कलम की कसौटी
सन् 1936 की बात है। अमृता प्रीतम की पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी। यह उनकी लेखनी की शुरुआत थी। उस समय महाराजा कपूरथला ने उनकी पुस्तक से प्रभावित होकर उन्हें दो सौ रुपये भेंटस्वरूप भेजे। कुछ ही दिनों बाद, महारानी नाभा, जो कभी उनके पिता की शिष्या रह चुकी थीं, ने प्रशंसा के रूप में एक सुंदर साड़ी भिजवाई। यह सब डाक के माध्यम से आया। एक दिन जब डाकिया फिर से दरवाज़ा खटखटाने आया, तो अमृता ने उत्साह में कहा, ‘आज फिर कोई इनाम आया है?’ यह सुनते ही उनके पिता के माथे पर एक गहरी त्योरी उभर आई— एक ऐसी शिकन जो अमृता कभी नहीं भूल सकीं। उस क्षण उन्होंने तो बस अपने काम की सराहना से उत्साहित होकर वह बात कही थी, पर पिता की उस प्रतिक्रिया में एक गहरा संदेश छुपा था। तुरंत तो अमृता नहीं समझ पाईं कि पिता क्या देखना चाहते थे, पर समय के साथ उन्हें यह बात गहराई से समझ आई। उन्होंने जाना कि एक लेखक का मूल्य पुरस्कारों, उपहारों या प्रशंसा में नहीं है, बल्कि उसके विचारों की ऊंचाई, उसकी आत्मा की सच्चाई और समाज के प्रति उसकी ज़िम्मेदारी में है। पुरस्कार तो मिल सकते हैं, लेकिन अगर लेखक की प्रेरणा केवल इनाम की लालसा बन जाए, तो लेखनी खोखली हो जाती है।
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी