कश्मीरियों को नहीं पसंद पाकिस्तानियों का दखल
शायद हमारे इस स्याह काल की सतह पर तैरता एकमात्र हीरा है, करतारपुर साहिब गुरुद्वारे तक जाने वाला गलियारा, जो अभी भी खुला है।
ज्योति मल्होत्रा
पहलगाम में गत सप्ताह जिस तरह मौत का तांडव मचा, जब आतंकवादियों ने पहचान के आधार पर छांट-छांट कर सैलानियों को गोलियों का शिकार बनाया, उससे किसी सख्त से सख्त दिल तक की रीढ़ में सिहरन दौड़ जाए। इन पर्यटकों में अधिकांश भारत के छोटे शहर जैसे कि शिवमोगा, पनवेल, विशाखापट्टनम, नेल्लोर, थाणे, करनाल, हैदराबाद, भावनगर, लोअर सुबानगिरी के ताजांग गांव, कोझीकोड जैसी जगहों से कश्मीर घूमने आए थे। जन्म से ही हमें बताया जाता है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत एक है। अगर 2008 के मुंबई हमलों का उद्देश्य भारत के वित्तीय राजधानी को पंगु करना और इस तरह भारत को अपने घुटनों पर लाना था, तो बैसरन के अपराधियों का संदेश और भी स्पष्ट है कि मुस्लिम बहुल कश्मीर को सामान्य बनाने की कोशिश न की जाए, जो कि ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ का हृदयस्थल है और यह फलसफा जितना जायज विभाजन के वक्त था, उतना ही आज भी है। हिंदू और मुसलमान अलग-अलग हैं और उन्हें पृथक ही रहना होगा।
इसलिए एक पल के लिए भी यह मत सोचिएगा कि कन्नड़, मलयाली, महाराष्ट्रीयन, गुजराती और हरियाणवी कश्मीर के मैदानों में मनमाफिक विचरेंगे और झूठमूठ मान लेंगे कि वे स्विट्ज़रलैंड में सैर कर रहे हैं– हालांकि मानने की बात कि यह इलाका स्विट्ज़रलैंड से कहीं ज्यादा खूबसूरत है- सिर्फ इसलिए कि मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया है और इसके वर्तमान को नया स्वरूप प्रदान करना चाहती है।
लेकिन अगर आप इस बारे में विचार करें, तो बैसरन का संदेश वास्तव में काफी अलग है। जिस तरह से कश्मीरी लोग इस नृशंस नरसंहार की निंदा करने के लिए उठ खड़े हुए हैं, उमर अब्दुल्ला से लेकर टट्टू की सवारी करवाकर रोजी-रोटी कमाने वाले सैयद आदिल हुसैन शाह के परिवार तक, जिसने एक आतंकवादी के हाथ से बंदूक छीनने की कोशिश की और आतंकी ने उसे मार डाला। इससे यह स्पष्ट संदेश गया कि हफ्ते का दिन कोई भी हो, कश्मीरी आवाम अलगाववाद के प्रयोजन को बढ़ावा देने वाले ढोंगियों की बजाय शांति बनाए रखने को तरजीह देना चाहता है।
जब से समूची मुस्लिम बहुल घाटी में ‘आज़ादी’ के नारे गूंजने के बाद कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ था और बाद के तमाम सालों में विद्रोही गतिविधियां जारी रहीं, 35 वर्षों में यह पहली बार है जब कश्मीर के मुसलमान एक बार फिर से तथाकथित ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ के मलबे पर थूक रहे हैं। सबसे पहले उन्होंने यह 1947 में किया था, जिसने घुसपैठिए भेजने वाला नव-स्वतंत्र पाकिस्तान को नाराज़ कर डाला। फिर भारतीय सेना को कारगिल की चोटियों पर काबिज हुए घुसपैठियों की पहली सूचना देकर उन्होंने 1999 में भी यही किया। आज फिर से वही कर रहे हैं।
यह सच है कि 2019 में अनुच्छेद-370 को बहुत ही असहज तरीके से हटाया गया, जिसके कारण बहुत लोगों को कर्फ्यू के कारण लंबे समय तक अपने ही घरों में कैद रहना पड़ा था। साथ ही, संवैधानिक रूप से गारंटी के रूप में प्रदत्त उनके अधिकारों का हनन का आक्षेप है। लगा कि आम कश्मीरी के पास खुलकर सांस लेने की जगह बहुत कम बची। लेकिन, अंततः मांएं और बच्चे पार्कों में बेधड़क बैठकर दिन भर की घटनाओं पर गप-शप करने की साधारण किंतु कीमती आजादी का अनुभव कर पाए। बच्चे फिर से स्कूल जाने लगे और स्कूल की दीवारें इतनी छोटी हैं कि आप उन्हें अंदर फुटबॉल खेलते हुए देख सकते हैं। श्रीनगर में झेलम के तट पर काले हिजाब में महिलाएं पुरुष साथियों के साथ बैठकर आइसक्रीम का लुत्फ लेते दिखाई देती हैं। शेष हिंदुस्तान अमीर खुसरो की जन्नत की ओर उमड़ने लगा, पिछले साल दो करोड़ से ज्यादा पर्यटक आए।
