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ऋषिकर्म के बावजूद अधूरा रह गया सपना

04:00 AM Mar 11, 2025 IST
ऋषिकर्म के बावजूद अधूरा रह गया सपना
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वह जीवन भर किसी एक माध्यम के मोहताज नहीं रहे। तैलरंग, जलरंगी चित्र, रेखांकन, कोलाज, जले हुए कागज से तैयार किये गये म्यूरल, सिरेमिक, मूर्तिशिल्प, सीमेंट, क्रंकीट, जाली, लोहे के सरियों, हीरे आदि किसी भी माध्यम और मैटेरियल से वह कलाकृतियों को सिरज देते।

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राजेन्‍द्र शर्मा

बीती सदी के पांचवें दशक से भारतीय मूर्तिकला के शीर्षस्‍थ स्‍तम्‍भ हिम्मत शाह का सपना था कि नये और साधनहीन ऐसे कलाकार, जिनके पास काम करने के लिए अपना स्‍टूडियो नहीं हो, उनके लिए वह एक शानदार स्‍टूडियो बनायेंगे। इस सपने को साकार करने के लिए हिम्‍मत शाह अपनी चुनी हुई जिंदगी के एकांत में अनवरत रूप से कला साधना करते रहे। तमाम माध्‍यमों में काम करते हुए अंततोगत्‍वा समकालीन भारतीय मूर्तिकला के शीर्षस्‍थ स्‍तम्‍भ के रूप में स्‍थापित हुए। उनके स्‍कल्‍पचर अंतर्राष्‍ट्रीय कला बाजार में लोगों ने करोड़ों में खरीदे। इस कमाई को हिम्‍मत शाह ने अपने सपने का पूरा करने में लगाया। उनका यह सपना उनके 90वें जन्‍मदिन पर साकार होता दिखाई दिया।
जयपुर के विश्‍वकर्मा औद्योगिक क्षेत्र में चार मंजिले विशाल स्‍टूडियो में पेंटिंग, मूर्तिकला, प्रिंटमेकिंग, सिरेमिक के लिए अलग-अलग जगह हैं। सोलर सिस्‍टम, लिफ्ट, एयर कंडीशनर और अन्‍य गैजेट्स से सुसज्जित इस स्‍टूडियो की कांच की दीवारें मनमोहक दृश्‍य पेश करती हैं। बानवें साल के हिम्‍मत शाह इस स्‍टूडियो को अन्तिम रूप में देने में जुटे थे कि दो मार्च, 2025 की सुबह दिल के दौरे ने उनकी सांसों को रोक दिया। शिद्दत से देखा और संपूर्ण जीवन शिद्दत से रचा हिम्‍मत शाह का सपना पूरा नहीं हो सका।
‘स्टिल आई एम यंग’ बानवें साल की उम्र में अपने आप को यंग बताना, हिम्‍मत शाह की अदम्‍य जिजीविषा को रेख्ाांकित करती थी। भारतीय समकालीन मूर्तिकला के शीर्षस्‍थ कलाकार हिम्‍मत शाह का पूरा जीवन कला को समर्पित रहा। इसके बावजूद वह अपने जीवन की अन्तिम दिन तक थके नहीं। जब अपने मिलने वालों के बीच ‘अभी बहुत काम करना है मुझे, एक सौ बीस साल तक जीऊंगा मैं’ यह जुमला उछाल कर जब ठहाका लगाते तो वातावरण ठहाकों से भर जाता। उनकी इस जिंदादिली को देखकर हर कोई मान लेता कि एक सौ बीस न सही, सौ का आंकड़ा तो हिम्‍मत शाह जरूर पूरा करेंगे।
गुजरात के लोथल में 22 जुलाई, 1933 को जैन परिवार में जन्‍मे हिम्‍मत शाह का जन्‍म ही कला के लिए हुआ था। व्‍यावसायिक परिवार में जन्‍मे हिम्‍मत शाह ने दस साल की उम्र में घर छोड़कर कला को चुना। सर जेजे स्‍कूल ऑफ आर्ट मुंबई से स्‍नातक की उपाधि प्राप्‍त कर हिम्‍मत शाह ने एमएस यूनिवर्सिटी बड़ौदा में अपने गुरु ख्‍यात कलाकार एनएस बेंद्रे से कला की बारीकियां सीखीं। वर्ष 1967 में फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर दो साल के लिए पेरिस गये। वहां एटलियर 17 में प्रिंटमेकर एसडब्‍ल्‍यू हेटर और कृष्‍णा रेड्डी के अधीन अध्‍ययन किया। देश में इन्‍स्‍ट्राॅलेशन का दौर बहुत बाद में आया पर हिम्‍मत शाह ने पचास के दशक में ही ‘बर्न पेपर कोलाज’ जैसा इन्‍स्‍ट्रॅालेशन रच दिया था। जिसे देखकर उस समय के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था कि भाई, मैं तो अनाड़ी हूं, इसके बारे में थोड़ा विस्‍तार से बताओ मुझे।
