ऑपरेशन सिंदूर के निष्कर्षों से सीखें सबक
हालांकि एस-400 सरफेस टू एयर मिसाइल (सैम) प्रणाली ने मुख्यतः मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं, लेकिन यह स्वदेशी राडार, सरफेस टू एयर मिसाइलें और काउंटर मानवरहित हवाई प्रणाली, जिनसे हमारी जमीनी वायु रक्षा की रीढ़ बनी है, इसकी बढ़िया कारगुजारी ने स्वदेशी हथियारों का महत्व उजागर किया है।
एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर (अ.प्रा.)
ऑपरेशन सिंदूर का अचानक यूं खत्म होना एकदम अप्रत्याशित था –वास्तव में, यह किसी परीक्षा-पत्र में ‘पाठ्यक्रम से इतर’ आए सवाल की तरह रहा! हालांकि, अच्छा हुआ कि पूर्ण पैमाने का युद्ध टल गया और उम्मीद करें कि संघर्ष विराम का आगे उल्लंघन नहीं होगा। भले ही सशस्त्र बल हमारी सीमाओं पर सतर्क नज़र रखे हुए हों, तथापि कुछ निष्कर्ष ऐसे हैं जो समीक्षा के रूप में निकाले जा सकते हैं।
सर्वप्रथम, मौजूदा सेना के रिवायती त्रि-सेवा तंत्र ने रणभूमि कमान के बिना भी काम कर दिखाया है। इसलिए, 22 अप्रैल को पहलगाम में आतंकवादियों द्वारा किए नरसंहार और 7 मई को आतंकवादी ठिकानों को निशाना बनाने के बाद तीन दिन चले हमलों की शुरुआत होने के बीच की अवधि में थल और वायुसेना ने बड़ी विशेषज्ञता से संयुक्त योजना की रूपरेखा तय कर इनके परिणाम दिए। पाकिस्तानी ड्रोन और मिसाइलों के हमले निरंतर, तीव्र और सघन थे और हमारी प्रतिक्रियाएं भी समान रहीं, लगभग सभी पाकिस्तानी प्रक्षेपास्त्र (यूएवी, मिसाइल, सशस्त्र और बिना हथियार वाले ड्रोन) सफलतापूर्वक गिरा लिए गए, इसका श्रेय भारतीय वायुसेना के स्वदेश विकसित एकीकृत वायु कमान एवं नियंत्रण प्रणाली (आईएसीसीएस) को जाता है, जो सभी सैन्य और नागरिक राडार जनित समग्र सूचना को एकीकृत स्क्रीन पर संश्लेषित कर दिखा देता है। यह प्रणाली लक्ष्यों से पैदा होने वाले खतरों का इलेक्ट्रॉनिक आकलन करके, युद्ध नियंत्रक द्वारा प्राथमिकता के आधार पर जो भी हथियार प्रणाली सबसे उपयुक्त हो, उसका इस्तेमाल कार्रवाई करने का आदेश देती है।
दूसरा, चार दिनों तक चले आपसी टकराव मुख्यतः पूरी तरह से न सही, हवाई माध्यम से चोट पहंुचाने वाले रहे। यह टकराव एक ऐसे सघन वायु रक्षा प्रणाली से लैस इलाके में हुए, जहां दोनों पक्ष वार-प्रतिवार की हवाई लड़ाई लड़ रहे थे, यह स्थिति इराक, अफगानिस्तान और सीरिया में पश्चिमी ताकतों द्वारा और गाज़ा एवं लेबनान पर इस्राइलियों द्वारा की गई हवाई बमबारी से उलट थी, जहां उन्हें अपने अभियानों में विरोधियों के हवाई हमला निरोधक उपायों का सामना नहीं करना पड़ता। स्वाभाविक है युद्ध में नुकसान भी होता है और यह संघर्ष की एक अनन्य प्रकृति है कि आक्रामक पक्ष को कुछ नुकसान झेलना ही पड़ता है, निश्चित रूप से भारतीय वायुसेना इसका भी आलोचनात्मक विश्लेषण करेगी।
अब उपलब्ध फोटोग्राफिक साक्ष्यों से पता चलता है कि भारत के यूएवी और मिसाइलों के हमले बहुत प्रभावी रहे, और यह तथ्य है कि पाकिस्तान भर में फैले उसके ग्यारह फ्रंटलाइन एयरबेसों पर भारतीय वायुसेना ने करारी चोट की है और यह हमारी पहुंच और हथियारों की प्रभावशीलता का प्रमाण है। हालांकि, भारतीय वायुसेना के स्क्वाड्रनों की घटती संख्या और वायु-शक्ति के बारे में काफी खबरें आती रही हैं और चूंकि हमारी सीमाएं आगे भी सक्रिय रहेंगी, इसलिए भारतीय वायुसेना की प्रहारक क्षमता बनाए रखने पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। हथियार प्रणाली, एन्क्रिप्टेड संचार और प्रहारक क्षमता जैसे कि एयरबोर्न वार्निंग एंड कंट्रोल सिस्टम, एरियल फ्लाइट रिफ्यूलर और अत्याधुनिक अस्त्रास्त्र जैसी प्रणालियों की जरूतों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। अंतिम विश्लेषण में यह याद रखना चाहिए कि यह एक अन्य उदाहरण रहा, जब वायु शक्ति की प्रभावशीलता ने शांति स्थापना की दिशा में राजनीतिक और कूटनीतिक वार्ता की राह प्रशस्त की।