इन दिनों, आत्म-सम्मान, स्वायत्तता और श्रीनगर-जम्मू और दिल्ली के बीच अक्सर तनावपूर्ण संबंधों को लेकर चलने वाली बहस पर ध्यान कुछ हटा हुआ है। फिलहाल जिस मुद्दे पर बहसें होती रहती हैं और जिस पर चर्चा घूम फिर कर वहीं आ जाती है– उसकी वजह मुख्यतः इस तथ्य पर है कि शांतिपूर्ण चुनाव के सात महीने बाद भी जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल नहीं किया गया। अब जब राज्यवासी भी देश के बाकी हिस्सों के साथ शोक मना रहे हैं, कश्मीरी लोग पाकिस्तानियों से कह रहे हैं कि न सिर्फ़ वे अपने काम से मतलब रखें, बल्कि उनसे दूर रहें और अकेला छोड़ दें।
पाकिस्तान के भीतर की प्रतिक्रिया पर भी ध्यान दें। उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इशाक डार को भारत के इस आरोप का बचाव करने के लिए विदेशी मीडिया के सामने उतारा गया कि नरसंहार करने वाले आतंकवादी पाकिस्तानी हैं। आरोप नकारने को उन्होंने यह कहकर समाप्त किया कि असली मुद्दा यह है कि ‘कश्मीर प्रश्न’ एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा है और इसे 1949 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के अनुसार हल किया जाना चाहिए। शायद डार ने यह गौर नहीं किया कि इस सप्ताह की शुरुआत में पहलगाम नरसंहार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और रोष मार्चों में भाग लेकर कश्मीरियों ने उनके लिए इस प्रश्न को हल कर दिया है, जो ‘मेरे नाम पर नहीं’ से शुरू हुआ और समाप्त हुआ।
पाकिस्तानी मीडिया भी यही खबरें दे रहा है कि यह एक घरेलू नाकामी छिपाने का ‘छद्म अभियान’ है, अर्थात् केंद्र सरकार की घरेलू समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए भारतीय एजेंसियों ने खुद ऐसा किया। तब तो कोई भी हैरान हो सकता है कि अगर अजमल कसाब जिंदा पकड़ा नहीं गया होता, तो मुंबई हमले का जिम्मेवार कौन होता। वैसे भी, इस कांड के दोषियों को न्याय के कठघरे में लाने के लिए पाकिस्तान में कोई कदम नहीं उठाया गया है। 17 साल गुजर चुके हैं, लेकिन इसके मास्टरमाइंड आज भी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे हैं।
फिर भी, इस बड़े खेल का एक नया अध्याय पहले से ही शुरू हो चुका है। जहां भारत और अमेरिका एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं, वहीं गौरतलब है कि चीन ने अभी तक पहलगाम हमले की निंदा नहीं की है, सिवाय भारत में चीनी राजदूत के एक ट्वीट के। स्पष्ट रूप से, चीन दुनिया के विभिन्न हिस्सों में इस मुद्दे पर सघन वार्ता पर नज़र रखे हुए होगा। जैसे-जैसे उनका संकट गहरा रहा है, पाकिस्तानियों को उम्मीद होगी कि अमेरिका मोदी को रोक लेगा, जबकि मोदी संभवतः ट्रम्प को बता चुके होंगे कि वह पाकिस्तान को सबक क्यों सिखाना चाहते हैं।
वह यह कब करेंगे, और यह 2019 के बालाकोट जैसे हमले से कितना आगे होगा और क्या कोई दुनिया के सबसे पुराने सीमा विवाद के झमेले में फंसे आम लोगों के बारे में कुछ सोचेगा- ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर इन दिनों द ट्रिब्यून के रिपोर्टर खबरें कर रहे हैं।
सबसे ज़्यादा दिल पसीजने वाली कहानियां हैं, सीमा पार विवाह करने वाले और उनके बच्चों की– कहीं पति भारतीय नागरिक तो कहीं पत्नी पाकिस्तानी है– किस प्रकार वे एक ऐसे ‘नो मैन्स लैंड’ में फंस गए हैं, जो मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह में पेश हालात जैसे हैं।
शायद हमारे इस स्याह काल की सतह पर तैरता एकमात्र हीरा है, करतारपुर साहिब गुरुद्वारे तक जाने वाला गलियारा, जो अभी भी खुला है।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।