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अमेरिकी वर्चस्व को डीपसीक की चुनौती

04:00 AM Jan 31, 2025 IST
अमेरिकी वर्चस्व को डीपसीक की चुनौती
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कहां तो अमेरिका इस कोशिश में था कि चीन एआई के मामले में उसका पिछलग्गू बना रहे, लेकिन लागत और तेजी में डीपसीक उससे आगे निकल गया। डीपसीक आर-1 के आर्थिक फायदे-नुकसान की एक तस्वीर तो दुनिया देख ही चुकी है। जैसे ही अमेरिका में डीपसीक के पहुंचने की खबरें आईं, उसके शेयर बाजारों में तबाही का आलम पैदा हो गया। इसकी वजह एआई के क्षेत्र में अमेरिकी कंपनियों के दबदबे को चुनौती मिलना है।

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डॉ. संजय वर्मा

अमेरिकी सत्ता पर दोबारा काबिज होने के पहले ही दिन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक चीनी एप टिकटॉक पर अपने देश में लगी पाबंदी हटाने का ऐलान किया, तो उन्हें अहसास नहीं रहा होगा कि एक अन्य चीनी क्रांति उनकी नींद हराम करने के लिए पैदा हो गई है। यह क्रांति कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उस दायरे में हुई है, जिसमें ओपन एआई, गूगल और फेसबुक आदि इंटरनेट कंपनियों के चैटजीपीटी, जेमनाई (बार्ड), को-पायलट और मेटा एआई जैसे अमेरिकी टूल या सॉफ्टवेयर पूरी दुनिया पर कब्जा किए हुए बैठे हैं। बात डीपसीक आर-1 नामक उस चीनी चैटबॉट की है, जिसके आगमन ने एआई बरतने वालों में यह कौतूहल जगा दिया है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले अमेरिकी टूल्स या सॉफ्टवेयर के मुकाबले ग्राहकों को इस चीनी इंतजाम की सुविधाएं मुफ्त हासिल होंगी और ज्यादा तेजी से मिलेंगी। डीपसीक इसकी सबसे ताजा मिसाल है कि तकनीक के क्षेत्र में किसी एक देश, इलाके या कंपनी का एकछत्र साम्राज्य या एकाधिकार कितनी तेजी से ध्वस्त हो सकता है। इससे भरोसा जगा है कि अगर कोई गरीब या विकासशील मुल्क मामूली संसाधनों के बल पर विकसित देशों के बराबर पहुंचना चाहे, तो दृढ़ इच्छाशक्ति और मेहनत के बल पर आज वह ऐसा आसानी से कर सकता है।
याद कीजिए, जब 1980 के दशक के आखिर में अमेरिका ने भारत को क्रे नामक सुपर कम्प्यूटर देने से इनकार कर दिया था। वह आशंकित था कि भारत इसका इस्तेमाल अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में कर सकता है। कालांतर में भारत के सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग (सी-डैक) ने परम-8000 नामक सुपर कंप्यूटर बना लिया। दिखा दिया कि तकनीकी क्रांति में किसी की बपौती नहीं चल सकती। आज वही हालात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के मामले में बन गए हैं। चीन एआई में बराबरी में आने के बारे में भी न सोच सके, इसका प्रबंध बाइडेन सरकार ने डच कंपनी द्वारा बनाई जाने वाली लिथोग्राफी मशीनों की चीन को बिक्री पर रोक लगाने के रूप में किया था। ये मशीनें बेहद एडवांस माइक्रोचिप्स बना सकती हैं। इनका इस्तेमाल एआई के टूल्स और सॉफ्टवेयर में होता है। हालांकि, डीपसीक के निर्माता अमेरिकी कंपनी एनवीडिया से खास किस्म के माइक्रोचिप्स (ए-100 और एच-800) पहले ही खरीद चुके थे, लिहाजा उनका अत्यधिक किफायत से इस्तेमाल कर चैटबॉट डीपसीक बना डाला गया।
कहां तो अमेरिका इस कोशिश में था कि चीन एआई के मामले में उसका पिछलग्गू बना रहे, लेकिन लागत और तेजी में डीपसीक उससे आगे निकल गया। डीपसीक आर-1 के आर्थिक फायदे-नुकसान की एक तस्वीर तो दुनिया देख ही चुकी है। जैसे ही अमेरिका में डीपसीक के पहुंचने की खबरें आईं, उसके शेयर बाजारों में तबाही का आलम पैदा हो गया। इसकी वजह एआई के क्षेत्र में अमेरिकी कंपनियों के दबदबे को चुनौती मिलना है। डीपसीक आर-1 चूंकि एक मुफ्त (ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर) एआई टूल या कहें कि चैटबॉट है, जिसे बनाने में अमेरिका की महंगी तकनीक और माइक्रो चिप्स की बजाय उनके सस्ते संस्करण इस्तेमाल किए गए हैं, लिहाजा माना गया कि तकनीक के आविष्कार और उसे आजमाने की जो लागत और कीमत अमेरिकी कंपनियां बताती रही हैं, वे बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हैं।
