चिंताएं व्यक्त की गईं। इसके बाद, के.एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2017) का ऐतिहासिक फैसला आया, जिसने निजता के हक को संविधान के तहत मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया। इस न्यायिक घोषणा के बाद, वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के प्रावधान की संवैधानिकता पर फिर से गंभीर सवाल उठने लगे हैं।
वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना का कानून भारत में मान्य है, लेकिन निचली अदालतें इसे लागू करने में सतर्कता बरत रही हैं। वे उन मामलों में पुनर्स्थापना की डिक्री पारित करने से हिचकिचाती हैं जहां स्पष्ट हो जाता है कि विवाह अपरिवर्तनीय रूप से टूट चुका है, जहां जबरदस्ती, क्रूरता या दुर्व्यवहार के गंभीर आरोप लगे हैं, या संभावना हो कि डिक्री जारी करने से मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
लेखक कु.वि. के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।