एक वो जमाना था, एक यह जमाना है
सहीराम
नहीं, हम उस जमाने को बुजुर्गों की तरह से याद नहीं करना चाहते- अतीतजीवी होकर। लेकिन फिर भी याद करना चाहिए ताकि अपने जमाने का पता चले कि कैसा चल रहा है। कोई फर्क है भी या नहीं। वैसे फर्क तो है जी। इसके लिए दो दृश्य देखिए, पहला दृश्य—दुनिया के सम्राट अर्थात अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के समक्ष यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की हाजिर होते हैं। सम्राट को पता है कि कभी वह एक कॉमेडियन रहा है सो सम्राट उसे जोकर ही मानता है। सम्राट के दरबारी भी उसे जोकर ही मानते हैं और उसकी खूब लानत-मलानत करते हैं।
सम्राट के मुख्य दरबारी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस जेलेंस्की को लताड़ते हैं- बड़े नाशुक्रे आदमी हो। तुमने अभी तक सम्राट के प्रति कृतज्ञता तक जाहिर नहीं की। कृतघ्न हो तुम। जेलेंस्की ने कुछ सफाई देने की कोशिश की तो सम्राट ने डपट दिया- चुप रहो तुम। हमारे साथ खेल मत खेलो। सम्राट द्वारा लगायी गयी डांट से उत्साहित होकर दरबारियों ने फिर खिंचाई शुरू की—तुम्हारे पास कोट भी नहीं है क्या। एकदम ही भिखमंगे हो क्या!
अब जरा अतीत का एक दृश्य देखिए—दुनिया के सम्राट अर्थात इंगलिस्तान के सम्राट से मिलने गांधीजी पहुंचते हैं। बेशक उन्हें दरबार का, मुलाकात का ड्रेस कोड बता दिया था। लेकिन वे अपनी अधनंगी अवस्था में, अपनी लंगोटी में ही वहां पहंुचते हैं। गांधीजी को देखा तो सम्राट को चर्चिल की कही हुई बात याद आयी- यह तो सममुच ही अधनंगा फकीर है। उनसे पूछा गया- आप समुचित कपड़े पहनकर क्यों नहीं आए। गंाधीजी ने जवाब दिया-हुजूर मेरी जनता को नंगा करके उसके हिस्से के सारे कपड़े तो आप पहने बैठे हैं। इन दोनों दृश्यों में क्या फर्क है- जेलेंस्की युद्ध लड़ रहे हैं- एक हिंसक युद्ध। गांधीजी भी युद्ध लड़ रहे थे- लेकिन अहिंसक युद्ध। गांधीजी के पास नैतिक ताकत थी- अहिंसा की, सच्चाई की, जनता के हक की, अधिकार की। इसीलिए गांधी दुनिया के सम्राट को जवाब दे पाए- बेहिचक। दो टूक। खरा।
जेलेंस्की के पास यह ताकत नहीं थी। इसलिए वह अपनी लानत-मलानत करवाता रहा। बिलबिलाता रहा। गिड़गिड़ाता रहा। गांधी से मुंहजोरी करने की सम्राट की हिम्मत नहीं थी। लेकिन जेलेंस्की को सम्राट डराता रहा, धमकाता रहा। गांधीजी, सम्राट से अपनी जनता के हक और अधिकार मांगते रहे। लेकिन जेलेंस्की युद्ध के लिए मदद मांगता रहा। सम्राट यह भी था। सम्राट वह भी था। अपनी जनता का नुमाइंदा जेलेंस्की भी था। अपनी जनता के नुमाइंदे गांधीजी भी थे। लेकिन दोनों में फर्क था। गांधी के पास सच्चाई की, अहिंसा की, नैतिकता की ताकत थी। जेलेंस्की के पास इनमें कुछ भी नहीं था।