मिसाल के तौर पर अमेरिकी कंपनी ओपन एआई ने चैटजीपीटी को जिस लागत में बनाया था, डीपसीक के निर्माण की लागत उससे दस गुना कम (60 लाख डॉलर यानी करीब 52 करोड़ रुपये) आई है। इस चीनी कंपनी ने साबित कर दिया कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले वही काम बेहद सस्ते में और कई मामलों में मुफ्त में हो सकते हैं जिनके लिए अमेरिकी कंपनियां दसियों गुना ज्यादा पैसा ले रही हैं। हालांकि, कुछ का कहना है कि यह दावा करना कि एआई का कोई बेहद शानदार प्रबंध बहुत कम पैसे में हो गया है- एक भू-रणनीतिक योजना का हिस्सा हो सकता है। ऐसा कहने के पीछे अमेरिका के खिलाफ आर्थिक युद्ध छेड़ने की मंशा काम कर रही होगी।
दरअसल, कृत्रिम रूप से कम लागत का दावा करने का अर्थ यह साबित करना है कि अमेरिकी कंपनियां छद्म रूप से लागत और कीमतें कई गुना बढ़ाकर बताती हैं। लेकिन यदि वही काम दस-बीस गुना कम कीमत में हो सकता है, तो प्रतिस्पर्धा में आने वाली कंपनी या तो अपने उत्पाद की कीमत उसकी बराबरी में लाने को मजबूर हो जाएगी या फिर घाटा उठाने अथवा कामकाज बंद करने को मजबूर हो जाएगी। लेकिन क्या मुफ्त होने के साथ-साथ डीपसीक आर-1 चैटजीपीटी या गूगल के जेमनाई की तरह ही सक्षम है और उनकी बराबरी कर सकता है।
अभी दो चीजों को लेकर डीपसीक की घेराबंदी शुरू हो गई है। पहली चीज है पूर्वाग्रह-प्रेरित जवाब देना या जवाब देने से इनकार कर देना। जैसे, जब डीपसीक पर सवाल पूछा गया कि चार जून, 1989 को तियानमेन चौराहे पर द टैंकमैन नामक मशहूर घटना का विवरण क्या है, तो डीपसीक जवाब देने से कन्नी काट गया। सवाल दोहराते रहने पर भी यही जवाब मिला कि वह तो एक एआई अस्सिटेंट है, जिसे कोई नुकसान पहुंचाने वाले जवाबों से परहेज बरतने के लिए डिजाइन किया गया है। दूसरा एतराज डीपसीक को लेकर यह है कि यदि आप इस पर पंजीकरण (साइन-अप) करते हैं, तो यह आपकी सारी निजी जानकारियां चीन तक पहुंचा देगा। भारत में चीन के सोशल मीडिया एप- टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने और अमेरिका में चीनी कंपनी हुवावे का कारोबार रोकने के पीछे यही तर्क दिया जाता रहा है कि ये चीनी उपकरण और स्मार्ट मशीनें जासूसी करती हैं।
दावा यह भी कि डीपसीक असल में चीन का एक नया जासूस या एजेंट है। ऐसा तर्क देने वालों के मुताबिक डीपसीक की निजता संबंधी नीति (प्राइवेसी पॉलिसी) को मंजूर करने का मतलब है कि आपने यह शर्त मान ली है कि डीपसीक आपकी जानकारी को देश के बाहर सर्वर पर स्टोर कर सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि डीपसीक को जब आप अपने फोन से तमाम निजी जानकारियां संग्रह करने की अनुमति देते हैं, तो यह चैटबॉट आपसे ली गई समस्त जानकारियां पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के सर्वर पर पहुंचाकर जमा कर सकता है। डीपसीक अपने उपयोगकर्ता की जन्मतिथि, टेलीफोन नंबर और यूजर नेम पासवर्ड और टेक्स्ट और ऑडियो इनपुट और चैट हिस्ट्री को स्टोर करता है। भारत में भी चीन की जमीन पर बने स्मार्टफोन की बिक्री रोकने और टिकटॉक एप को प्रतिबंधित करने के पीछे यह तर्क दिया गया था कि इनके जरिए चीनी सरकार भारतीय नागरिकों की निजी जानकारियां बटोर रही है।
बहरहाल, एआई के सस्ते-महंगे होने और इनके उपकरणों आदि से जासूसी कराने अथवा निजी जानकारियां समेटने के जितने भी आरोप-प्रत्यारोप हैं- वे सब एक दिन बेमानी हो जाएंगे। ऐसा तब होगा, जब एआई की बादशाहत की जंग अमेरिका-चीन से आगे बढ़कर भारत आदि दूसरों मुल्कों में पहुंच जाएगी। आशय यह है कि जब कुछ और देश चीन-अमेरिका जैसी समान महारत वाले कारनामे एआई में करने लगेंगे, तो बराबरी का एक मैदान तैयार हो जाएगा। हम ऐसा मान सकते हैं कि इसमें अगली ईंट भारत लगा सकता है। ठीक उसी तरह, जैसे अंतरिक्ष अनुसंधान की जंग में इसरो ने अमेरिका, चीन, रूस आदि को कड़ी चुनौती दी है। एआई में भी कोई भारतीय कंपनी खम ठोक मैदान में उतर सकती है और पूरा नजारा बदल सकती है।

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लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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