‘एक्टिंग के अलावा कुछ नहीं ...’
थियेटर से एक्टिंग की शुरुआत करने वाले अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने साल 1985 से दूरदर्शन सीरियलों में एंट्री की। फिर फिल्मों और ओटीटी सीरीज में अभिनय किया। पानीपत में जन्में कलाकार राजेंद्र को छोटे पर्दे पर ‘चंद्रकांता’ और ‘चिड़ियाघर’ की भूमिका से खास पहचान मिली। वहीं ‘लगान’, ‘जब वी मेट’, ‘गुरु’ व ‘पान सिंह तोमर’ आदि फिल्मों में भूमिकाएं निभाईं।
राजेंद्र शर्मा
अभिनेता राजेंद्र गुप्ता आज फिल्म जगत में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनके भावपूर्ण अभिनय के दुनिया भर में कद्रदान हैं। एक मंजे हुए कलाकार के सारे गुण उनमें विद्यमान हैं। थियेटर से शुरुआत करने वाले अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने साल 1985 से दूरदर्शन के सीरियलों में एंट्री की। फिर फिल्मों और ओटीटी सीरीज में अभिनय से एक विशेष मुकाम हासिल किया। आजकल जब सिर्फ पैसा कमाने के लिए बिना सिर-पैर की उद्देश्यहीन फिल्मों का निर्माण हो रहा है, ऐसे समय में 79 वर्षीय राजेंद्र गुप्ता अपनी पुरानी नाटकों की दुनिया में मशरूफ हैं और इन दिनों कवि धूमिल की चर्चित कविता ‘पटकथा’ के नाट्य मंचन शहर-दर-शहर कर रहे हैं। इसके अलावा नाटक ‘जीना इसी का नाम है’ तथा मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी बेटी के रिश्तों पर केंद्रित नाटक ‘जिन्ना की आखिरी रात’ का मंचन मुंबई से बठिंडा तक कर रहे हैं।
पानीपत के सपूत हैं राजेंद्र गुप्ता
राजेंद्र गुप्ता का जन्म 17 अक्तूबर 1947 को पानीपत में पावरलूम के व्यवसाय में जुटे ऐसे परिवार में हुआ। राजेंद्र गुप्ता ने अपनी शुरुआत की पढ़ाई पानीपत में की और उसके बाद कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातक की। राजेंद्र गुप्ता को बचपन से ही कारोबार में रुचि नहीं थी। अभिनय में ही उनका मन लगता था। उदार विचारों के धनी उनके पिता जय भगवान दास ने उन्हें अपने मन का काम करने के लिए प्रेरित किया तो राजेंद्र गुप्ता राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पहुंचे।
प्रेम विवाह
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पढ़ाई और नाटकों के मंचन के दौरान ही राजेंद्र गुप्ता की मुलाकात वीना से हुई। दोस्ती बहुत जल्दी प्यार में तब्दील हो गई। इंदौर की रहने वाली वीना के घरवाले इस शादी के लिए तैयार नहीं थे। इस स्थिति में राजेंद्र गुप्ता और वीना ने भोपाल में जाकर मंदिर में शादी की। नाटकों से गृहस्थी न चलने की सोच के तहत राजेंद्र ने पानीपत में पुश्तैनी व्यवसाय में हाथ बंटाने का फैसला किया। इस बीच उनके घर आंगन में पुत्री रावी गुप्ता ने जन्म लिया।
अभिनय के अलावा कुछ नहीं कर सकता
लगभग डेढ़-दो साल तक कारोबार में जुटे रहने के बाद भी राजेंद्र गुप्ता का कलाकार मन व्यापार में नहीं समा पाया। पिता ने फिर एक बार बड़ा दिल दिखाते हुए कहा कि राजेंद्र, जो तुम्हारा मन करें वही करो। यहीं से दिल्ली और दिल्ली से मुंबई का सफर शुरू हुआ। अभिनय के प्रति झुकाव कैसे हुआ? इस सवाल के जवाब में राजेंद्र गुप्ता कहते हैं, ‘ स्कूल में सातवीं कक्षा का छात्र था, उस समय। सालाना समारोह में अध्यापक ने ‘महाराणा प्रताप’ नामक नाटक का मंचन कराया तो मुझे भी एक भूमिका दी गई। नाटकों की कोई समझ नहीं थी, लेकिन मंच पर जाकर अपनी भूमिका अभिनीत कर मन प्रसन्न हुआ। उसी समय संकल्प लिया कि यही काम जीवन में करना है।’ पिछले पांच दशकों से रंगमंच, दूरदर्शन, फिल्मों और वेब सीरीज के जरिए अपना एक मुकाम हासिल कर चुके राजेंद्र गुप्ता चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘सच बताऊं, मैं एक्टिंग के अलावा कोई दूसरा काम कर भी नहीं सकता था।’
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा दिल्ली के 1972 बैच के छात्र राजेंद्र गुप्ता ख्यात निर्देशक बी.बी. कारंत के निर्देशन में नाटकों में काम कर रहे थे। लेकिन उन दिनों थियेटर में मुश्किल से पचास रुपये मिलते थे। धीरे-धीरे अहसास होने लगा कि कुछ कमाना भी है। राजेंद्र गुप्ता स्वीकार करते हैं कि जरूरत होती है, लेकिन किसी से काम मांगने जाना मेरी फितरत में न पचास साल पहले था, न कभी रहा और आज भी यही फितरत है।
