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एक साल बाद आपराधिक कानूनों की दिशा-दशा

04:00 AM Jul 03, 2025 IST
एक साल बाद आपराधिक कानूनों की दिशा दशा
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अब समय आ गया है कि नए आपराधिक कानूनों की पहली समीक्षा की जाए ताकि मसौदा तैयार करने में हुई गलतियों को सुधारा जा सके, खामियों को दूर किया जा सके, कमियों की भरपाई की जा सके और लोगों की वास्तविक चिंताओं को खुले मन से स्वीकार करके कानूनों में आवश्यक फेरबदल किया जाए, जिससे इन कानूनों की उपयोगिता और बढ़ सके।

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के.पी. सिंह

तीन नये आपराधिक कानून 1 जुलाई, 2024 को इस उम्मीद के साथ लागू किए गए थे कि भारत में ब्रिटिश काल से चली आ रही आपराधिक न्याय प्रणाली नागरिकों को न्याय प्रदान करने और सुरक्षा और संरक्षण की गारंटी देने वाली एक जन-केन्द्रित, प्रगतिशील, उद्देश्यपूर्ण एवं सक्षम संस्था के रूप में बदल जाएगी। यद्यपि किसी कानून के लागू होने के बाद एक वर्ष का समय लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में इसकी सफलता या विफलता के बारे में कुछ भी महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं है, तथापि यह समय कानून के कार्यान्वयन में आने वाली बाधाओं और अवरोधों की पहचान करने के लिए पर्याप्त संकेत छोड़ जाता है।
नए कानूनों के लागू होने से पहले, कई कानून विशेषज्ञों ने उनकी उपयोगिता और व्यावहारिकता के बारे में आशंका व्यक्त की थी। यह सराहनीय है कि न्याय प्रणाली की सभी शाखाओं ने धारा-संख्या और उसमें निहित प्रावधानों में किए गए बदलावों को अच्छी तरह से स्वीकार और अंगीकार किया है। पहले दिन से ही उन्हें बिना किसी समस्या के व्यवहार में लाना शुरू कर दिया है। पूरे देश में नए कानूनों के अनुसार प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) दर्ज की जा रही है और उनकी जांच की जा रही है। ऐसा केवल व्यापक पैमाने पर चलाए गए प्रशिक्षण अभियान के कारण ही सम्भव हो पाया है, जिसकी परिकल्पना और योजना गृह मंत्रालय द्वारा बनाई गई थी, और जिसे सभी हितधारकों द्वारा उत्साहपूर्वक अपनाया गया है। यहां तक कि विधि-विद्यालयों ने भी शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में हुए इन बदलावों को बिना किसी कठिनाई के आत्मसात कर लिया है।
महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अपराधों को नए कानूनों में सबसे अधिक वरीयता देकर यह संदेश दिया गया है कि सरकार महिलाओं और अवयस्कों की सुरक्षा और संरक्षण के प्रति संवेदनशील है। पुलिस ने इन प्रावधानों का बखूबी प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त, सज़ा के प्रावधानों का अपराध की संगीनता के अनुसार सरलीकरण करके दण्ड-विधान को सुधारात्मक बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है, यद्यपि इसके परिणाम कुछ वर्षों बाद ही देखने को मिल सकेंगे।
भारत की संप्रभुता, एकता और अखण्डता सबसे महत्वपूर्ण है, और यह भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस) की धारा 48 के प्रावधानों में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता हैैै। इस धारा में, देश के बाहर बैठकर भारत में अपराध को बढ़ावा देने वाले राष्ट्र विरोधी तत्वों के विरुद्ध मामला दर्ज करने का प्रावधान किया गया है। ऐसे मामलों में अपराधियों के विरुद्ध मुकदमों की सुनवाई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) की धारा 356 के अनुसार आरोपियों की अनुपस्थिति में भी की जा सकती है। हालांकि यह एक कटु सत्य है कि इन धाराओं का आतंकवादियों और गैंगस्टरों के खिलाफ नगण्य प्रयोग किया गया है, फलस्वरूप विदेशों में बैठकर भारत में फिरौती के लिए कॉल करने और आतंकवाद को भड़काने जैसी गतिविधियां रुक नहीं पाई हैं।
वहीं दूसरी ओर, देश की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता अक्षुण्ण रखने के उद्देश्य से नए कानूनों में जोड़ी गई धारा 152 भारतीय न्याय संहिता के दुरुपयोग की शिकायतें निरंतर अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। ऐसे आरोप लग रहे हैं कि इस धारा का प्रयोग अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात करने के लिए किया जा रहा है। ऐसे अनेक मामलों में उच्चतम न्यायालय सुनवाई कर रहा है।