तीसरा, हालांकि एस-400 सरफेस टू एयर मिसाइल (सैम) प्रणाली ने मुख्यतः मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं, लेकिन यह स्वदेशी राडार, सरफेस टू एयर मिसाइलें और काउंटर मानवरहित हवाई प्रणाली, जिनसे हमारी जमीनी वायु रक्षा की रीढ़ बनी है, इसकी बढ़िया कारगुजारी ने स्वदेशी हथियारों का महत्व उजागर किया है। गौरतलब है कि यह क्षमता डीआरडीओ और निजी क्षेत्र के सम्मिलित उद्यम से बनी है और वास्तव में यह बहुत उत्साहजनक है। ड्रोन और एंटी-ड्रोन सिस्टम की प्रचुर उपलब्धता रहने के पीछे क्षेत्रीय कमानों के वाइस चीफ और कमांडर-इन-चीफ को दी गई आपातकालीन शक्तियों का परिणाम भी हो सकता है।
वहीं भारतीय वायुसेना द्वारा डिजाइन की गई कम दूरी की एंटी-एयरक्राफ्ट प्रणाली, सरफेस-टू-एयर मिसाइल फॉर एश्योर्ड रिटेलिएशन (एसएएमएआर) के रूप में अपने ही संस्थानों में विकसित किए स्वदेशी अस्त्र बहुत काम आए। यह एसएएमएआर हमने सरफेस-टू-एयर मिसाइल के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली रूस निर्मित आर-73 और आर-27 एयर टू एयर मिसाइलों का नवीनीकरण करके पाया है (वरना इससे पहले उनका जीवनकाल समाप्त होने पर कबाड़ के रूप में खुर्द-बुर्द करना पड़ता था)। यह बताता है कि हमारे अपने संस्थानों में तीक्ष्ण बुद्धि दिमाग हैं, जिन्हें प्रोत्साहन देने की जरूरत है। यहां पर, उन अथक वायु रक्षा गनर्स (जिन्होंने लगातार एल-70 एंटी एयरक्राफ्ट गन जैसे रिवायती शस्त्रास्त्र चलाए) और बीएसएफ के जवान (जिन्होंने एंटी-यूएवी सिस्टम को प्रभावशाली रूप से इस्तेमाल किया) द्वारा किए गए अद्भुत काम की सराहना करना लाजिमी है।
चौथा, एक आम आदमी जिसकी सूचना तक पहुंच केवल मीडिया से मिले समाचारों तक थी, लगता है इस बारे में नागरिक-सैन्य-राजनयिक तंत्र ने अच्छा काम किया है। एक ईमानदार मूल्यांकन किए जाने की आवश्यकता है कि क्या नवीनतम स्थिति युद्ध विराम समझौते की ओर ले जाने वाली घटनाओं और युद्ध विराम को स्वीकार करने से पहले मिले आश्वासनों के अनुरूप है। इसका उत्तर इस एक अकेले प्रश्न के उत्तर में निहित होगा, क्या हर बार आतंकवादी कार्रवाई होने पर इस किस्म की गतिज कार्रवाई करने की आवश्यकता पड़ेगी? हालांकि पाकिस्तान को याद रहे कि भविष्य में ऐसी घटना दोबारा होने पर बदले में दंडात्मक प्रतिक्रिया मिलेगी।
पांचवां, क्या युद्ध विराम इस बात का संकेत है कि हम लगभग पूर्ण युद्ध की कगार पर पहुंच चुके थे? कुछेक प्रश्नों को स्पष्ट करने की आवश्यकता है। पहलगाम के आतंकवादी कहां हैं, जिन्होंने अपने निर्दयी नरसंहार से यह सब शुरू किया था? क्या यह आश्वासन दिया गया है कि पाकिस्तान उन्हें ढूंढ़कर सौंप देगा? इतना ही महत्वपूर्ण पहलू यह है कि चूंकि शिमला समझौते में आपसी समस्याओं का समाधान केवल द्विपक्षीय वार्ता के जरिए निकालने की बात कही गई है, इसलिए युद्ध विराम की घोषणा करते समय अमेरिकी विदेश मंत्री रूबियो के बयान का यह भाग कि ‘सभी मुद्दों पर तटस्थ जगह पर चर्चा करें’, इस पर आधिकारिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। यह करना फौरी तौर पर जरूरी है क्योंकि ‘सभी मुद्दे’ शब्द से समस्याओं का पिटारा खुल सकता है।
और अंत में, किंतु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बात का जवाब चाहिए कि क्या चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ वाली प्रणाली, जिसके लिए यह टकराव पहली परीक्षा रहा, क्या उसने वह काम कर दिखाया जिसके लिए इसकी स्थापना हुई थी। सैन्य मिशनों की योजना वास्तव में कौन बना रहा था और ‘युद्ध’ को अंजाम किसने दिया – एकीकृत रक्षा स्टाफ ने या फिर सेना और वायु सेना के क्षेत्रीय कमान मुख्यालयों के कमांडर-इन-चीफ इन कार्रवाइयों का संचालन कर रहे थे? इस प्रश्न का उत्तर हमारे उच्चतर रक्षा संगठन तंत्र (थिएटराइजेशन) के फिलहाल जारी पुनर्गठन में एक अमूल्य योगदान होगा– युद्ध की भट्टी से तपकर निकले अनुभव से ज्यादा बढ़िया सबक दुबारा मिलना असंभव होगा।
वास्तव में, यह करना उन बहादुर पुरुषों और महिलाओं को एक उचित श्लाघा होगी जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर का नेतृत्व किया।
लेखक सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक हैं।