फिल्म ‘गांधी’ से की थी शुरुआत
साल 1981 में फिल्म ‘गांधी’ की शूटिंग दिल्ली में भी हुई, जिसमें राजेंद्र गुप्ता सहित राष्ट्रीय स्कूल ऑफ ड्रामा के बहुत सारे कलाकारों को काम करने का मौका मिला। राजेंद्र गुप्ता बताते हैं कि फिल्म ‘गांधी’ में काम करने के एवज में मिले पैसों से यह बात समझ में आ गई कि सिनेमा में काम करने के लिए मुंबई जाना पड़ेगा। साल 1985 में परिवार सहित मुंबई पहुंचे। राजेंद्र गुप्ता ने अपने इस कैरियर की शुरुआत छोटे पर्दे से की। राजेंद्र गुप्ता बताते हैं, ‘मैं जून 1985 में मुंबई आया और अगस्त में दूरदर्शन के सीरियल ‘कहानी’ में काम करने का मौका मिल गया। उस समय ‘रजनी’ सीरियल आता था, उसमें भी तीन-चार एपिसोड में काम किया, उसके बाद सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘ये वो मंजिल नहीं’ मिल गई।’ नब्बे के दशक तक आते-आते राजेंद्र गुप्ता करीब चालीस टीवी शो में अपना अभिनय कर चुके थे। इसके लिए उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी दर्ज है। छोटे पर्दे पर ‘चन्द्रकांता’, ‘साया घर’ आदि आज भी उनके अभिनय के लिए जाने जाते हैं।
‘चंद्रकांता’ और ‘चिड़ियाघर’ की भूमिकाएं
राजेंद्र गुप्ता स्वीकारते हैं कि ‘चंद्रकांता’ और ‘चिड़ियाघर’ की भूमिका ने उनकी पहचान स्थापित की। राजेंद्र गुप्ता बताते हैं कि सोनी चैनल के एक शो ‘जगन्नाथ और पूर्वी की दोस्ती अनोखी’ में जगन्नाथ मिश्रा का किरदार उनके दिल के बहुत करीब है। इस किरदार को करते समय मुझे ऐसा लगा कि 20 साल पहले के दूरदर्शन का जमाना आ गया है। राजेंद्र गुप्ता बताते हैं कि ‘चंद्रकांता’ सीरियल में पंडित जगन्नाथ का किरदार निभाया था। आज भी छोटे शहरों में जाता हूं तो लोग ‘जगन्नाथ पंडित जी’ से संबोधित करते हैं। दूरदर्शन के सीरियल ‘नुक्कड़’ में नगर पार्षद का किरदार, सुधाकर कदम, ‘इंतजार’ सीरियल का स्टेशन मास्टर का किरदार ऐसे किरदार हैं जो आज भी दर्शकों के मन मस्तिष्क में तैरते रहते हैं। सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘ये वो मंजिल नहीं’ से विधिवत रूप से फिल्मों में शुरुआत करने वाले राजेंद्र गुप्ता ने ‘लगान’, ‘जब वी मेट’, ‘मैं जिंदा हूं’, ‘गुरु’, ‘कृष्णा काटेज’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’ समेत दर्जनों फिल्मों में बेहतरीन काम किया है।
पसंदीदा निर्देशक
ख्यात निर्देशक मणिरत्नम के साथ ‘गुरु’ में काम कर चुके राजेंद्र गुप्ता कहते हैं कि वह एक ऐसे निर्देशक हैं जो सभी कलाकारों की समान रूप से इज्जत करते हैं। तिग्मांशु धूलिया कम से कम समय में बहुत बढ़िया काम करते हैं। श्याम बेनेगल के साथ काफी काम किया है, उनके साथ अंतिम फिल्म ‘मेकिंग ऑफ संविधान’ किया था। सुधीर मिश्रा के साथ भी ऐसा ही काम करने का अनुभव रहा। आज के निर्देशकों की बात करें तो आनंद एल राय सहज निर्देशक और जमीन से जुड़े हुए इंसान हैं।
कविता प्रेमी हैं राजेंद्र गुप्ता
कविताओं और किस्सों से खासा लगाव रखने वाले राजेंद्र गुप्ता ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने हमेशा अपने मन का काम किया। आज के दौर में जो उद्देश्यहीन और फटाफट की संस्कृति के तहत फिल्में और ओटीटी सीरीज बन रही हैं, उनसे राजेंद्र गुप्ता नाखुश हैं। लोग मानते हैं कि उनकी प्रतिभा के अनुरूप फिल्म जगत में उन्हें वह मुकाम, शोहरत नहीं मिल पायी जिसके वह पात्र हैं। इस बारे में राजेंद्र गुप्ता कहते हैं, ‘दाल रोटी चलती रहे, इससे अधिक कुछ पाने के लिए मैंने कभी पहल नहीं की, जुगाड़ की संस्कृति मुझे कभी नहीं भायी। कागजी मान-सम्मान की बजाय दर्शकों का बहुत प्रेम मिला, यही मेरी पूंजी है। 79 साल की उम्र में चुस्त-दुरुस्त रहते हुए नाटक के जरिये सीधे दर्शकों से जुड़कर जो खुशी और शांति मिलती है, उसका बयान नहीं कर सकता।’