मुकदमों के अनुसंधान को पारदर्शी और उच्चस्तरीय बनाने के उद्देश्य से प्रक्रिया का डिजिटलीकरण करने के प्रावधान नए कानूनों की विशेषता है। फारेंसिक जांच का दायरा अनुसंधान प्रक्रिया में बढ़ाकर जांच को निष्पक्ष और प्रभावी बनाया गया है। परन्तु यह चिन्ता का विषय है कि अब तक डिजिटलीकरण और फारेंसिक प्रयोगशालाओं को स्थापित करने की गतिविधियां उतनी रफ्तार से नहीं चल पाई हैं जितनी चलनी चाहिए थी। राज्य सरकारों के सीमित वित्तीय संसाधन इसके लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं।
हालांकि, केन्द्र सरकार ने राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जिनमें ‘महिलाओं और बच्चों के खिलाफ साइबर अपराधों की रोकथाम’, ‘साइबर न्यायवैधिक प्रशिक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना’ और ‘पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता’ देना सम्मिलित है। संसाधन वृद्धि और क्षमता निर्माण के लिए इन योजनाओं का उपयोग करना राज्यों पर निर्भर करता है। पारम्परिक लाठीधारी सिपाहियों को एक तकनीक-प्रेमी पुलिस बल के रूप में बदलने के लिए पर्याप्त संख्या में साइबर-साक्षर और डिजिटल रूप से प्रशिक्षित जन-शक्ति की भर्ती करना, वित्तीय संकट और राजनीतिक आकाओं की अनिच्छा के कारण एक बड़ी चुनौती बन कर रह गई है। अभी तक, पुलिस विभाग कम शिक्षित ग्रामीण युवाओं के लिए रोजगार का मुख्य स्रोत है और भर्ती नीति में किसी भी बदलाव का जन-प्रतिनिधियों द्वारा कड़ा विरोध होने वाला है। न्याय प्रणाली से जुड़ी अन्य संस्थाओं का भी कमोबेश यही हाल है।
आपराधिक न्याय प्रणाली के घटकों के कामकाज के आपसी समन्वय के लिए आवश्यक नए नियमों और प्रोटोकॉल तथा सॉफ्टवेयर को विकसित करना नए आपराधिक कानूनों को पूरी तरह से क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक है। यही प्रक्रिया अभी भी प्रारम्भिक अवस्था में है। यह एक बहुत बड़ा कार्य है जिसे गृह विभाग के कामकाज के नियमों, उच्च न्यायालय के नियमों और आदेशों, पुलिस नियमों, जेल मैनुअल और अभियोजन एजेंसी के कर्तव्यों के चार्टर की समीक्षा करके उसमें बदलाव करने पर ही पूरा किया जा सकता है। एकीकृत कमान के अन्तर्गत इन नियमों को अन्तिम रूप देने के लिए सभी हितधारकों के मिल बैठकर विचार करने की आवश्यकता है। आपराधिक न्याय प्रणाली की अलग-अलग शाखाओं द्वारा पुराने नियमों को नए सांचे में ढालने के प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे क्योंकि सभी शाखाओं के समन्वय से ही सक्षम नियम और प्रोटोकॉल निर्धारित किए जा सकते हैं।
नए आपराधिक कानूनों को पेश करते समय यह घोषित किया था कि ये कानून जन-केन्द्रित और न्यायोन्मुखी होंगे। इसके लिए अपराध-पीड़ितों के कल्याण और ‘गवाहों की सुरक्षा, पीड़ितों को क्षतिपूर्ति’ और जांच तथा अभियोजन कार्यवाही में उनकी सक्रिय भागीदारी के अधिकार जैसी अवधारणाएं पेश की गई हैं। इन प्रावधानों का उचित सार्वजनिक प्रकटीकरण अभी भी देखना शेष है। अधिकांश अधिकार-क्षेत्रों में नियमों की अनुपस्थिति और अनुप्रयोग में कमी के कारण उनकी व्यावहारिकता और उपयोगिता का परीक्षण किया जाना अभी बाकी है। जबकि, साइबर धोखाधड़ी और डिजिटल गिरफ्तारी के पीड़ितों की दुर्दशा उनकी शिकायतों का पंजीकरण न होने और ठगे गए धन की वसूली न होने के कारण नागरिकों में असंतोष दिखाई पड़ रहा है, जिसका कोई तत्कालिक समाधान दिखाई भी नहीं देता है।
नए आपराधिक कानूनों में परिकल्पना थी कि त्वरित न्याय एक वास्तविकता होगी और इस उद्देश्य से अदालतों में कुछ कार्यवाहियों के लिए समय सीमा तय की गई है। इन सीमाओं का शायद ही पालन किया जा रहा है क्योंकि ये सलाहकार प्रकृति की हैं, बाध्यकारी नहीं हैं। जब तक अदालतों की संख्या में बढ़ोतरी नहीं की जाती और देरी के लिए जिम्मेदार मुख्य मुद्दों को हल करने के लिए प्रक्रियाओं को सरल नहीं बनाया जाता, तब तक त्वरित न्याय सपना ही बना रहेगा।
यह हकीकत है कि नए आपराधिक कानून के लागू होने से सही दिशा में कुछ आत्मविश्वासपूर्ण कदम उठाए गए हैं। आम तौर पर किसी कानून को परिपक्व होने और उसका उद्देश्यपूर्ण उपयोग होने में दशकों लग जाते हैं। अब समय आ गया है कि नए आपराधिक कानूनों की पहली समीक्षा की जाए ताकि मसौदा तैयार करने में हुई गलतियों को सुधारा जा सके, खामियों को दूर किया जा सके, कमियों की भरपाई की जा सके और लोगों की वास्तविक चिंताओं को खुले मन से स्वीकार करके कानूनों में आवश्यक फेरबदल किया जाए, जिससे इन कानूनों की उपयोगिता और बढ़ सके।

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लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

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