हिम्‍मत शाह कहते थे कि उनके गुरु बेंद्रे साहब ने कहा था कि मैं तुम्‍हें आर्ट नहीं सिखा सकता ...आर्ट तुम्‍हें खुद ही ढूंढ़ना पड़ेगा ...यदि तुम्‍हें आर्ट समझ में आ गई तो आ गई, नहीं तो सात जन्‍मों तक समझ नहीं आयेगी।
अपने गुरु एनएस बेंद्रे का गुरु मंत्र हिम्‍मत शाह को इस कदर समझ आया कि वह जीवन भर किसी एक माध्‍यम के मोहताज नहीं रहे। तैलरंग, जलरंगी चित्र, रेखांकन, कोलाज, जले हुए कागज से तैयार किये गये म्‍यूरल, सिरेमिक, मूर्तिशिल्‍प, सीमेंट, क्रंकीट, जाली, लोहे के सरियों, हीरे आदि किसी भी माध्‍यम और मैटेरियल से वह कलाकृतियों को सिरज देते। उन्‍होंने वास्‍तुशिल्‍प, भित्ति चित्र, टेराकोटा और कांस्‍य में अमूर्तन का इतिहास रचा। अपने सृजन की प्रक्रिया में काम आने वाले, मूर्ति तराशने, आकार देने और ढालने के लिए कई तरह के हाथ के औजारों, ब्रुश और उपकरणों को उन्‍होंने खुद ईजाद किया। सीमेंट और क्रंकीट में भित्ति चित्र भी उन्‍होंने सिरजे। जयपुर के अपने लगभग पच्‍चीस बरस के प्रवास में उन्‍होनंे मूर्तिकला में एक अनूठी शैली विकसित की और उनकी कलाकृतियां दुनियाभर में प्रसिद्ध हुई। कृतियों में कांस्‍य और टेराकोटा माध्‍यम का अदभुत प्रयोग देखने को मिलता है। ताउम्र कला के प्रति उनकी दीवानगी एक छोटे बच्‍चे की मानिंद बनी रही। जब वे किसी कृति को देखते, कहते ‘वाह, क्या बात है!’ और खिलखिलाकर हंस देते थे।
हिम्‍मत शाह सम्‍मान और पुरस्‍कारों से परे रहने वाले कला साधक थे। साल 1956 और 1962 में ललित कला अकादमी का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार, साल 1988 में साहित्‍य कला परिषद पुरस्‍कार और 2003 में मध्‍य प्रदेश सरकार के कालिदास सम्‍मान से उन्‍हें नवाजा गया।
हिन्‍दी के सुप्रसिद्ध कवि, पत्रकार रघुबीर सहाय, सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना, श्रीकांत वर्मा, श्रीराम वर्मा, रमेश चन्‍द्र शाह, कमलेश, अशोक वाजपेयी, विनोद भारद्वाज, प्रयाग शुक्‍ल सभी हिम्‍मत शाह की कला में जड़ता न होने के प्रशंसक रहे और दिल्‍ली में गढ़ी में स्थित उनके स्‍टूडियो में मिलने जाया करते थे। हिम्‍मत शाह की कलाकृतियों पर सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्‍ल और गिरधर राठी ने कविताएं भी लिखीं।
लगभग पच्‍चीस साल पहले जयपुर में बसने से पहले हिम्‍मत शाह का ठिकाना दिल्‍ली रहा, वह दौर उनके आर्थिक रूप से खासा कष्‍टदायक रहा, लेकिन खिलदंड हिम्‍मत शाह उन तंगी के दिनों में आनंद में रहते। इन पंक्तियों के लेखक को एक इंटरव्‍यू में हिम्‍मत शाह ने बताया था कि मैंने जीवन के तीस से ज्‍यादा बरस केवल खिचड़ी खाकर गुजारे है। क्‍यों? तुरंत जवाब दिया कि एक तो खिचड़ी के अलावा मुझे कुछ बनाना आता नहीं है, दूसरे फ़क़ीरी का सबसे अच्‍छा दोस्‍त खिचड़ी ही है। भारतीय कला बाजार के महान विस्‍फोट के बाद उन्‍हें पैसे मिले, जयपुर में एक घर मिला और उनकी कलाकृतियां लाखों और करोड़‍ों में बिकने लगीं। उनका 90वां जन्‍मदिन बीकानेर हाऊस दिल्‍ली में मनाया गया। उनके सबसे करीबी दोस्‍त फोटोग्राफर रघु राय के चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन भी इस अवसर पर किया गया। हिम्‍मत शाह के जाने के बाद उनका कला संस्‍थान को स्‍थापित करने का सपना अधूरा छूट गया है।

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लेखक कला-संस्कृति विषयों के जानकार हैं।

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